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इन दो घटनाओं का कवरेज बताता है मीडिया पर यूं ही नहीं उठते सवाल

मीडिया            May 09, 2016


एस.पी. मित्तल। देश का मीडिया अपनी प्रतिष्ठा खुद कैसे गिरा रहा है? इसके दो ताजा उदाहरण प्रस्तुत हैं। हम सबने देखा कि पिछले तीन दिनों से टीवी चैनलों और अखबारों में प्रकाशित हो रहा था कि केन्द्र सरकार ने बुन्देलखण्ड में ग्रामीणों के लिए जो वाटर ट्रेन भेजी है उसे उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने ठुकरा दिया है। यहां तक कहा गया कि पानी पर पीएम नरेन्द्र मोदी और यूपी के सीएम अखिलेश यादव सियासत कर रहे हैं। एक टीवी चैनल ने तो इस पर एक कार्टून भी प्रसारित कर दिया। इस कार्टून में सीएम अखिलेश को कौवा बनाकर मोदी के पानी के मटकों को फुड़वा दिया, जबकि न तो केन्द्र सरकार ने कहा कि हमने वाटर ट्रेन भेजी है और न ही यूपी सरकार ने कहा कि हमने वाटर ट्रेन को वापस कर दिया है। ऐसी खबरों की पोल 7 मई को दिल्ली में नरेन्द्र मोदी और अखिलेश यादव की मुलाकात में खुल गई। इस मुलाकात में खुद अखिलेश यादव ने मोदी से कहा कि उत्तप्रदेश के अभावग्रस्त इलाकों में ट्रेन के जरिए पानी की सप्लाई करवाई जाए। पीएम दफ्तर से इस खबर के आते ही उस मीडिया की बोलती बंद हो गई जो पिछले तीन दिन से वाटर ट्रेन को लेकर नरेन्द्र मोदी और अखिलेश यादव को आमने-सामने खड़ा कर रहा था। दूसरा उदाहरण सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय की अन्तरिम जमानत का है। सुब्रत राय की माताजी छवि राय का निधन 5 मई को हो गया। 6 मई को सुब्रत राय ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अन्तरिम जमानत की मांग की। इस पर कोर्ट ने चार हफ्तों के लिए सुब्रत राय को जमानत पर छोड़ दिया। हम सबने देखा कि चैनलों और अखबारों में जो खबरें प्रसारित हुई उनमें कहा गया कि सुब्रत राय अब खुली हवा में सांस ले सकेंगे। सुब्रत राय को कोर्ट से मिली राहत। यानि मीडिया ने यह दर्शाया कि यह मौका सुब्रत राय के लिए खुशी का है। कोई इन मीडिया वालों से पूछे कि जिस व्यक्ति की मां की मौत हो गई है वह व्यक्ति कैसे खुश हो सकता है? मीडिया का फोकस मां की मौत की बजाए सुब्रत राय की अन्तरिम जमानत पर रहा। इस मामले में सबसे सकारात्मक और सुब्रत राय को समझने वाली टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पीएस ठाकुर ने की। जस्टिस ठाकुर ने 4 हफ्ते की अन्तरिम जमानत देते हुए कहा कि मां तो मर कर भी मदद कर गई। आज जिस तरह से मीडिया पर आरोप लग रहे हैं उसमें मीडिया को अपनी साख बचाने की जरूरत है। यह माना कि औद्योगिक घराने अपने निहित स्वार्थों के तहत न्यूज चैनल और अखबार चला रहे हैं। अनेक चैनलों में तो विदेशी लोग भी साझेदार हैं। ऐसे में मीडिया की साख बचना मुश्किल नजर आ रहा है। टीवी चैनलों और अखबार मालिकों को अब यह भी समझना चाहिए कि आज सबसे बड़ी चुनौती सोशल मीडिया से है, जिस तरह से सोशल मीडिया पर खबरें वायरल होती हैं उसने चैनलों और अखबारों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। spmittal.blogspot.in से साभार


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