पत्रकारिता की गरिमा को सरेबाजार नीलाम कर रहे हैं पक्षकारिता करने वाले
मीडिया
Apr 19, 2016
अमन पठान।
पत्रकारिता एक मिशन है और पक्षकारिता भी? फर्क इतना है पत्रकारिता करने वाले पत्रकार मुफलिसी, अफसरानों एवं राजनेता के कहर का शिकार होते हैं और पक्षकारिता करने वाले दल्ले बहरूपिया पत्रकार अफसरों एवं राजनेताओं की गोद में बैठकर मलाई खाते हैं। जिस तरह एक भडुआ रंडी के जिस्म सौदा करके दलाली की रकम पाता है, ठीक उसी तरह पक्षकार अफसरों एवं राजनेताओं की पॉवर का सरेबाजार सौदा करते हैं।
तब कहीं जाकर उन्हें दलाली की रकम मिलती है। पत्रकार कभी पक्षकार बन नही सकते हैं और पक्षकारों को पत्रकारिता से कोई सरोकार नही है। इसलिए पक्षकारिता को लोकतंत्र के पांचवे स्तम्भ का दर्जा मिलना चाहिए। ताकि व्हाट्सएपिया एवं दलाल पत्रकार स्वतंत्रता के साथ नेताओं, अफसरों की चापलूसी एवं दलाली कर सकें और आम जनता को खुलकर लूट सकें।
जिन्हें ये नही मालूम कि पत्रकारिता क्या है? जिन्हें ये नहीं पता पत्रकारिता क्यों और किस लिए की जाती है? जिन्हें ये भी ज्ञान नहीं कि समाचार कितने प्रकार के होते हैं? उनको इसकी जानकारी भी नहीं होगी कि भारत में पत्रकारिता का जन्म कब, कहाँ और कैसे हुआ? वो पत्रकार बनकर पत्रकारिता की गरिमा को सरेबाजार एवं अफसरों, राजनेताओं की चौखट पर नीलाम कर रहे हैं।
एक दौर था जब प्रेसवार्ता में अफसरों एवं राजनेताओं को पत्रकारों के आने का बेसब्री से इन्तजार रहता था और आज पत्रकारों को प्रेसवार्ता में अफसरों एवं राजनेताओं के आने का इंतजार रहता हैं। वक़्त बदला है लेकिन पत्रकारिता के सिद्धांत नही बदले हैं। आज भी पत्रकारिता का खौफ भ्रष्टाचारियों के हृदय में मौजूद है, लेकिन कुछ दलाल पत्रकारों ने पत्रकारिता को पक्षकारिता में तब्दील कर दिया है। जिसका खामियाजा वास्तविक पत्रकारों को भुगतना पड़ता है।
पत्रकारिता को लेकर एक विशेष जानकारी से आपको अवगत कराता चलूँ। लोकतंत्र के सुचारू संचालन के लिए न्याय पालिका, कार्यपालिका और विधायिका का गठन किया गया। इनकी गलत कार्य प्रणाली पर अंकुश लगाने एवं इनको सच्चाई का आईना दिखाने के लिए पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का दर्जा दिया गया। पत्रकारिता से जुड़ने के लिए कोई मानक निर्धारित न होने के कारण अनपढ़, गंवार, जाहिल एवं अपराधी किस्म के लोगों ने पत्रकारिता से जुड़कर पत्रकारिता को गरिमा को धूमिल ही नहीं किया है, बल्कि पत्रकारिता को पक्षकारिता में तब्दील कर दिया है। जिससे अब खुद को पत्रकार बताने पर पत्रकारों को शर्म महसूस होने लगी है और साले दल्ले पक्षकार खुद को इस तरह पत्रकार बताते हैं जैसे वो कोई मंत्री हों?
अब आपको कुछ सच्ची घटनाओं से अवगत करा दूँ। अभी दो दिन पहले मैंने एक लेख लिखा था "व्हाट्सएप से हो रही है पत्रकारों की खेती"। इस लेख की पत्रकारों ने सराहना की तो दलाल पत्रकारों एवं पक्षकारों ने जमकर आलोचना की। नोएडा के सुशील पंडित पत्रकार हैं? पक्षकार हैं? दलाल हैं? या फिर सांसद बृज भूषण सिंह के प्रतिनिधि हैं? इसकी पूर्ण पुष्टि नहीं हुई है। उनका दावा है वह तीन अख़बार, एक न्यूज़ पोर्टल का संचालन कर रहे हैं और वह सांसद के प्रतिनिधि भी हैं। यहाँ एक न्यूज़ पोर्टल 'केयर ऑफ़ मीडिया' के संचालन एवं केयर ऑफ़ इंडिया के सहयोग करने में तमाम असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
वास्तविक पत्रकार किसी विधायक, सांसद या मंत्री का प्रतिनिधि नही बन सकता, क्योंकि एक पत्रकार अपनी अहमियत को अच्छी तरह जानता है कि लोकतंत्र ने उसे जो पॉवर दी है वो किसी नेता के प्रतिनिधि बनकर नही मिल सकती है। सरकार पांच साल बाद बदल जाती है। सत्ता जाते ही नेता पैदल हो जाते हैं। विधायक, सांसद का पद जनता की दी गई भीख होता है। जनता जब चाहे उस पद को छीन सकती है, लेकिन पत्रकार का पद किसी के रहमो करम का पद नही है जो उसे छीनने की गुस्ताखी कर सके। एक पत्रकार का विधायक, सांसद का प्रतिनिधि बनना किसी रंडी का भडुआ बनने की तरह है।
आइये हम पत्रकार मिलकर पत्रकारिता की गरिमा को बरकरार बनाये रखने की एक पहल का शुभारम्भ करें और पत्रकार रूपी पक्षकारों, दल्लों की नाक में नकेल डालने का का अभियान चलायें। ताकि वही पत्रकारिता का पुराना दौर लाने की कोशिश करें।
care of media से साभार
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