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पत्रकारिता का कर्म-धर्म ही गूँगे की वाणी और लूले की लाठी बनना है

मीडिया            May 30, 2022


विजयदत्त श्रीधर।
भारतीय पत्रकारिता पर विमर्श करते समय यह तथ्य रेखांकित करना आवश्यक है कि भारत भौगोलिक विस्तार में महादेश है।

विविधता इस देश की अनूठी थाती है। अनेक भाषाएँ, विविध लोक संस्कृतियाँ, रीति-रिवाज, रहन-सहन, परंपराएँ-मान्यताएँ, भोजन, भूषा, सामाजिक व्यवस्था, खेती और अर्थोपार्जन इत्यादि विभिन्नताएँ इसे जटिल समाज भी बनाती हैं। अपेक्षा-आकांक्षा की प्राथमिकताएँ भिन्न हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में आकलन करें तो यह कठिनाई आसानी से समझी जा सकती है कि बड़े से बड़े समाचार पत्र या टेलीविजन संस्थान के लिए राष्ट्रव्यापी समाचार संकलन योग्य संवाददाता-संजाल बना पाना लगभग असंभव है।

सभी महानगरों और राज्यों की राजधानियों तथा कुछ गिने-चुने महत्वपूर्ण केन्द्रों से अधिक संवाददाता नियुक्त करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। पाठक-दर्शक-श्रोता को खबरें सब चाहिए, सब तरह की चाहिए।

जिनका दावा राष्ट्रीय पत्र या चैनल होने का है, उनसे देश भर की खबरों की अपेक्षा है।

जो क्षेत्रीय/आंचलिक होने का दावा करते हैं, उन्हें अपने अंचल का समग्र समाचार संकलन करना चाहिए। स्थानीय पत्रों/चैनलों का दायरा सीमित होता है।

कुछ परिघटनाएँ जरूर ऐसी होती रहती हैं जिनके समाचारों को किसी चौहद्दी में नहीं बाँधा जा सकता। उन्हें सब दूर पाठकों तक पहुँचना चाहिए। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा भाषायी क्षेत्रों के कवरेज का है।

हिन्दी, अँगरेजी के साथ-साथ मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड, मलयालम, ओडिशी, बांग्ला, असमिया, पंजाबी इत्यादि भाषाओं वाले प्रदेशों का प्रामाणिक कवरेज तो उनके जानने वाले संवाददाता ही कर सकते हैं। इसके लिए सुगठित नेटवर्क भी होना चाहिए।

इन परिस्थितियों में और ऐसे प्रबंधों पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के दृष्टिगत एकमात्र विकल्प यही है कि राष्ट्रीय स्तर की एक से अधिक सक्षम संवाद समितियाँ कार्यरत हों।

एक साथ अनेक समाचार-संस्थानों को सेवाएँ देकर वे तुलनात्मक रूप से कम खर्चीली समाचार सेवा दे सकती हैं। परन्तु इन संवाद समितियों को सक्षम और स्वायत्त बनाने के लिए बहुत जरूरी होता है कि सेवाएँ लेने वाले संस्थान उन्हें भरपूर शुल्क चुकाएँ और नियमित रूप से चुकाते रहें।

संस्थानों की संवाददाताओं और संपादकीय व्यवस्था पर कम खर्च करने की प्रवृत्ति एक बड़ी बाधा होती है, उसे त्यागे बिना बात बनेगी नहीं।

आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर संवाद समितियाँ कार्य-व्यवहार में निष्पक्ष, प्रामाणिक और सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग हो सकती हैं।

समाचार संकलन, संप्रेषण और संपादन-प्रकाशन की यात्रा में एक और तथ्य ध्यान में रखने योग्य है। वह यह कि दुर्भाग्य से, नीति-निर्माताओं-नियंताओं-कार्यपालकों के दृष्टिदोष के कारण देश दो पहचानों में बँट गया है - एक, इण्डिया और दो, भारत। ‘इण्डिया’ अर्थात सुख-सुविधाओं से भरपूर, पश्चिमी सोच से आक्रान्त, बजट का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा हड़पने वाला और आत्म-केन्द्रित शहराती भाग।

