मीडिया भी बन चुका है सिस्टम का हिस्सा

मीडिया            Dec 26, 2016


रजनीश जैन।
विवाद की आग में घी डालने वाले हजार लेकिन दोनों पक्षों को बैठा कर हल तलाशने वाला कोई नहीं।नतीजा एक ही खानदान की तीन अंत्येष्टियाँ, दो जेल में,चार बच्चे अनाथ।... इस घरेलू विवाद की लपटें शायद आगे प्रशासनिक अमल के परिजनों को भी झुलसाएंगी।

 

शारदा हत्याकांड में ज्यादातर एक ही पक्ष मुखर रहा, दूसरे पक्ष को सुनने की कोशिश ही नहीं हुई। आरोपी दरयाव सिंह की बूढ़ी माँ इलाज के अभाव में चल बसी और उसका पुत्र उसे मुखाग्नि भी नहीं दे सका। अंतरात्मा जागी तो उसने ठाना कि खारी उठावना वही करेगा भले ही गिरफ्तार हो जाऐ। यहाँ से शायद न्याय और प्रायश्चित की भी राह खुल सके।...न्याय क्या कागज पर लिख दिऐ जाने से हो जाता है, क्या मीडिया की सुर्खियाँ बनाऐ जाने से हो जाता है।...जमीन के खसरे और रकबे अहम होते हैं या जिद और भावनाऐं। जिस मामले को गाँव के बुजुर्ग बैठ कर आसानी से निपटा सकते थे उसे राजस्व की अदालतों और मीडिया हाईप से निपटाने की जिद थी।इसके पीछे के लक्ष्य क्या थे?...शारदा ने कभी नहीं कहा कि उसकी जमीन हड़पने की नीयत थी, उधर दरयाव के परिजनों को शारदा के भाई ओमप्रकाश की नीयत पर शक था कि वह सामलाती कुँए पर एकल स्वामित्व के हालात पैदा कर जमीन को बेचने की साजिश पर काम कर रहा था।...धरना, आंदोलन, ज्ञापन, बाइटें, हिडन कैमरा रिकार्डिंग्स सभी इसी का हिस्सा थे कि गाँव की पंचायतों से जो नतीजा न निकल सके उसे जनसंवेदनाओं का ज्वार क्रिऐट करके हासिल कर लिया जाऐ।

 

आखिर कोई पंचायत कैसे यह फैसला करती कि अबोध बच्चों को मायके वालों के बेजा दखल से भरेपूरे खानदान की सरपरस्ती से जुदा कर दिया जाऐ। जिनकी रगों में पुरखों का खून दौड़ रहा हो उनके भविष्य को ऐसे परिवार के हवाले कर दिया जाऐ जो उनका इस्तेमाल सिर्फ जायदाद हथियाने के लिऐ ही कर रहा हो।...कौन माँ और मामा ऐसे होंगे जो अबोध बच्चों को लगातार धरना ,आंदोलनो के लिए दर दर घुमाने को उनकी कोमलकांत भावनाओं और उनकी पढ़ाई लिखाई से ज्यादा तरजीह देने की कठोर नासमझी दिखाते होंगे।... तीन साल पहले जो पिता खेत में बिजली के करंट से फौत हुआ आखिर वह कैसे खुद के खेतों के अलावा भाईयों के भी खेत सींच लेता था?...क्या वह एक बेटा, भाई ,खानदान का सरमाया न हो कर सिर्फ एक पति था। उसके बच्चे क्या किसी के पोते पोती नहीं थे,सिर्फ अपनी माँ के बच्चे थे।

सदियों और पुश्तों से विरासत बनती रही जरख़ेज जमीन क्या सिर्फ तहसील के चंद कागज के पुर्जे हैं जिनको बेच कर रकम खड़ी कर ली जाऐ और शहर को रुख कर लिया जाऐ? ....इन सवालों के जवाब शहर के धरना स्थल पर नहीं खोजे जा सकते इसके लिऐ आपको गाँव की चौपाल पर ही जाना होगा।...नारेबाजी, मोमबत्ती, धरनों से दिल्ली की सरकारें तो बनाई जा सकतीं हैं लेकिन एक गांव का टूटा दिल नहीं जोड़ा जा सकताक्योंकि गांव वतब भी थे जब विधि, कानून,संहिताऐं और मीडिया नहीं थे।...जिस जिस को इस आग में घी, डीजल, रार डालना थी डालते रहे,...लेकिन अब जाकर देखो ...वहाँ सिर्फ राख है, हथकड़ियां हैंं और जेल के सींखचे हैं। तस्वीर पर गौर करिए दरयाव सिंह का बेटा पुलिस से घिरे अपने बाप को राख में से क्या चुनते देख रहा है,...क्या सोच रहा है वह।...कितने लहलहाते खेत टीआरपी की भेंट चढ़ा दिऐ हैं हमने। समस्याओं को हल करने के पहलू से कब देखना शुरू करेंगे हम।...(ओंरिया से लौटकर)।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।



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