रजनीश जैन।
टीवी की दुनिया के तीन एंकर/पत्रकार देश से गुहार लगा रहे हैं कि 'अगले ढाई महीने टीवी न देखो, कनेक्शन ही कटवा लो।' पहली नजर में उनकी यह अपील बड़ी ही क्रांतिकारी, भावनात्मक और कातर लगती है।... ऐसी नौबत आई क्यों?
इन एंकरों का मानना है कि 90 -95 फीसदी मीडिया एक व्यक्ति विशेष के हाथों बिक चुका है और वह व्यक्ति प्रतिशोधी है, भयावह है , उसके हिटलर बन जाने के पूरे इमकान हैं।
हालांकि उस व्यक्ति विशेष ने अभी तक ऐसा कोई आदेश या अपील जारी नहीं की है कि देश के हर नागरिक को अमुक-अमुक टीवी चैनल प्रतिदिन देखना अनिवार्य है, खासतौर पर तब जब उसके भाषण का प्रसारण हो रहा हो।
स्मरण रहे कि जर्मनी के हिटलर ने अपने देश के प्रसारण माध्यमों के साथ यही किया था। उसके अधिकारी खुफिया रिपोर्ट्स के आधार पर उन घरों में छापे डाल कर गिरफतारियां करते थे जिनमें तय वक्त पर हिटलर का प्रसारण नहीं सुना जा रहा हो।
लेकिन इन एंकरों की कल्पना वाले 'हिटलर' ने ऐसा नहीं किया है। उसके विपरीत इन एंकर महोदयों ने सिर्फ स्वयं की आशंका के आधार पर टीवी न देखने का फतवा जारी कर दिया है। लगता है कि यदि इन रायबहादुरों के पास अख्तियार होता तो शायद ये अपील के बजाए आदेश ही जारी कर देते कि देश में टीवी कोई नहीं देखेगा।
टिटहरी चीख—चीख कर बताती है कि वही आसमान को साधे है। बैलगाड़ी के नीचे चल रहा कुत्ता इस मिथ्या अभिमान का शिकार हो जाता है कि बैल नहीं, वही गाड़ी को चलाता है। जबकि दोनों के ऐसे व्यवहार के मूल में भय होता है।
समझ लिया गया है कि यही महोदयगण टीवी हैं। यही जर्नलिज्म हैं। यही लोकतंत्र हैं। यही देश हैं और हम जनता जनार्दन के बारे में इनकी यह राय है कि ये निरे भोंदू, इनकी कोई व्यक्तिगत या सामूहिक चेतना नहीं, ये सब इतने बौडम हैं कि इन्हें अपना कल नहीं दिखता। तो ये तीन 'साड़ोरे में नरानदास' अगर जनता को न चेताते तो देश मय जनता के डूब ही चुका होता।
लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी है नहीं। कुछ लोग पत्रकारिता के बल पर सब कुछ कर गुजरना चाहते हैं, सिवाय पत्रकारिता को छोड़ कर। इनमें से एक का व्याख्यान यूट्यूब पर सुन रहा था। ..." निष्पक्ष पत्रकारिता जैसी कोई चीज नहीं होती।
पत्रकारिता निष्पक्ष होना नहीं है, विपक्ष होना है। पत्रकारिता ही विपक्ष है। यदि आप सत्तापक्ष के खिलाफ नहीं खड़े हैं तो पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं।" सुनकर मैं दंग रह गया।
यही व्यक्ति कल तक पत्रकारिता के मूल्यों और सिद्धांतों की दुहाई देकर सभी पक्षों के वर्सन देने और फील्ड रिपोर्टिंग करने पर जोर देता था। आज कहता है कि पक्ष कुछ होता ही नहीं, जो है सब विपक्ष ही है।
मुझे स्मरण आता है कि एक समय दिल्ली के आईटीओ पर टाइम्स बिल्डिंग से राजेंद्र माथुर का संदेश था कि सभी पक्ष लेकर वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता ही सच्ची पत्रकारिता है। इसके ठीक बगल में एक्सप्रेस बिल्डिंग से प्रभाष जोशी और अरुण शौरी का मानना था कि मौजूदा सत्ता की खामियां इस कदर उजागर करो कि सत्ता ही उखड़ जाए। (...जब दूसरी आ जाए तो फिर यही करो,...और करते चलो।)