‘भारत’ अर्थात योजनाओं-नीतियों-बजट में उपेक्षित या कम ध्यान देने के लिए अभिशप्त, प्रशासनिक दुर्लक्ष्य का शिकार, बुनियादी साधनों-सुविधाओं में पिछड़ा भाग, जिसकी सुध चुनाव के समय ही ली जाती है।

यही ‘भारत’ खबरों का सबसे बड़ा क्षेत्र है। यहाँ शिक्षा, चिकित्सा जैसी आधारभूत व्यवस्थाएँ नहीं हैं। पीने के शुद्ध पानी और सबके लिए रहवास का प्रबंध नहीं है।

खेती-किसानी पर जैसा और जितना ध्यान दिया जाना चाहिए, उसकी फिक्र नहीं है।

आत्म निर्भर गाँव की रचना करने वाले कुटीर उद्योग और कृषि-आधारित परंपरागत उद्यमों की बरबादी की कोई चिंता नहीं करता।

कर्ज के मारे किसानों की आत्महत्या का आँकड़ा पाँच लाख के पार पहुँच गया।

पत्रकारिता से यह दारुण व्यथा-कथा नदारद है या बरायनाम चर्चा पाती है। इस ‘भारत’ को शब्द देना, आवाज देना पत्रकारिता का दायित्व है।

आखिरकार पत्रकारिता को गूँगे की वाणी और लूले की लाठी ही तो बनना है, उसका कर्म और धर्म यही है।

इसके लिए चाहिए संवाददाताओं का विशाल नेटवर्क जो सिर्फ सक्षम संवाद समितियाँ उपलब्ध करा सकती हैं।

राष्ट्रीय और राज्यों की सरकारों, रेडियो और टेलीविजन संस्थानों तथा मीडिया प्रतिष्ठानों को इसके लिए प्रचुर वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराना चाहिए।

संवाद समितियाँ पूरी दुनिया में समाचार जुटाने का कारगर माध्यम मानी जाती हैं, करीब डेढ़ सौ वर्षों से वे समाचारपत्रों को सेवाएँ दे रही हैं।

‘रायटर’, ‘ए.पी.’, ए.एफ.पी. और यू.पी.आई. दुनिया की चार सबसे बड़ी संवाद समितियाँ हैं। ये उन्नीसवीं सदी में अस्तित्व में आ चुकी थीं।

जबकि भारत की पहली संवाद समिति ए.पी.आई. (एसोसिएटेड प्रेस आफ इंडिया) बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में आई। पत्रकार केशवचन्द्र राय इसके संस्थापक थे।

इसके साथ भारतीय बनाम ब्रिटिश नजरिये का टकराव छिड़ा।

राष्ट्रीय दृष्टिकोण से समाचारों के संकलन और संप्रेषण के लिए सन 1927 में एस. सदानंद ने ‘फ्री प्रेस आफ इंडिया’ संवाद समिति की स्थापना की।

सरकार की सहयोग दृष्टि से ओझल इस समिति को कई उद्योगपतियों और नेताओं का समर्थन मिला।

‘फ्री प्रेस आफ इंडिया’ के निदेशकों को सरकार के दबाव में इस्तीफा देना पड़ा, जो अखबार इस संवाद समिति से समाचार लेते थे, उन्हें भी दबाव झेलना पड़ता था। सो 1935 में यह संवाद समिति बंद हो गई।

राष्ट्रीय संवाद समिति की दूसरी पहल कोलकाता में बिधुभूषण सेनगुप्त ने युनाइटेड प्रेस आफ इंडिया (यू.पी.आई.) की स्थापना करते हुए की। आर्थिक संकट के कारण यह एजेंसी भी 1958 तक ही चल पाई।

