ममता यादव।
पत्रकार तो पत्रकार ही होता है महिला-पुरूष नहीं मगर व्यवहारिक धरातल पर यह बात आसानी से हजम नहीं हो पाती।
बात है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की, तो मीडिया में यह स्वतंत्रता के अधिकारों के तहत महिलाओं के संदर्भ में पत्रकारिता के क्षेत्र में संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों, स्वतंत्रता के हनन को व्यवहार में को परिलक्षित करती प्रतीत होती है।
विकास संवाद की जलगांव की कार्यशाला के बाद ही यह विषय मेरे जेहन में ज्यादा मजबूती से बस गया।
यूं देखा जाये तो पत्रकारिता सिर्फ पत्रकारिता ही होती है महिला पुरूष नहीं, इसी प्रकार पत्रकार सिर्फ पत्रकार होता है महिला-पुरूष नहीं। क्योंकि काम का कोई जेंडर नहीं होता।
जब मीडिया में जेंडर भेद की बात उठती है तो आमतौर पर खबरों के प्रस्तुतिकरण पर बात विस्तार से होती है कि महिलाओं के संदर्भ में अपराध समाचार इस तरह प्रस्तुत किए जाते हैं, पुरूषों से जुड़े उस तरह।
पर मेरा फोकस है पत्रकारिता की दुनिया में काम कर रही महिलाओं के साथ हो रहे या किए जा रहे बर्ताव पर।
इस विषय पर कुछ सार्थक निकलकर आए और आगे कुछ गाईडलाईन तय हो सके इसके लिए मैंने मध्यप्रदेश के जिला-कस्बों से लेकर राजधानी, शहर हर जगह की करीब 30 महिला पत्रकारेां और कुछ पुरूष पत्रकारों से चर्चा की।
इस चर्चा में जो मुख्य तथ्य उभरकर आया वह मूलत- वेतन, काम और व्यवहारिकता में असमानता और कई बार लांछन युक्त बर्ताव की मानसिकता है।
बालाघाट की सुषमा यदुवंशी कहती हैं बेवजह की दखलंदाजी, टोका-टाकी से मुक्ति पाकर जिस भी लड़की को कुछ अलग करने का मौका मिल रहा है, वो अपनी मेहनत और काबिलियत की छाप छोड़ रही हैं। यही बात पत्रकारिता के क्षेत्र में भी लागू होती है और बेटियां पूरी शिद्दत से इसे निभा भी रही हैं।
मीडिया में महिला पत्रकारों को तीन स्तरों पर जूझना पड़ता है। एक व्यक्ति के रूप में, एक नारी के रूप में फिर एक पत्रकार के रूप में। तीनों भूमिकाओं में समन्वय पर ही महिलाएं सामाजिक भूमिका निभा सकती हैं, मीडिया में सब कुछ अच्छा नहीं है, चुनौतियां बाकी हैं।
मीडिया में लड़कों के मुकाबले लड़कियों को कहीं ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, उसे कम करके आंका जाता है। बारबार उसे लड़की होने की दुहाई दी जाती है।
महिलाएं कुछ कर नहीं सकतीं जैसी बात आसानी से मुंह से निकल जाना हमेशा से सामान्य माना जाता रहा है। बात निकल जाने और कहने में फर्क होता है। मुंह से निकलना इसलिए लिखा कि पत्रकारिता में महिलाओं की स्थिति, जेंडर भेद पर बहुत कुछ पढ़ा।
इस दौरान माधवराव सप्रे संग्रहालय की पत्रिका आंचलिक पत्रकार के एक विशेषांक में महिला पत्रकारिता हिंदी का लोकवृत्त रचने में महिला पत्रकारों का योगदान पढ़ते हुए उमेश चतुर्वेदी के आलेख में की इन पंक्तियों का जिक्र जरूरी लगा क्योंकि पत्रकारिता में महिलाएं 18 वीं सदी के एक मशहूर अंग्रेजी अखबार डेली इलस्ट्रेटर मिरर के संपादक हैमिल्टन की उस धारणा को बार झुठला रही हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि महिलाएं कभी लिख नहीं सकतीं हैं और वे पढ़ना भी नहीं चाहती हैं।
