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परसेप्शन की राजनीति, बिकने तैयार नेता, गुलाम एंकर और दुर्नाम आईटी सेल की भीड़

मीडिया, राजनीति            Sep 14, 2022


हेमंत कुमार झा।

सच तो यह है कि अगर कोई नेता भारत को दुनिया में 'नंबर वन' बनाने की बात करता है तो वह जनता को भ्रमित करने के सिवा और कुछ नहीं कर रहा।

140 करोड़ के जिस देश में चिकित्सा, क्वालिटी शिक्षा और क्वालिटी रोजगार की पहुंच 100 करोड़ लोगों तक नहीं हो, वहां अगर कोई नेता इस तरह की बातें कर रहा है तो वह ऊपर की सिर्फ 35-40 करोड़ की आबादी को ही संबोधित कर रहा है।

वह भी ऐसा संबोधन, जिसमें तथ्य कम, लफ्फाजी अधिक हो। ऊपर के इन लोगों को ऐसी राजनीतिक लफ्फाजियों में रमने में मन भी लगता है।

इसलिए, विश्व गुरु, विश्व नेता, नंबर वन आदि जैसी बातें भी इन 35-40 करोड़ लोगों को खूब भाती हैं।

जैसी आर्थिक संरचना बनती गई है, ये आबादी नीचे के 100 करोड़ लोगों के हक मार कर मुटियाती गई है और शाम के प्राइम टाइम में जब यह चाय या कॉफी के कप के साथ कारपोरेट संचालित मीडिया के सामने होती है तो इसका आत्मतुष्ट मानस उन्हीं मुद्दों से तादात्म्य बनाने को तैयार होता है,  जो निचले 100 करोड़ लोगों के जीवन से किसी भी स्तर पर जुड़े न हों।

नेता और मीडिया जब नीचे के 100 करोड़ लोगों के हितों के विरुद्ध होंगे, उनके खिलाफ कारपोरेट साजिशों के भागीदार होंगे तो राजनीति का पतित होना बिल्कुल तय है और, ऐसी राजनीति कैसा समाज गढ़ेगी?

समाज की इसी गढ़न प्रक्रिया ने ऐसे आत्मलीन, स्वार्थी और भ्रष्ट लोगों की बड़ी जमात तैयार की है जिसे आर्थिक उदारवाद की अवैध संतानों के रूप में नवधनाढ्य भारतीय उच्च मध्य वर्ग कहा जाता है।

अरविंद केजरीवाल जैसे नेता और उनकी आम आदमी पार्टी विचारहीनता की इसी संस्कृति की राजनीतिक उपज हैं।

ऐसी राजनीतिक शक्तियां अक्सर सत्ता-संरचना के द्वारा छद्म विपक्ष के रूप में भी पोषित और प्रायोजित की जाती हैं ताकि वास्तविक प्रतिरोध की धार को कुंद किया जा सके।

केजरीवाल आजकल "मेक इंडिया नंबर वन" के नाम से अपना राजनीतिक अभियान चला रहे हैं जबकि नरेंद्र मोदी तो बीते एक दशक से भारत को 'विश्व गुरु' बनाने का सपना देशवासियों में बांट रहे हैं।

हालांकि, 2022 का भारत कई मायनों में दुनिया में नंबर वन है।

जैसे, दुनिया के सबसे अधिक कुपोषितों की संख्या भारत में ही बसती है, 15 से 40 आयु वर्ग के सबसे अधिक बेरोजगारों की संख्या हमारे देश में ही है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचितों की सबसे बड़ी आबादी भी यहीं बसती है आदि।

एक और मामले में जल्दी ही हम चीन को भी पीछे छोड़ कर नंबर वन बनने वाले हैं,  वह है जनसंख्या।

सबको पता है कि हमारे देश की राजनीति इस बढ़ती जनसंख्या के प्रबंधन में कितनी अकुशल और कितनी अनिच्छुक साबित हुई है।

तो...इसमें भी कोई संदेह नहीं कि मानव संसाधन प्रबंधन में सरकारों की भारी असफलता एक तरफ बेरोजगारी बढ़ाएगी, दूसरी तरफ स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में सुविधाओं की असमानता भी बढ़ती ही जाएगी।

आजकल नेता लोग मीडिया प्रबंधन में बहुत माहिर होते हैं,  इसलिए केजरीवाल से सीधे-सीधे कोई नहीं पूछता कि "काहे का नंबर वन ?"

सवाल पूछे जाने चाहिए कि देश को दुनिया में नंबर वन बनाने के अभियान के पीछे कौन सी सैद्धांतिकी है, कौन सी व्यावहारिकता है।

अरविंद केजरीवाल को अक्सर कुछ लोग नरेंद्र मोदी का एक दूसरा रूप बताते हैं। यानी, राजनीति को ऐसी लफ्फाजी में बदल देना, जो मतदाताओं को भ्रमित कर दे।

ऐसा भ्रम फैले कि वोटों की फसल तो झूम झूम कर बढ़ती जाए लेकिन वास्तविकता के धरातल पर कुछ खास नजर नहीं आए।

इसे ही कहते हैं "परसेप्शन की राजनीति" यानी भ्रम का कुहासा फैलाते रहो, बातों को गोल-गोल घुमाते रहो, जनता को बरगलाते रहो और अपनी राजनीति चमकाते रहो।

कमोवेश, हर छोटी-बड़ी पार्टी, हर छोटा-बड़ा नेता इस तरह की राजनीति करता है, लेकिन मोदी ने इस मामले में रिकार्ड कायम कर दिया है और केजरीवाल इस रिकार्ड को तोड़ने की कोशिश में कभी हिमाचल प्रदेश, कभी हरियाणा तो कभी गुजरात का चक्कर लगाते रहते हैं।

कल्पना करें कि केजरीवाल बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी निपट, निर्धन देहात में या झारखंड, छत्तीसगढ़ के किसी अति पिछड़े आदिवासी इलाके में भाषण दे रहे हों और सामने बैठी अर्द्धशिक्षित, कुपोषित और बेरोजगारों से भरी भीड़ को बता रहे हों कि हम तो जी अपने देश को जल्दी ही दुनिया में नंबर वन बना डालेंगे।

कितना क्रूर राजनीतिक मजाक होगा यह?

