
डॉ. प्रकाश हिंदुस्तानी।
लो जी, आज से आजतक वाले भी डिजिटल अखबार ले आये। ये 12 पेज का है। इसकी सभी खबरें आज तक डॉट इन से संकलित है और डिस्क्लेमर में यह साफ किया गया है कि पेपर का प्रकाशन, प्रसारण और डिस्ट्रीब्यूशन किसी भी अन्य मकसद के लिए कठोर रूप से प्रतिबंधित है। यह डिजिटल 'प्रोडक्ट' सिर्फ खबरों की जानकारी के लिए बनाया गया है।
पता नहीं, यह प्रयोग अच्छा है या बुरा, लेकिन प्रयोग तो है। आजतक को ललचा रहा है छपे हुए शब्द का जादू, अखबार छापना टेढ़ी खीर है। अखबार छापने की जहमत से बचते हुए आजतक चैनल ने अपना पेपर चालू कर दिया है।
ऐसे दर्जनों डिजिटल अखबार हमारे इंदौर-भोपाल में 'छपते' हैं।
आप ऑलरेडी मीडिया मुग़ल हो, आपका अखबार है, टीवी पर अनेक चैनल हैं, सोशल मीडिया पर चैनल हैं, एफएम रेडियो है, पत्रिकाओं का तो कहना ही क्या, संगीत से लेकर बच्चों तक की पत्रिकाएं हैं, पुरुषों की पत्रिकाएं हैं, बिजनेस की पत्रिकाएं हैं। इवेंट की पूरी सीरीज आप चलाते हैं, इवेंट के नाम पर कमाई करते हैं और कॉन्क्लेव के नाम पर भी। लेकिन फिर भी भीतर ही भीतर आपको लगता है कि कहीं आपकी ज़मीन खिसक नहीं जाये?
छपे हुए अखबार का जादू मामूली जादू नहीं है। सुबह-सुबह आप जब अखबार खोलते हो तो कागज का स्पर्श, पन्नों की वह गर्माहट, स्याही की वह खुशबू आपके जेहन में छप जाती है। पन्ना पलटने की सरसराहट आप अच्छी तरह महसूस कर सकते हैं और अगर कोई छपी बात या फोटू पसंद तो उसे फाड़ कर चिपका सकते हैं। उस पर रखकर पोहे भी खा सकते हैं। मच्छर आए तो अखबार की पोंगली बनाकर मच्छर भी मार सकते हैं, लेकिन डिजिटल पेपर में?
क्या कोई वीडियो कॉल असली मुलाकात हो सकती है? क्या आप ऑनलाइन योग कर सकते हैं? क्या आप ऑनलाइन गरबा खेल सकते हैं? क्या आप ऑनलाइन होली खेल सकते हैं? ऑनलाइन रंगपंचमी की गेर निकाल सकते हैं? ये सब कर भी लें तो इसका वह मजा नहीं जो ऑफलाइन में है। डिजिटल अखबार को कभी भी आप छपा हुआ अखबार नहीं मान सकते, क्योंकि इसमें कागज, स्याही और प्रिंटिंग का जो कमाल है। वह फिजिकल है। उसे आप छू सकते हैं। तकिये के नीचे रखकर सो सकते हैं, लेकिन डिजिटल अखबार यानी पिक्सल + स्क्रीन + इंटरनेट।

छपा हुआ अखबार मानव सभ्यता की रीढ़ की हड्डी है। 1450 में गुटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस शुरू की थी। वह एक बड़ी क्रांति थी। जर्मनी में जब 1605 में पहला नियमित अखबार शुरू हुआ तो लोग उसके जरिए दुनियाभर की खबरें भी जानने लगे। राजा रानी के झूठ भी पकड़े जाने लगे। प्रिंटिंग प्रेस के कारण छपे हुए शब्द वायरस की तरफ फैले। न्यूटन, गैलीलियो, डार्विन की किताबें छपी और लोकप्रिय हुई। पृथ्वी गोल है यह बात पहले हज़ारों लोगों तक पहुंची, चर्च वालों के पास भी पहुंची। विज्ञान विजयी हुआ था। छपे हुए शब्द सत्य के हथियार की तरह बन गए थे।
इसी तरह जब लोकमान्य तिलक ने केसरी अखबार में लिखा कि स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है तो अखबार की प्रतियां जब्त कर दी गई,हुकूमत द्वारा जला दी गेन, लेकिन सन्देश तो उसके पहले ही हजारों घरों में पहुंच चुका था। लेकिन जब हिटलर ने अखबारों के जरिए झूठ फैलाया; अमेरिका ने जापान पर पर्चे गिराए कि थे कि समर्पण करो वरना बम गिरा देंगे। तो उन शब्दों में बम से ज्यादा नुकसान किया था।
छपे हुए शब्द हमेशा सभ्यता के सुपर पावर रहे। उसी के कारण 15वीं शताब्दी में विज्ञान का विस्फोट हुआ। 16वीं शताब्दी में जनमत का महत्व दुनिया ने जाना। 17वीं शताब्दी में वे विज्ञान की जीत के प्रतीक थे और 20वीं सदी से अब तक लोकतंत्र के हथियार हैं। छपे हुए अखबार में इतिहास के खुशबू है उसे छुआ जा सकता है, याद रखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है लेकिन डिजिटल शब्द तो उड़ जाते हैं !
पिछले कुछ साल में न्यूज़प्रिंट की लागत में बेतहाशा वृद्धि हुई। जो अखबार पहले ₹2 में आता था, अब 5 या 7 रुपये में आता है, लेकिन उसकी लागत 15 से 20 रुपए होती है। इसलिए अखबारों के छपे हुए संस्करण डाइटिंग पर चले गए। पन्ने कम हो गए। कई अखबार बंद हो गए हैं। छापाखानों की पुरानी मशीन डायनासोर जैसी हो गई हैं, सबसे बड़ी दिक्कत डिस्ट्रीब्यूशन की है क्योंकि अखबार डिलीवर करने वाले लोग अब गिग इकोनॉमी में जाकर स्विग्गी और जोमैटो के जॉब्स कर रहे हैं। कोरोना की महामारी ने प्रिंट को प्रिंट आउट कर दिया।
डिजिटल दुनिया के भारतीय पटल पर करीब 40 प्रतिशत पर हिन्दी ही हिन्दी है। हिन्दी के डिजिटल अखबारों ने मुद्रित अखबारों और टीवी चैनलों को पीछे छोड़ दिया है। जब मैं एक वेब पोर्टल का संस्थापक-संपादक था, तब मेरा वेतन जिले के कलेक्टर के वेतन से दो गुना था। आज मध्यप्रदेश के एक प्रमुख अखबार समूह में डिजिटल के पत्रकारों का वेतनमान बेहतर है।
यह समूह अपने यहां काम करने वाले करीब आधा दर्जन विशेषज्ञों को सात डिजिट में वेतन देता है। यानी एक करोड़ या अधिक। एक का पैकेज तो आठ डिजिट में है, करीब 15 करोड़ है। सचमुच मीडिया के लोगों के दिन फिर रहे हैं।
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