हैमिल्टन के इस विचार को तो भारत में 19 वीं सदी में महिलाओं ने निराधार साबित कर दिया था। कोलकाता में मोक्षदायिनी देवी नामक क्रांतिकारी महिला अप्रैल 1870 में बंग महिला का पहला अंक लेकर आईं। महिला अधिकारों और महिला मुद्दों को मंच देने का शायद यह पहला उदाहरण है। इन अर्थों में मोक्षदायिनी देवी को पहली भारतीय महिला पत्रकार होने का गौरव प्राप्त है।
वहीं 1888 में ही हेमंत कुमारी देवी चौधरानी सामने आती हैं और हिंदी में महिलाओं के अधिकारों और समस्याओं को मुखर मंच देने के साथ ही उन्हें बराबरी का हक दिलाने का एक मंच पत्रकारिता में शुरू करती हैं। उनकी पत्रिका का नाम सुग्रहणी था। इस लिहाज से देखा जाए तो हेमंत कुमारी देवी चौधरानी हिंदी की पहली महिला संपादक कहलाती हैं।
आंचलिक पत्रकार के इसी अंक के 41 पन्नों में भारत की 1558 महिला पत्रकारों की सूची भी दी गई है जो कि 1915 से 2016 तक की महिला पत्रकारों की सूची है।
संग्रहालय के ही संस्थापक पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर कहते हैं कि महिलाओं के साथ व्यवहार या महिलाओं का व्यवहार सामाजिक धारणाओं के समयानुसार बदलता रहता है । जैसे कि जब पहली महिला फोटोग्राफर होमईव्यावरावाला जब पहली बार कैमरा लेकर निकलीं तो लोग उन्हें बहुत हैरानी से देखते थे।
लेकिन आज पत्रकारिता की ही बात करें तो कई महिला पत्रकारों ने न सिर्फ अपने काम से झंडे गाड़े बल्कि कई ऐसे क्षेत्रों में भी जाकर रिपोर्टिंग की जो सिर्फ पुरूषों के लिए ही माने जाते थे। वे बरखा दत्त का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि उनकी रिपोर्टिंग के कारण ही उनकी एक अलग पहचान बनी। वर्तिका नंदा ने भी जेलों पर काम कर एक अवधारणा को तोड़ा। बात मध्यप्रदेश की करें तो यहां अपराध रिपोर्टिंग में रानी शर्मा, जूही वर्मा जैसी महिला पत्रकारों ने अच्छा काम किया है।
महिला पत्रकारों ने दंगे, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं को कवर किया है। वह कई न्यूज चैनलों का चेहरा बनी हैं और उन्होंने क्रिकेट जैसे खेल की रिपोर्टिंग भी की है जो कि लंबे समय तक पुरुषों के वर्चस्व वाला क्षेत्र रहा है।
महिलाएं न्यूज कवरेज को नया दृष्टिकोण प्रदान कर सकती हैं। हो सकता है कि यह बेहतर न हो, लेकिन अलग जरूर होगा। वह किन विषयों को कवर करना चाहती हैं या फिर किस तरह से स्टोरी बताना चाहती हैं, इसे लेकर उनकी अलग राय हो सकती है। आज से कुछ बरस पहले तक मीडिया में अंगुलियों पर गिनी जाने वाली महिलाएं थीं, लेकिन आज स्थिति भिन्न है।
श्री श्रीधर आगे कहते हैं एक जो मानसिकता दिमागों में बैठी हुई है उसके कारण महिला संपादकों या पत्रकारों के नाम याद नहीं रहते। वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस तरह प्रभाष जोशी आलोक मेहता, राजेंद्र माथुर के नाम लिए जाते हैं उस तरह मृणाल पांडे हमें क्यों याद नहीं रहतीं?
