पत्रकारों से उम्मीद:मीडिया को तय करना चाहिए कि अब उसकी पक्षधरता क्या होगी?

मीडिया            Dec 05, 2016


सचिन कुमार जैन।

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आज मीडिया पर प्रतिबन्ध लग रहा है। लेकिन यह भी सच है कि मीडिया ने भी खूब प्रतिबन्ध लगाए हैं! सकारात्मकता के नाम पर, लक्षित समूह के नाम पर, आर्थिक-राजनीतिक हितों के नाम पर; पत्रकारों को निर्देश होते हैं कि सत्ता के केंद्र के खिलाफ़ कुछ नहीं लिखना है. मीडिया ने सुनियोजित तरीके से विस्थापन, बदलाही के पलायन, भुखमरी, सूखे के मसलों पर काम किया है। ऐसे काम किया, ताकि ख़बरें भी हो जाएँ और हित भी सधे रहे। बुंदेलखंड के सूखे पर खूब ख़बरें हुईं, पर सूखे के मूल कारणों पर लापरवाही से काम किया। सूखे की भयावहता को ऐसे दिखाया कि उससे निवेश के नाम पर खनन में निवेश लाने की नीति बना ली गयी। वहां से पलायन बढ़ता रहा और विशेष पैकेज भी। जिन सालों में बुंदेलखंड में सूखा था, उन सालों में वहां सबसे ज्यादा बोलेरो गाडियां बिकीं। सूखे के मूल कारण गोपनीय ही रहे!

शायद आप जानते ही होंगे कि कुछ मीडिया समूहों में कुपोषण-भुखमरी की खबरे किये जाने पर प्रतिबन्ध है। इलेक्ट्रानिक मीडिया को जब तक सबसे भयावह चलचित्र नहीं मिलता, तब तक वह उस मुद्दे पर खबर नहीं कर सकता है। कहते हैं कि यदि मानवीय भावनाओं को हिला देने वाले चित्र नहीं मिलेंगे, तब तक काम नहीं बनता है। जब तक कुपोषण मृत्यु का कोई ताज़ा-ताज़ा मामला न मिले, तब तक विषय नहीं बन पाता है। जनमुद्दों पर खबर तभी बनती है, जब मृत्यु हो जाए या मृत्यु सुनिश्चित हो जाए। इसके पहले नहीं।

मीडिया महत्वपूर्ण और शक्तिवान साधन तो है। समझना यह जरूरी है कि यह महत्वपूर्ण और शक्तिवान साधन किसके पक्ष में खड़ा होता है? इसके निष्पक्ष होने की बात से बड़ा भ्रम कुछ और नहीं है। यदि यह भ्रम जानबूझ कर बनाए रखा जाता है, तो इससे बड़ा कोई झूठ नहीं है। हम जानते हैं कि एक समय तक पूँजी और राजसत्ता मीडिया का इस्तेमाल करती है और एक समय बाद उस पर शासन करने की कोशिश भी करती है। भारत में पिछले कुछ सालों में मीडिया पर शासन जमाने की कोशिशें बाहर स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। बार—बार यह प्रमाण दिखाई देता है कि सत्ता ने मीडिया को अपनी महफ़िल और षड्यंत्र दोनों का हिस्सा बना लिया है। जब मीडिया – व्यवसाय के एक क्षेत्र के रूप में, खुद के हित इतने बड़े कर लिए हैं कि उसे खुद जनविरोधी नीतियों की जरूरत अनिवार्य लगने लगी है। अब मीडिया का एक तबका सत्ता के साथ मिलकर गलत नीतियां बनवाता है और उन्हें लागू भी करवाता है। खनन, उर्जा, आयात-निर्यात, निर्माण और जमीनों के व्यापार में जब उनके विशाल हिस्सेदारी और हित हों, तब उनसे जनहित/संविधान हित और समाज हित पक्ष में खड़े होने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

जरा गौर से देखिये मीडिया क्रांतिकारी मुद्दे नहीं उठता। मीडिया कुछ मुद्दों को उठाकर क्रांतिकारी चोला जरूर पहना देता है। मीडिया की रूचि कुपोषण के बारे में बात करने में तो है, लेकिन जिन कारणों से कुपोषण हो रहा है, मजाल है कि उन पर कोई मुहिल चल जाए? मूल कारण मसलन भूमि सुधार न होना, निजी क्षेत्र का बढ़ना, स्वास्थ्य-शिक्षा और पीने के पानी का बाजारीकरण सरीखे कई सवाल। हम स्वतंत्र मीडिया के पक्ष में हैं, सवाल एनडीटीवी की अकेली स्वतंत्रता का नहीं है। वो भी वैसे निजी कंपनी फोर्टिस के साथ मिलकर स्वास्थ्य के हक की मुहीम चलाते हैं; इसका मतलब समझे? जो मीडिया समूह खुद शिक्षा के व्यापार में हैं, या बड़े-बड़े अस्पताल चला रहे हैं; वे क्यों सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के मूल सुधार की पहल करेंगे भला या स्वास्थ्य के अधिकार को जीवन का मौलिक अधिकार मानेंगे? जरा बताईये! फिर भी इन कार-गुजारियों के बावजूद मीडिया तो स्वतंत्र ही होना चाहिए।