लेकिन इस कबरबिज्जू पत्रकारिता में जहनियत ही कुछ ऐसी बन जाती है कि सभी चीजों की जड़ों को देखो और ये कैसे उखड़ सकती हैं इसकी जुगत भिड़ाने में लग जाओ। (चीजों को सुधारना नहीं है, क्योंकि वे सुधर नहीं सकतीं, इसलिए सिर्फ उखाड़ने पर फोकस करो।) उखाड़ने की इस कोशिश में रत हरेक पत्रकारिक शख्सियत के साथ जीवन में यह फेज बार—बार आता है जब एक सत्ता के उखड़ने पर वे यह उम्मीद करते कि नया सत्ता प्रतिष्ठान अब उसकी चेरी बन कर रहेगा, बिना उससे पूछे काम करेगा ही नहीं।
पर सत्ता का अपना स्वभाव है। वह सारे आदर्शों, सिद्धांतों की चटनी बनाकर रख देती है और बदलाव का अगुवा अपने सामने यह सब देखने के लिए भीष्म की तरह अभिशप्त होता है। वे ही लोग उसके आदर्शों का चीरहरण करते हैं जिन्हें परिवर्तन की कमान सौंपी गई थी। और इस हद तक कि इस प्रक्रिया में उसे खुद ही बाणों की शैय्या पर लिटा देते हैं।
कुछ के लिए सत्ता और उसका उखाड़ा जाना व्यसन बन जाता है। उन्हें लगता है कि देश दुनिया में जो कुछ होती हैं वे सत्ताएं ही होती हैं, इसके इतर कुछ नहीं होता।
वे भूल जाते हैं कि एक सिस्टम तय है, उसका ऊपरी आवरण भर सत्ता है। क्या इस आवरण को बदलने के लिए हल बखर, खेती किसानी, गल्ला, निर्माण, मजदूरी, रेहड़ियां, व्यापार , कल कारखाने, संगीत, नृत्य, प्रकृति, पाक कला , शिक्षा दीक्षा जैसी सैकड़ों और चीजें भी बंद कर दी जाएं? इसलिए कि आपके लिए सिर्फ एक विषय राजनीति ही प्रधान है बाकी सब व्यर्थ।...तो इन सबको भी देखना बंद कर दीजिए।
और यह सब किसके लिए उस 'कल्पनाओं के हिटलर' या 'आशंकाओं के हिटलर' को हटा कर अपने मुताबिक किसी को बिठाने के लिए। जब इस देश में निजी चैनल नहीं थे तब दूरदर्शन पर जिस तरह सत्ता का नग्न नर्तन होता था तब भी लोकतंत्र सलामत था।
सत्ताएं बदलने का रास्ता तब भी निकल आता था जब सत्तापक्ष को टीवी पर दो घंटे का समय मिलता था। चरण सिंह , चंद्रशेखर और नंबूदरीपाद को तीन तीन मिनट मिलते थे। जिसका जितना संख्याबल उसको उतना टीवी टाइम का नियम था और यह नियम बनाने वाले बैलटबाक्सों के साथ साथ पूरा चुनाव आयोग ही अपनी जेब में रख कर चलते थे।
तब भी इस महान जनता ने सत्ताएं उखाड़ कर फेक दीं। अरे दूर क्यों जाते हो, चार महीने पहले तीन राज्यों की सत्ता उखाड़ने के लिए क्या जनता टेलीविजन की मोहताज थी!...तब इस दकियानूसी अपील की जरूरत क्या है? आप अपने कर्तव्यों का विस्तार महत्वाकाक्षाओं की हद तक क्यों कर लेते हो?
राजनीति अपने बदलाव का रास्ता राजनैतिक गलियारों में ही ढूंढ़ लेगी। यह देश धैर्यवान लेकिन चतुर है। सबकी हदें तय करना जानता है। ...आपका भरोसा लोकतंत्र से डिग रहा हो तो अपने भीतर के भय का भूत निकलवाने का उपचार करें, कृप्या आड़े तिरछे टोटके जनता को न बताएं!
एक सुझाव (फतवा नहीं) मेरे पास भी है टेलीविजन की दुनिया के लिए। सभी सरकारी व निजी न्यूज चैनलों को विषय/ समय अनुसार एजेंडा दिया जाए। राजनीति, खेल, व्यवसाय, संस्कृति, साहित्य, विज्ञान, नवाचार, विकास , इतिहास जैसी कैटेगरी में खबरें दिखाना निर्धारित समयानुसार अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए।
राजनैतिक खबरों में भी सभी दलों,देश के सभी क्षेत्रों, विचारधाराओं, वर्ग, जाति, समुदायों की खबरें दिखाने की अनिवार्यता भी कर देना चाहिए। संवाददाताओं, उपसंपादकों की संख्या अथवा न्यूज एजेंसियों की सेवाएं लेना भी अनिवार्य हो जाए। न्यूज एजेंसियों को फिर से पहले जैसी विविधता के साथ सशक्त किया जाए। ...जिन्हें अपनी ढपली अपना राग बजाना है उनके लिए सोशल मीडिया है ही।
Comments