आदिकाल से ही देखें तो महिलाओं ने हर उस धारणा को झूठा साबित किया है जो उनके खिलाफ झूठ का प्रोपेगेंडा बनाकर प्रचारित कर उन्हें कमतर साबित करने की फिराक में जाने-अनजाने तय की जाती रही हैं और हरबार महिलाओं ने खुद को सही साबित करके मौके न मिलने पर उन्होंने सअधिकार योग्यता के दम पर लिया है।
वर्तमान परिवेश की ही बात करें तो मीडिया में महिलाओं की संख्या बतौर पत्रकार बढ़ी तो है मगर बड़ी जिम्मेदारियों से महिलाएं आज भी दूर हैं।
मध्यप्रदेश की टीवी पत्रकारिता मेां 25 साल गुजार चुकीं एक वरिष्ठ टीवी एंकर कहती हैं मैं आकाशवाणी और दूरदर्शन के जमाने से इस दुनिया को देख रही हूं इसमें काम कर रही हूं। करीब तीन दशक के अनुभव में मैंने यह पाया है कि बदलते समय के साथ पत्रकारिता में महिलाओं की संख्या तो बहुत बढ़ी है मगर भीतरी परिस्थितियां आज भी बहुत अच्छी नहीं हैं। मसलन अगर किसी फीमेल रिपोर्टर और मेल बॉस के बीच विवाद हो जाए तो अधिकांशत: महिला पत्रकार को ही नौकरी से निकाला जाता है। बाद में स्थिति यह बनती है कि उस लड़की को नौकरी मिल ही नहीं पाती है।
विवाद में चाहे पुरूष ही जिम्मेदार क्यों न हो मगर कैरियर पर खतरा हमेशा महिला के ही आता है। हम कितनी ही बातें कर लें मगर असलियत यही है कि अभी-भी पत्रकारिता की दुनिया मेल डॉमिनेटिंग इंडस्ट्री ही है।
वे आगे कहती हैं कि महिलाएं ज्यादा समर्पित होकर काम करती हैं, मेहनत करती हैं, यौगयता में भी कहीं कम नहीं हैं, मगर फील्ड में कई साल देने के बाद भी उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां नहीं दी जातीं।
मध्यप्रदेश के ही एक बड़े मीडिया ग्रुप का उदाहरण देते हुए वह कहती हैं कि वहां भी महिलाओं ने बहुत रिपोर्टिंग करी, अच्छी और जिम्मेदार पत्रकारिता करी मगर फिलहाल दो ही नाम पिछले कुछ सालों से उभरकर आए हैं जिन्हें संपादक जैसे पद के समकक्ष माना गया है।
वे याद करते हुए कहती हैं और कुछ संस्थानों के नाम गिनाती हैं भोपाल के ऐसे संस्थानों के जहां किसी एक विवाद के कारण महिला पत्रकारों को नौकरी देना ही बंद कर दिया गया था।
इन संस्थानों में आज भी रिशेप्सिनस्ट, एकाउंटेंट आदि के अलावा महिला पत्रकार संपादकीय या रिपोर्टिंग में नहीं दिखतीं। तर्क यह कि महिलाएं होती हैं तो विवाद होते हैं इसलिए उनको नौकरी पर ही मत रखिए।
मेरा खुद का अनुभव यही रहा। करीब 15 साल पहले तात्कालिक संपादक ने यही कहते हुए मना किया था कि मालिक का कहना है कि अब हमें लड़कियों को नौकरी पर नहीं रखना है। तब कुछ विवाद हो गया था संस्थान में।
तो जेंडर भेद के नजरिए से देखें तो महिलाओं के लिए यह एकतरफा समस्या विकराल है जो कि दिखाई नहीं देती पर महिलाओं को ही समझ आती है कि अगर वर्कप्लेस पर शारीरिक शोषण, छेड़छाड़, रेप आदि के मामले होते हों तो पलड़ा पुरूषों का भारी होता है।
अमूमन पुरूष पॉवरफुल पोस्ट पर होता है और ऐसे हालातों में महिला का कैरियर ही खत्म होने पर आ जाता है। उसे बदनाम किया जाता है, उसके खिलाफ अफवाहें फैला दी जाती हैं।
पत्रकारिता में लैंगिक भेदभाव का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही दूसरा मिले।
मध्यप्रदेश में हनीट्रैप कांड के खुलासे के बाद उस समय की कई उभरती महिला पत्रकार फील्ड से ही आज गायब हैं। जबकि पुरूष पत्रकार एफआईआर होने समाचारों में नाम आने के बावजूद दोबारा ससम्मान न सिर्फ पत्रकारिता में दोबारा स्थापित हो गए बल्कि ज्यादा मजबूती से वापसी हो गई और सक्रिय हो गए। लेकिन महिला पत्रकारों को न तो नौकरियां मिलीं न ही दूसरे और मौके। क्या कारण है एक ही अपराध में जिम्मेदार दोनों जेंडर के लोगों के प्रति व्यवहार, सोच में इतना फर्क बरता जाता है?
