सप्रे संग्रहालय में राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन : वैचारिक सत्रों के साथ हुआ नाटक का मंचन

मध्यप्रदेश            May 12, 2023


मल्हार मीडिया भोपाल।

हमें विदेशी भाषाओं का मोह छोड़कर अपनी भाषा को और समृद्ध बनाना होगा, इसकी वजह साफ है कि भाषा अपने साथ संस्कृति का प्रवाह लेकर चलती है। 

1857 के  स्वतंत्रता संग्राम से पहले भी अहिंदी भाषी समाचार पत्र राष्ट्रीय चेतना जगाने का काम कर रहे थे। द्विवेदी-सप्रे युग की पत्रकारिता बहुआयामी थी।
उस दौर की पत्रकारिता चाहे मजदूर हों, महिला हो या समाज का कोई अन्य वर्ग हो। सभी के हित की बात करती थी।

कुछ इस तरह के विचारों के साथ माधवराव सप्रे संग्रहालय में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन हुआ।  'द्विवेदी-सप्रे युगीन प्रवृत्तियां और सरोकार’ विषय पर दो दिनी राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन सप्रे संग्रहालय और  उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा संयुक्त रूप से किया गया था।

अंतिम दिवस भी दो सत्रों में पत्रकारिता और साहित्य से जुड़े विभिन्न विषयों पर विमर्श हुए। इसके साथ ही इप्टा रायबरेली के कलाकारों ने 'हमारे आचार्य जी’ शीर्षक नाटक का मंचन भी किया। 

 सुबह के सत्र में साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे की अध्यक्षता में विभिन्न विषयों पर विषय विशेषज्ञों के वक्तव्य हुए। 'हिंदी के उन्नायक हिंदीतर साहित्यकार’ विषय पर कहानीकार इंदिरा दांगी ने कहा कि हिंदी भारतीय भाषाओं में सबसे युवा भाषा है।

इसकी खूबी यह है कि यह समय के हिसाब से अपने आपको ढाल लेती है। इसमें हृदय बहुत ही विशाल है, इसलिये यह सबको अपना लेती है। इसे सबसे ज्यादा यदि किसी ने सींचा है तो वे हैं हिंदीतर साहित्यकार। इसके उन्नयन में उनकी बड़ी भूमिका है।

वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल ने 'हिंदी के उन्नायक हिंदीतर भाषी पत्रकार’ विषय पर कहा कि भारतीय पत्रकारिता के साथ ही हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत हुई। यदि हम इतिहास पर गौर करें तो स्वतंत्रता के पहले संग्राम के पहले करीब आठ भारतीय भाषाओं में समाचार पत्र प्रकाशित होते थे।

इन समाचार पत्रों ने लोगों में राष्ट्रीय चेतना का भाव जगाया। उन्होंने सप्रे संग्रहालय की गतिविधियों की सराहना करते हुए विश्व के संग्रहालयों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मंगला अनुजा ने 'द्विवेदी-सप्रे चिंतन में स्त्री संचेतना’ विषय पर कहा कि इन दोनों विभूतियों की सोच अपने समय से बहुत आगे की रही है।

सप्रे जी और द्विवेदी के विचारों में समानता दर्शाते हुए उन्होंने कहा कि यह दोनों विभूतियां नारी सशक्तिकरण की दिशा में अपनी-अपनी तरह से लेखनी चलाते रहे। यदि द्विवेदी जी सती प्रथा जैसी कुरीति पर लिखते हैं तो सप्रे जी बेटियों के साथ होने वाले भेदभाव पर प्रहार करते हैं।

बाल साहित्यकार इंदिरा त्रिवेदी ने 'हिंदी बाल पत्रकारिता और उसकी सार्थकता’ पर विचार रखते हुए कहा कि बच्चों के लिए पत्रकारिता एक जिम्मेदारी और चुनौती भरा काम है। इसमें बच्चों का मनोविज्ञान समझकर विषय उठाने होते हैं।

उन्होंने बाल पत्रकारिता के इतिहास पर कहा कि इसकी शुरुआत भारतेंदु युग से हो गई थी। हालांकि उस समय में विद्वानों ने उनकी पत्रिका 'बाल बोधिनी’ को  बाल पत्र नहीं माना था। लेकिन द्विवेदी युग में यह खूब फली-फूली। 'रेडियो की भाषा’ पर विचार रखते हुए संयुक्ता बनर्जी ने टीवी और समाचार पत्रों की भाषा और रेडियो की भाषा का अंतर  बहुत ही सारगर्भित रूप में समझाया। उन्होंने कहा कि इसमें सहजता-संप्रेषणीयता के साथ रोचकता का होना जरूरी है। इसमें शब्दों के माध्यम से चित्र खींचना होता है, इसलिए गंभीरता और सृजनशीलता दोनों ही मांगती है। अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. विकास दवे ने कहा कि हमें विदेशी भाषाओं के मोह से मुक्त होते हुए भारतीय भाषाओं के बीच सामंजस्य बढ़ाना होगा।

यदि हम भारतीय भाषाओं की कृतियों का आपस में अनुवाद करेंगे तो हम उस क्षेत्र या प्रांत की संस्कृति और इतिहास से भी नई पीढ़ी को परीचित कराएंगे। उनका कहना था कि भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। इस सत्र का संचालन पत्रकारिता की प्राध्यापक वन्या चतुर्वेदी ने किया। 

 

नाटक में ढलकर आये आचार्य द्विवेदी जी

 समापन सत्र का अपना अलग ही आकर्षण था। इस सत्र में इप्टा रायबरेली से आये कलाकारों ने 'हमारे आचार्य जी’ शीर्षक नाटक का मंचन किया। संतोष डे के निर्देशन में तैयार इस नाटक में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के जीवन वृत्त को बड़ी खूबसूरती से उकेरा गया। उनके जीवन से जुड़ी तमाम घटनायें उनके द्वारा पत्रकारिता, साहित्य, समाज सेवा तथा हिंदी के लिए किये गये कार्यां’ उनके संघर्षों को चित्रित किया गया। कलाकारों ने अपने सहज अभिनय से हर पक्ष को जीवंत किया। मंच पर रमेश श्रीवास्तव,साधना शर्मा, रमेश चौधरी, गौरव अवस्थी आदि कलाकारों का प्रभावी अभिनय रहा।  सत्र में बतौर मुख्य अतिथि मप्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखदेव प्रसाद दुबे उपस्थित रहे तथा वरिष्ठ प्राध्यापक श्रीकांत सिंह ने अध्यक्षता की। अपने उद्बोधन में सुखदेव प्रसाद दुबे ने राजधानी की सभी संस्थाओं द्वारा साझा रूप से ऐसे आयोजन करने का सुझाव दिया। अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. श्रीकांत सिंह ने कहा कि द्विवेदी-सप्रे युग की पत्रकारिता समाज के हर वर्ग की आवाज उठाती थी। इसलिए  उसे हम सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता कह सकते हैं। अंत में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की प्रधान संपादक डॉ. अमिता दुबे ने आभार व्यक्त किया। दोनों ही दिन बड़ी संख्या में शहर के प्रबुद्धजनों की उपस्थिति रही।

 

 



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