श्रीकांत सक्सेना।
सत्ता प्रतिष्ठान भारत को एक सूचना विहीन समाज बनाने के लिए प्रयासरत है। कोशिश है कि लोगों के ज़ेहन तक सिर्फ वे बातें पहुंचें जो सत्ता प्रतिष्ठान की पकड़ को निरंतर मजबूत बनाए।
एनडीटीवी के अधिग्रहण का मामला आत्यंतिक रूप से उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसे प्रस्तुत किया जा रहा है।
लोकधारणा इतनी चंचल नदी के समान होती है कि उसकी दिशा के बारे में कोई पूर्वानुमान संभव नहीं है।
रेडियो,टीवी और अखबार चार कदम सूरज की ओर से रंग दिए गए थे जबकि वास्तव में अंततः चार क़दम ही झुलस गए।
मीडिया एक नाज़ुक वीणा के समान है, सही धुन निकालने के लिए एक निश्चित तनाव और संवेदनशील हाथ चाहिए।
अविवेकपूर्ण तरीके से मीडिया का इस्तेमाल अपने पक्ष को रखने और दूसरे को म्यूट करने से इसका प्रभाव इस्तेमाल करने वाले के लिए ही मारक साबित होता है। बाउंस बैक करता है। परंपरागत टीवी और पत्र-पत्रिकाओं का स्पेस लगातार सिकुड़ रहा है और उनकी विश्वसनीयता भी कम हुई है।
सस्ता डिजिटल मीडिया अपनी विश्वसनीयता और पैठ लगातार बढ़ा रहा है।
जनता के दिमाग में जो बैठ जाता है फिर स्वयं ब्रह्मा भी उसे बदल नहीं सकते।
ऊपर से लोकधारणा सदैव सच्चाई और तर्क से नहीं बनती।
सत्ता प्रतिष्ठान इन दिनों अधकचरे आत्ममुग्ध स्वघोषित पत्रकारों पर निर्भर कर रही है जिनकी वास्तविक क्षमता अतीत के स्वांग और नौटंकियों में भौंडी नाटकीयता से अधिक नहीं है।
पत्रकारिता सिर्फ एक पेशा नहीं है और दुनिया को अगर एक मंडी में तब्दील भी कर दिया जाए तो भी थोड़े से सुधि पत्रकार बाज़ी पलट देने की सामर्थ्य हमेशा रखते हैं।
मीडिया का जिस तरह इस्तेमाल सत्ता प्रतिष्ठान कर रहा है वे सारे गुर विपक्ष भी भलीभांति जान चुका है।
मजेदार बात यह है कि खुद मीडिया और पत्रकार जगत फिलहाल इस नाटक का लुत्फ़ ले रहा है।
कहते हैं न-तेल देखो,तेल की धार देखो।"
कलम की कूवत का अंदाजा अभी तक कौन लगा पाया है।
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