पत्रकारिता की दुनिया में महिलाओं के साथ यह व्यवहार ही साबित करता है कि सदी कोई सी भी हो मानसिकता वही रहेगी, चरित्र के पैमाने सिर्फ महिलाओं के लिए तय हैं और रहेंगे। वह दोषी है या नहीं इसका परीक्षण नहीं होता वह सिर्फ दोषी ही होती है और इसकी कीमत उसका कैरियर है।
संवैधानिक मूल्यों के हिसाब से ही देखें तो स्वतंत्रता, समानता, सम्मान, आत्मनिर्भरता, जीने का अधिकार और बहुत सारी ऐसी चीजें जो एक मानव होने के नाते महिला का हक होता है, पत्रकारिता की दुनिया में उनका हनन होता रहता है, फिर अभीव्यक्ति की स्वतंत्रता तो बहुत बाद की बात है।
कुछ होती हैं जो लड़ती हैं खुद को साबित करती हैं अलग पहचान बनाती हैं, पर सब यह नहीं कर पातीं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या महिला पत्रकारों की इस तरह की समस्याओं के लिए कोई फोरम नहीं होना चाहिए? क्या सरकार ऐसी कोई संवैधानिक गाईडलाईन मीडिया संस्थानों के लिए तय नहीं कर सकती जिसमें ऐसा कुछ प्रावधान या नियम अनिवार्य रूप से हो।
सागर की पत्रकार वंदना तोमर कहती हैं, पत्रकारिता में जेंडर भेद का सामना कई मोर्चों पर करना पड़ता है। महिला पत्रकारों को जब वो किसी संस्थान में कार्य करती हैं तो वहां पर भी चुनौती पूर्ण बीट की जिम्मेदारी न देकर बस सामान्य सी जिम्मेदारी दे दी जाती है। बड़े और जिम्मेदार पदों तक पहुंचने में कहीं न कहीं जेंडर बीच में आ ही जाता है और महिला पत्रकार काबिलियत होने के बावजूद भी उन पदों तक नहीं पहुँच पाती हैं और उनकी प्रतिभा कुंठित होकर रह जाती है।
वंदना आगे जोड़ती हैं वहीं यदि स्वतंत्र पत्रकारिता की बात की जाये तो यह डगर भी जेंडर भेद के चलते महिलाओं के लिए काफी कठिन है। हमेशा हर कदम पर महिला पत्रकार को अपने आपको साबित ही करते रहना पड़ता है। समाज में भी कहीं न कहीं महिला पत्रकार के साथ कहीं न कहीं जेंडर भेद हो ही जाता है, जाने-अनजाने ही सही। पुरुषों के वर्चस्व वाले इस काम को करने वाली महिला पत्रकार को लोग कुछ अजीब तरह से देखते हैं। जब वर्षों तक महिला अपने काम से अपने आपको साबित कर देती हैं तब बात दूसरी हो जाती हैं। लेकिन इस फील्ड में नई आने वाली महिला पत्रकारों को काफी परेशानी का सामना करके अपने आपको साबित करना पड़ता है।
जिन महिला पत्रकारों से बात हुई उनका पहला मजबूत पक्ष यही था कि पत्रकार तो पत्रकार होता है महिला-पुरूष नहीं।
दूसरी बात जो मुख्यरूप से यह निकलकर सामने आई वह यह कि महिलाओं को हमेशा सॉफ्ट बीट ऑफर की जाती हैं और हार्डकोर बीट उन्हें मांगनी पड़ती हैं।
हिंदी मीडिया संस्थानों में वेतन के मामले में भी जेंडर के आधार पर दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं।