लेकिन, वे यह मजाक कर सकते हैं। बस, चुनाव आने दीजिए।

और यह भी तय है कि भीड़ ऐसी बातें सुन कर जोरदार तालियां भी बजाएगी,

क्योंकि, आजकल तालियां भी प्रायोजित होने लगी हैं।

नरेंद्र मोदी के भाषणों के बीच में रह रह कर "मोदी मोदी मोदी मोदी" की सामूहिक ध्वनि जो निकलती है वह ऐसे प्रायोजन का सबसे दिलचस्प उदाहरण है।

ईश्वर अरविंद केजरीवाल को आयु दें, वे भले ही नरेंद्र मोदी की राजनीतिक जीतों का रिकार्ड तोड़ें या न तोड़ें, राजनीतिक नौटंकी में वे तमाम रिकार्ड तोड़ देंगे, इसकी गारंटी है।

आंदोलन के नाम पर प्रायोजित नौटंकी की प्रायोजित परिणति के रूप में जन्म लेने वाली किसी राजनीतिक पार्टी का नेता नौटंकी के ही रिकार्ड तोड सकता है, देश की वास्तविकताओं से जूझने का न विजन है न कोई वैचारिक आधार।

केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की राजनीतिक और वैचारिक सीमाएं बिहार-यूपी में ही एक्सपोज हो जानी हैं।

कोई अगर उम्मीद करता है कि उनकी पार्टी भविष्य की अखिल भारतीय पार्टी बन सकती है तो यह मुगालते के सिवा और कुछ नहीं।

भले ही समकालीन राजनीति में विचारशून्यता बढ़ती गई हो, लेकिन, यह भी तय है कि भारत में कोई पार्टी बिना किसी वैचारिक आधार के अपना राजनीतिक विस्तार नहीं पा सकती।

दिल्ली जैसे संपन्न महानगर में, जहां अकूत राजस्व संग्रहण और संसाधन हैं, स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी निवेश अपेक्षाकृत आसान है।

वहां की आधारभूत संरचना पहले से ही देश के अन्य इलाकों से बेहतर रही है।

लेकिन, हिंदी पट्टी के राज्यों की सघन और निर्धन आबादी के बीच सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा पर काम करने के लिए स्पष्ट वैचारिक आधार की जरूरत होगी,  केजरीवाल के पास यह नहीं है।

राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर खूब दिखना और हिंदी पट्टी के राज्यों में मजबूत राजनीतिक आधार बनाना, दोनों अलग बातें हैं।

बिहार और उत्तर प्रदेश में भले ही निर्धन लोगों की बहुतायत हो, गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा का अभाव हो लेकिन राजनीतिक चेतना के मायने में यह देश का अग्रणी इलाका कहा जा सकता है।

यहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सफल होने के सामाजिक और ऐतिहासिक कारण हैं, अटल-आडवाणी की विरासत का भी आधार मिला उन्हें, लेकिन केजरीवाल जैसों की राजनीति इन इलाकों के सुदूर देहातों में सफल हो पाएगी, इसमें गहरे संदेह हैं।

कई विश्लेषक आम आदमी पार्टी के राजनीतिक अस्तित्व के आधार को ही संदेह की दृष्टि से देखते हैं।

यह संदेह तब और गहरा हुआ जब गोवा में जा कर किसी के रास्ते को कठिन तो किसी पार्टी के रास्ते को आसान बनाने के सिवा केजरीवाल ने कुछ और नहीं किया।

गुजरात में भी उनकी भूमिका को इसी नजरिए से बहुत सारे लोग देख रहे हैं।

नरेंद्र मोदी के बरक्स अरविंद केजरीवाल का उभार प्रतिरोध की राजनीति के लिए बड़ा स्पेस छोड़ता है।

इस बड़े स्पेस को भरने के लिए जो राजनीतिक शक्तियां आगे आएंगी, भविष्य उन्हीं का है।

हालांकि, उनके लिए राह आसान तो बिलकुल नहीं होगी।

बड़े बड़े कारपोरेट घराने, जो पिछले कुछ वर्षों में राष्ट निर्माण की आड़ में देखते ही देखते दुनिया के नक्शे पर चमकने लगे, वे कोई कसर कैसे छोड़ेंगे?

 उनके पैसे पर बिकने को तैयार नेताओं की भीड़, नैरेटिव गढ़ते उनके गुलाम एंकरों की भीड़ और उनका दुर्नाम आइटी सेल।

लेकिन, संघर्ष गहराने वाला है,  2024 और 2029 में होने वाले चुनाव भारत की अगली कई पीढ़ियों के भाग्य का निर्धारण करेंगे।

लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।

 

 



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