आजादी के बाद भारत सरकार ने नियम बनाया कि कोई भी विदेशी संवाद समिति भारत में अपने समाचार सीधे प्रसारित नहीं कर सकती। उसे किसी भारतीय संवाद समिति के माध्यम से यह कार्य करना होगा।

तब ‘रायटर’ ने भारत में समाचार पत्रों द्वारा गठित संवाद समिति ‘प्रेस ट्रस्ट आफ इण्डिया’ (पी.टी.आई.) को अपना कारोबार सौंप दिया। आजादी के तुरंत बाद पी.टी.आई. बनी थी, जिसके भागीदार केवल भारत के समाचार पत्र हो सकते थे।

सन 1961 में दूसरी संवाद समिति ‘युनाइटेड न्यूज आफ इण्डिया’ (यू.एन.आई.) का गठन कुछ समाचारपत्रों ने किया। वर्तमान में भारत में यही दो बड़ी संवाद समितियाँ हैं।

विदेशी समाचारों के मामले में पी.टी.आई. ‘रायटर’ पर और यू.एन.आई. ‘ए.पी.’ पर निर्भर हैं। सन 1982 में यू.एन.आई. ने हिन्दी संवाद समिति ‘यूनीवार्ता’ की शुरुआत की।

सन 1986 में पी.टी.आई. ने ‘भाषा’ आरंभ की। वृत्तिक कुशलता के कारण उनका विस्तार और विकास हुआ।
सरकार

भारतीय भाषाओं में पहले पहल समाचार प्रेषण का श्रेय संवाद समिति ‘हिन्दुस्तान समाचार’ को है।

दादा साहब एम.एस. आप्टे हि.स. के संस्थापक थे। सन 1966 में ‘समाचार भारती’ की स्थापना कंपनी के रूप में हुई।

राज्य सरकारों ने इसके शेयर लिए। इस संवाद समिति के पास पूँजी तो बड़ी थी परन्तु वृत्तिक और प्रबंधकीय कुशलता की कमी थी। ‘हिन्दुस्तान समाचार’ का संचालन सहकारी संस्था के रूप में होता था। इसके पास कार्यकर्ताओं की बड़ी टीम थी।

दोनों संवाद समितियों की विफलता इस रूप में समझी जा सकती है कि वे समाचारपत्रों के लिए पूर्णरूपेण निर्भर-योग्य एजेंसी नहीं बन पाईं। उनकी सेवाएँ पूरक एजेंसी जैसी रहीं।

आपातकाल में हुई कई जबरदस्तियों में एक यह भी थी कि पी.टी.आई., यू.एन.आई., ‘हिन्दुस्तान समाचार’ और ‘समाचार भारती’ का विलय कर ‘समाचार’ संवाद समिति बना दी।

इमरजेंसी के साथ-साथ यह ज्यादती भी डूब गई, फिर चारों एजेंसियाँ पृथक हो गईं।

पी.टी.आई. और यू.एन.आई. पुनः चल पड़ीं, ‘समाचार भारती’ ठप हो गई, ‘हिन्दुस्तान समाचार’ लड़खड़ाते हुए सम्हलने में जुट गई।

हिन्दुस्तान समाचार संवाद समिति ने युगवार्ता, यथावत, नवोत्थान पत्रिकाओं का भी प्रकाशन आरंभ किया।

भारतीय भाषायी संवाद समितियों की आवश्यकता और औचित्य पर जोर देते हुए रेखांकित करना चाहूँगा कि अनेक पत्रकारिता संस्थानों को सेवाएँ देने वाली संवाद समितियों को समाचार की निष्पक्षता, तथ्यात्मकता, प्रामाणिकता के प्रति सजग होना चाहिए।

यह उनके अस्तित्व और स्वीकार्यता की अनिवार्य शर्त है। इसके बगैर कोई संवाद समिति प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकती। भारत में ऐसी सक्षम एकाधिक संवाद समितियों की जरूरत है।


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