अंग्रेजी की वरिष्ठ पत्रकार श्रावणी सरकार हों, सुचांदना गुप्ता हों या दिल्ली से मध्यप्रदेश आईं आरती शर्मा या फिर दीप्ती चौरसिया। इनका मत यही निकलकर आया कि वैसे तो कोई भेदभाव नजर नहीं आता लेकिन इनको भी शुरूआत में सॉफ्ट बीट ही दी गईं। बाद में जब इन्होंने बीट बदलने को कहा, जो असाईनमेंट मिले उन्हें बेहतर तरीके से पूरा किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो पुरूष पत्रकार पहले उतने सम्मान या बराबरी से नहीं देखते थे बाद में उनके व्यवहार में परिवर्तन आया।
बात करें हिंदी मीडिया और अंग्रेजी मीडिया की तो काम और वेतन दोनों के मामले में पूरी की पूरी स्थितियां अलग हैं। अंग्रेजी मीडिया के ज्यादातर संस्थानों में वेतन को लेकर कोई भेदभाव नहीं है। पर हिंदी मीडिया में महिला-पुरूष के वेतन के आंकड़े में आधा या आधे से भी ज्यादा का अंतर है।
हिंदी मीडिया और अंग्रेजी मीडिया में खबरों के प्रस्तुतिकरण में तो फर्क है ही कार्यव्यवहार बर्ताव में भी फर्क है।
बात अगर बतौर मानव एक महिला के मूलभूत अधिकारों की करें तो अनुराधा त्रिवेदी और श्रावणी सरकार एक बात कहती हैं कि इस दुनिया के लोग महिलाओं की मानवीय जरूरतों को लेकर कितने सजग हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाईये कि आज भी कई जगह पर महिला-पुरूषों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं।
स्थिति बदली है लेकिन कई जगह आज भी यथावत है। वे याद करते हुए बताती हैं कि उस समय हम लोगों को बाथरूम घंटों रोककर काम करना होता था, या फारिग होने के लिए कोई जोखिम वाली जगह तलाशनी होती थी, वर्कप्लेस पर तो छोड़ ही दीजीए। अब स्थितियां बदली हैं पर अभी और बदलाव की जरूरत है।
अन्य महिला पत्रकारों की भांति मेरा अपना भी 20 साल का अनुभव यह कहता है कि महिला पत्रकारों के लिए इस क्षेत्र में कई अनदेखी, अनजानी चुनौतियां सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि वह महिला हैं।
इस बात को पुख्ता करती है अगस्त 2019 में न्यूजलॉन्ड्री और यूनाइटेड नेशंस वूमेन की संयुक्त रिपोर्ट भारतीय मीडिया में लैंगिक असमानता पर प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार किसी भी न्यूजरूम के 100 उच्च नेतृत्व वाले पदों पर केवल 15 महिलाएं हैं। वहीं अखबारों में यह आंकड़ा सिर्फ 5 फीसदी है। पत्रिकाओं में 14 फीसदी, डिजिटल पोर्टल पर 27 फीसदी पदों पर ही महिलाओं को ही जिम्मेदारी वाले पद मिल पाए हैं। रिपोर्ट कहती है कि दूसरी तरफ अंग्रेजी अखबारों में छपने वाले प्रत्येक 4 लेखों में से केवल एक ही किसी महिला द्वारा लिखा जाता है, वहीं हिंदी अखबारों में ये स्थिति केवल 17 फीसदी है।
इस बारे में मध्यप्रदेश की वरिष्ठ पत्रकार लता कहती हैं कि भारतीय मीडिया जिस गति से फल फूल रहा है इसमें एक आशा पनपी थी कि मीडिया के बढ़ते आकार से महिलाओं की स्थिति में सुधार आएगा और मीडिया में महिलाएं भी पुरुषों के बराबर संख्या में नजर आने लगेंगी। परंतु इस दौर में महिलाएं मनोरंजन का साधन तो बनीं किंतु पुरुषों के बराबर न आ पाईं। जो इस क्षेत्र में हैं उन पर मोटा मेकअप और पश्चिमी परिधान जैसी कुछ शर्तें भी लाद दी गई हैं और यह धारणा बन गई कि लोग उन्हें इसी भेषभूषा और स्टाइल में पसंद करेंगे।
