अब सोशल मीडिया के बिना असंभव राजनीति

मीडिया            Dec 30, 2016


डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।

टेक्नोलॉजी भी राजनीति का रूप बदल देती है। सोशल मीडिया ने भी राजनीति का रूप बदला है। जब टेलीविजन चैनल शुरू हुए थे, तब नेताओं को लगने लगा था कि उनका भविष्य टीवी में है। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनाव के दौरान टेलीविजन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। अमेरिकी चुनाव को देखते हुए लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता हमेशा अपनी पार्टी के लोगों को टेलीविजन चर्चाओं के लिए प्रेरित करते रहे। सोशल मीडिया में भी लालकृष्ण आडवाणी काफी पहले से सक्रिय हैं। उनके ब्लॉग बहुत लोकप्रिय रहे, लेकिन प्रोफेशनल तरीके से सोशल मीडिया का बेहतर उपयोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया। मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए ही नरेन्द्र मोदी सोशल मीडिया में अपना सिक्का जमा चुके थे।

1920 के दशक में जब रेडियो का चलन शुरू हुआ, तब पहली बार नेताओं की आवाज घर-घर पहुंचने लगी। उसके पहले नेताओं को सुनने के लिए आमसभाओं में जाना जरूरी था। रेडियो पर सरकारी नियंत्रण होने के कारण केवल शीर्ष नेताओं की पहुंच ही रेडियो पर थी। जब टेलीविजन आया, तब भी शीर्ष नेता ही दूरदर्शन का कवरेज पा सकते थे। पिछली सदी के अंत में जब प्राइवेट चैनलों की संख्या बढ़ी, तब टीवी पर नेताओं की खबरें, प्रायोजित समाचार और विज्ञापन सभी नजर आने लगे, लेकिन टेलीविजन महंगा माध्यम था। सोशल मीडिया उसकी तुलना में लगभग निशुल्क है। बशर्ते आप खुद सोशल मीडिया पर सक्रिय हो।

वर्तमान में लगभग सभी प्रमुख नेता सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। अब तो हालात यह हैं कि ब्लॉक लेवल के पदाधिकारी भी सोशल मीडिया पर अपना प्रभुत्व जमाने में लगे हैं। सत्तारूढ़ दल हो या विपक्ष, भूतपूर्व मंत्री हो या भावी मंत्री, सभी को सोशल मीडिया पर संभावनाएं नजर आ रही है। 2017 में होने वाले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया का महत्व कुछ अलग ही नजर आएगा। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी के तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए सोशल मीडिया प्रशिक्षण शिविर लगाने शुरू कर दिए है। उन्होंने तो यहां तक कहा है कि जिस नेता के सोशल मीडिया पर 25 हजार से कम फॉलोअर होंगे, उसे टिकट नहीं दिया जाएगा। अमित शाह का मानना है कि जो नेता लगभग मुफ्त के सोशल मीडिया का उपयोग नहीं कर सकता, वह टिकट पाने के बाद कार्यकर्ताओं और मतदाताओं से संपर्क कैसे बनाएगा?


प्रिंट मीडिया की तुलना में टेलीविजन और टेलीविजन की तुलना में सोशल मीडिया कहीं ज्यादा पारदर्शी माध्यम है। सोशल मीडिया पर छवि को मैनेज करना आसान नहीं। छोटी से छोटी गलती को भी सोशल मीडिया पर पहाड़ सा बनाकर दिखाया जा सकता है। जिन वीडियो को कोई न्यूज चैनल दिखाने को तैयार न हो या पूरी तरह एडिट करके ही दिखाए उसे भी सोशल मीडिया पर खुल्लम खुल्ला दिखाया जा सकता है। एक नए सोर्स मीडिया के रूप में सोशल मीडिया का उद्भव काले काम करने वाले नेताओं के लिए परेशानी खड़ी कर रहा है। यहां लोग अपने मन की बात बेझिझक लिख सकते हैं। उसे कोई एडिट नहीं कर सकता। न ही लोगों की भावनाओं को प्रचारित-प्रसारित होने में समय का कोई बंधन है। देश और प्रदेश के कई मंत्री इसे देख और अनुभव कर चुके है।

सोशल मीडिया पर लोग नेताओं के भाषण और विचार ही शेयर नहीं करते है। वे उनकी बॉडी लैंग्वेज तक शेयर करने में नहीं हिचकिचाते। नेताओं के हाव-भाव, आवाज का टोन, पेशानी पर उभरी रेखाएं सभी कुछ सोशल मीडिया पर उजागर हो रही है। यहां नेताओं के लिए छुपने की कोई गुंजाइश नहीं है। गड़े मुर्दे उखाड़ने में भी सोशल मीडिया का कोई सानी नहीं। नेता कितनी भी इमेज बिल्डिंग कर लें, कोई न कोई माई का लाल निकल आता है और उसे आईना दिखा ही देता है।

2014 के लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका अहम रही थी। नरेन्द्र मोदी ने सबसे बेहतर तरीके से सोशल मीडिया पर अपनी छवि बनाई। उनका सारा आयोजन इतना सुव्यवस्थित था कि लोगों को इस बात की भनक ही नहीं लगी कि गुजरात का मुख्यमंत्री कब दिल्ली की मुख्य धारा में आकर छा गया और कब लोगों ने प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित करना शुरू कर दिया। अब उनके सामने चुनौती यही है कि जिस माध्यम का उपयोग करके वे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे, वहीं माध्यम अब उनकी एक-एक बात पर विस्तार से चर्चा कर रहा है। अब यह कहा जाने लगा है कि नरेन्द्र मोदी सोशल मीडिया के कारण ही प्रधानमंत्री बन सके थे और अब अगर वे प्रधानमंत्री पद से हटेंगे भी, तो सोशल मीडिया के कारण।



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