ये बहस केवल बड़े स्तर तक ही सीमित नहीं है। जब बदलते हित और बदलता चरित्र “संपादक” की हत्या कर रहा था तब हम सब चुपचाप खड़े देखते रहे। संपादक महज एक पद नहीं था वह विचार और विचार व्यक्त करने वाले साधन का संरक्षक था। उसकी ताकत, नैतिक ताकत थी। पत्रकार भी संपादक के के साथ खड़ा नहीं हुआ क्योंकि जब “लाभ” का बंटवारा हुआ, तो छोटा ही सही, पर एक हिस्सा पत्रकारों को भी मिला तो सही। मध्यप्रदेश सरकार ने पत्रकारों को सम्मान स्वरुप पेंशन देना शुरू कर दी, इसे स्वीकार कर लिया गया! सरकार ने लैपटाप भी बांटे, इसे भी स्वीकार कर लिया गया। क्या यह महज़ सरकारी भेंट है? जिन नीतियों और आयोजनों पर सबसे ज्यादा सवाल होते हैं और जिनके सन्दर्भ में नीयत पर सबसे ज्यादा सवाल होना चाहिए, उन आयोजनों में अजीब तरीके से पत्रकारों की भागीदारी करवाई जाती है। ऐसे में मीडिया “राज्य” से स्वतंत्र कैसे रह जाता है?

यह बताईये कि टोल रोड पर से निकलते समय या रेल यात्रा में छूट क्यों दी जाती है? आज जब मीडिया शुद्ध रूप से व्यावसायिक संस्थान है, तो यह छूट क्यों? जब सरकार इस क्षेत्र के लोगों के लिए सस्ती दर पर जमीन बांटने लगे। तब मीडिया कितना स्वतंत्र रह जाता है? हम आज एनडीटीवी के मामले में एकजुट है, पर सच तो यह है कि हमारी भूमिका पर बहुत पहले प्रतिबन्ध लगाए जा चुके हैं। शायद हमने ध्यान नहीं दिया है, यदि जांचना हो तो जरा देखना कि जो मुद्दे हम उठा रहे हैं, क्या उनकी जड़ों में जाकर उनके कारणों पर बहस करने की गुंजाइश हमारे पास रही है? कुपोषण से लेकर, दलित युवक को उसकी शादी में घोड़ी पर न चढ़ने देने के नियम, स्वयं सहायता समूह के द्वारा बनाए गए भोजन में निकलने वाली छिपकली या दाल कम पानी ज्यादा की स्थिति, सहरिया के भूखों मरने या देश के सबसे जैव विविध जिले सिंगरौली के सबसे प्रदूषित जिले हो जाने तक के मुद्दों में हम कब मूल कारणों में जा पाये? नहीं जा पाए क्योंकि वहां तक जाने की हिम्मत तोड़ी का चुकी होती है।

कुपोषण की बहस में बस पोषण आहार ही जिन्दा बचता है। उसमें भी यह सवाल नहीं आ पाता कि आखिर पोषण आहार की इस व्यवस्था को बनाने का निर्णय लिया किसने था? कौन है, जिसने सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की परवाह न करने की ताकत नीचे की व्यवस्था को दी? अपने आप तो न हुआ होगा? कुछ चुनिन्दा मामलों में, जहाँ तथ्य पूरी तरह से अन्य माध्यमों से खुल कर सामने आ चुके होते हैं, वहां जरूर मीडिया थोड़ी तेज बहस कर लेता है। मसलन भोपाल एनकाउंटर. वास्तव में राज सत्ता के नेताओं को विशेषाधिकार मिलते नहीं हैं, हमें कमज़ोर करके उन्हें विशेष अधिकार संपन्न बना दिया जाता है।

जब कोई भी मीडिया समूह और पत्रकार तन कर खड़े होने की कोशिश करता है, तब राजसत्ता को लगता है कि उसका कोई गुलाम तन कर खड़ा हो रहा है; और बस वह हिंसा करने पर उतारू हो जाता है। ऐसे में समाज को मीडिया के साथ खड़े होना चाहिए न! लेकिन आजकल समाज भी मीडिया के साथ खड़ा नहीं होता, क्योंकि मीडिया पर से उसका विश्वास लगातार घटता गया है। यदि मीडिया समाज के साथ मूल सवालों और मूल कारणों के सन्दर्भ में खड़ा होता, तो आज समाज भी मीडिया के साथ खड़ा नज़र आता। जो सामाजिक माध्यमों और राजनीतिक बहस से जुड़े हैं, वो मोमबत्ती लेकर खड़े नज़र आते हैं; लेकिन मजदूर, किसान, महिलायें (ये देश की 89 प्रतिशत आबादी है) आज एनडीटीवी के मामले में सामने दिखाई क्यों नहीं देती? वास्तव में यह एक बहुत सही अवसर है, जब मीडिया को तय करना चाहिए कि अब उसकी पक्षधरता क्या होगी? मैं जानता हूँ मीडिया संस्थान ऐसा कर नहीं सकते! ऐसे में पत्रकारों से उम्मीद की जाना संभव है। चलिए अपन एक बार फिर आदिवासियों, दलितों, महिलाओं, किसानों, मछुआरों से पास चलें और उनसे कहें कि वे भी मीडिया की स्वतंत्रता को बचाए रखने के संघर्ष में साथ दें। हम भी आगे से समाज के हितों के साथ रहेंगे।

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