वे कहती हैं कि इसी प्रकार पत्रकारिता के शीर्ष पदों पर महिलाओं के न होने से महिला संबंधी मुद्दों पर भी ध्यान नहीं दिया जाता, हम देखते हैं कि भ्रूण हत्या जैसे अनेकों मुद्दे स्त्री अस्तित्व से जुड़े हुए विशेष मुद्दे हैं पंरतु मुख्यधारा की मीडिया से ये मुद्दे लगभग गायब हैं।
टीवी पत्रकारिता में लगभग ढाई दशक से ज्यादा गुजार चुकीं मध्यप्रदेश की वरिष्ठ पत्रकार नाम न बताने की शर्त पर कहती हैं कि देश की आधी आबादी की संख्या दूसरे संस्थानों की तरह मीडिया संस्थानों में भी बहुत कम है। लेकिन पिछले 10 सालों में न्यूज़ रूम में महिलाओं की संख्या में थोड़ी सी बढ़ोत्तरी हुई है पर चुनौतियां उतनी ही ज्यादा बढ़ी हैं जहां तक मेरा अनुभव है लैंगिक असमानता मीडिया संस्थानों में साफ तौर पर देखी जाती है।
जब प्रतिनिधित्व की बात आती है तो महिलाओं को पीछे रखा जाता है कोई बड़ा पद देना हो तो महिलाओं को पीछे रखा जाता है। न्यूजरूम के उच्च नेतृत्व वाले पदों पर अधिकतर पुरुष ही होते हैं चाहे वह अखबार हो मैगजीन हो न्यूज़ चैनल हो या डिजिटल पोर्टल।
इसके अलावा कुछ विषयों पर लिखने पढ़ने के लिए पुरुषों को ही ज्यादा तवज्जो दी जाती हैं यदि महिला को दिया भी जाता है तो उसे पहले पुरुष चेक करता है। उसके बाद उस पर सही या गलत की मुहर लगती है। फिर बात आती है सैलरी की तो उसी एज ग्रुप की महिला और पुरुष दोनों में से एक ही पद के लिए पुरुष को सैलरी ज्यादा दी जाती है और महिला को सैलरी कम। विरोध किया जाए तो कुतर्क दिए जाते हैं। इसके अलावा मीडिया में महिलाओं का काम करना शौकिया मान लिया जाता है।
खासकर यदि महिला एंकर हो... पुरुषों की तरह महिलाओं के लिए भी खबरों पर बातें करना खबरों पर डिस्कशन करना महिला अधिकारों के दायरे से बाहर मान लिया जाता है।
खेलों की कमेंट्री हो या प्रोमोज वगैरह बनाना हो तो महिलाओं को ग्लैमरस तरीके से पेश किया जाता है। बहुत सारी कास्टिंग काउच में भी महिला मीडिया कर्मियों को एक टूल की तरह से इस्तेमाल किया जाता है।
कुलमिलाकर जो महिलाएं दुनिया भर की बतौर पत्रकार महिलाओं से संबंधित समस्याओं को उठाती हैं वह खुद अपने संस्थान में पितृसत्तात्मक सोच से जूझ रही होती हैं।
प्रशासनिक, जिला प्रशासन, रेलवे, नगर निगम, विधानसभा जैसी कई बीट्स में महिला पत्रकारों की उपस्थिती न के बराबर है।
उसका एक बहुत बड़ा नुकसान यह भी होता है कि पत्रकारिता के शीर्ष पदों पर महिलाओं के ना होने से महिला संबंधी जो मुद्दे होते हैं उन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता तो कई जरूरी मुद्दे मीडिया से गायब हो जाते हैं।
