सोमदत्त शास्त्री।
यकीन नहीं होता कि रजनीकांत नहीं रहे। दुर्धर्ष संघर्ष के दौर में भी मुस्कुराते रहने वाले इस शख्स से सच कहूँ तो मेरा रिश्ता पत्रकारिता से इतर दिल का था। नब्बे के दशक में जिन चुनिंदा संभावनाशील युवा पत्रकारों से मेरा साबका बना, बेशक रजनीकांत उन सबमें अलहदा, अपने किस्म के अलबेले इंसान थे। वे कुलीन खानदान से आए थे, उनका रक्त संबंध जयप्रकाश नारायण के घराने से था। लिहाजा तहजीब और नफासत उनके मन-वचन और कर्म से मानों टपकती थी।
हिमाचल उतराखंड के पहाड़ों से उतरे थे सो चालाकियों, चालबाजियों से दूर भोलापन
भी विरासत में लाये थे लेकिन पहाड़ी ज़िन्दगी का जुझारूपन भी उनमें खूब था पत्रकारिता और संपादन को लेकर तो उनमें गजब की समझ थी। मैगज़ीन गढ़ने के हुनर में तो उन्हें मास्टरी थी। उनकी यही समझ पत्रकारिता के कारोबारियों के लिए कालांतर में कारू का खजाना बनी और वे बौद्धिक शोषकों के जाल में उलझते चले गये। दुर्भाग्य यह है कि तथाकथित मित्रों ने ही उनका जमकर शोषण किया और फिर उन्हें तनहा छोड़ दिया।
रजनीकांत से हमारा सघन संपर्क भोपाल में बना था, जहां वे घाट-घाट का पानी पीते बरास्ते मुम्बई पहुंचे थे या यूं कहिए कुछ मित्रों द्वारा ‘ढोल सुहाने’ सुना कर लाए गए थे। इस बीच इंदौर की खाक उन्होंने छान ही ली थी। मुझे व्यक्तिगत तौर पर हमेशा लगता रहा है कि मित्रों के वाग्जाल में फंस कर वे दिग्भ्रमित अवस्था में दिल्ली के निर्मम मीडिया बाजार में जा खड़े हुए थे। वरना भोपाल में होते तो कम से कम मैं तो उन्हें इतनी जल्दी खुद से जुदा होने नहीं देता।
मध्यप्रदेश में उनके कई मित्र थे, लेकिन लोक स्वामी के मालिक जीतू भाई सोनी ने उन्हें जैसा संरक्षण व संबल दिया उसके उदाहरण अख़बार जगत में अब बिरले ही मिलते हैं। आज के निर्मम दौर में भी इस इन्सान ने आखिरी पल तक रजनीकांत का मान सम्मान सहित साथ निभाया ।
दिल्ली के संत नगर में वे और प्रफुल्ल देसाई पलसुले आजू-बाजू रहते हैं सो किसी एक के यहां जाओ तो दोनों से मिलना हो ही जाता था। मुझे बार-बार रजनीकांत की धर्मपत्नी रुपम की चिंता हो रही है कि लौह इरादों वाली यह कर्मठ, सुघड़ गृहणी उनके जाने के बाद सहसा जीवन के संघर्ष पथ पर कितनी एकाकी हो गई होगी। यह सोचकर ही कलेजा मुंह को आता है।
देवलोक गमन से चंद दिनों पहले फोन पर रजनीकांत जी से लंबी चर्चा हुई तो मैने उलाहना दिया था कि कभी भोपाल की जानिब भी ताक लिया करिए, उन्होंने भरोसा दिया था कि बहुत जल्दी वे मुझसे मिलेंगे। वे स्वयं अस्वस्थ थे किंतु उन्हें मेरी चिंता अधिक थी। तरह-तरह के इलाज सुझाते और वैद्यों, हकीमों के नाम गिनाया करते थे। लेकिन भाई तुम इतने निष्ठुर होगे कि बिना अपने अग्रज से इजाजत लिए निकल जाओगे यह तो मैने सोचा भी नहीं था।
रजनीकांत का फानी दुनिया को अलविदा कहना मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता करने वालों को यह सबक देने के लिए पर्याप्त है कि जुझारू जर्नलिज्म की नियति यही दुखांतिका है, जिसकी कीमत लुभावने मीडिया बाजार में खड़े ‘रजनी बाबू’ ने प्राणों की आहुति देकर चुकाई है। शत-शत नमन रजनीकांतजी तुम्हारी हर दिल अजीज मुस्कान यावज्जीवन मेरा पीछा करती रहेगी
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