भेदभाव को जो महिलाएं झेल रही हैं वह भी अपना कहीं ना कहीं समर्थन पुरुष में तलाशती हैं और किसी न किसी पुरुष का सहारा लेकर के अपनी आवाज बुलंद करने की कोशिश करती हैं।
ऐसे में महिलाओं का नुकसान यह होता है कि उन्हें शीर्ष पद नहीं मिलते उन्हें अच्छी सैलरी नहीं मिलती उन्हें अच्छा विभाग नहीं मिलता साथ ही चुनौतीपूर्ण चीजें उनसे दूर हो जाती हैं अपनी नौकरी बचाने के लिए महिला भी चुप रहती है।
इसके अलावा कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न की समस्या बेहद संगीन और गंभीर होती है।
महिला कर्मचारियों के साथ जो सेक्सुअल फेवर्स के लिए उच्च पदों पर बैठे पुरुष होते हैं उनकी डिमांड पूरी ना होने पर तरह-तरह से परेशान किया जाता है और अंत में उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। उदाहरण के लिए मीटू को देखा और समझा जा सकता है।
जब पदोन्नति की बात आती है या फिर छुट्टी दिए जाने की बात आती है तो भी काफी भेदभाव किया जाता है।
सबसे बड़ी कमी यह है कि महिलाओं में एकजुटता नहीं होती है पत्रकार महिला संगठन बहुत हैं। लेकिन एकजुटता न होने की वजह से समस्याओं को इग्नोर कर दिया जाता है। जिसकी वजह से जो आवाज बुलंद होनी चाहिए वह कहीं ना कहीं दब जाती है।
इन समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए ताकि मीडिया में भी महिलाओं की भागीदारी को आगे बढ़ाया जा सके और आगामी पीढ़ी के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया जा सके।
इन महिला पत्रकारों के अलावा, मंगला अनुजा, स्मृति आदित्य, कल्याणी, सुरभि, सीमा चौबे, आदि से भी उनके मत लिए गए। जिनमें उक्त बातें ही निकलकर मुख्यरूप से सामने आईं।
कई महिला पत्रकारों ने विचार तो व्यक्त किए पर नाम जाहिर करने से मना कर दिया।
इस लिहाज से देखें तो इस आलेख कम रिपोर्ट के तीन स्तर हैं तीनों ही अपने आप में पूर्ण विषय हैं पहला स्वजागरूकता, साहस और स्फूर्तता कितनी है खुद के मुद्दों को ही लेकर?
दूसरा पुरूषों के मुकाबले खुद को साबित करने के लिए ज्यादा जूझना ज्यादा कठिनाईयां।
पूरी मेहनत योग्यता के बावजूद समान काम समान वेतन का संवैधानिक अधिकार के हनन होने से मीडिया कर्मी खुद भी न तो बचा पा रहे हैं न ही प्रयास करते दिखते हैं। महिलाओं के मामले में यह स्पष्ट है।
तीसरा, मानसिकता महत्वपूर्ण पहलू है, गलती चाहे किसी की भी हो कैरियर दांव पर महिला का ही लगेगा।
इस तरह के मामलों के लिए पत्रकारिता जगत में किसी एक ऐसे फोरम की जरूरत है जहां सुनवाई तो हो कम से कम।
बिना अपील बिना दलील ही महिला को चरित्र के आधार पर अपराधी घोषित कर फील्ड से बाहर करने की साजिशें आज भी होती हैं और इस पर कड़ा रूख नहीं अपनाया गया तो होती रहेंगी।
उक्त तीन पहलुओं के अलावा कई ऐसे पहलू हैं महिला पत्रकारों की दुनिया के जिसे छूने की कोशिश की गई है उनकी अपेक्षानुरूप गोपनीयता की शर्तो का पालन करते हुए।
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