प्रकाश भटनागर।
"मेरी बीवी की शादी" एक रोचक हास्य फिल्म है। मुख्य किरदार को शरीर का हर लक्षण अपनी बीमारी का सबब लगता है। मामला इतना बढ़ जाता है कि अंतत: वह जल्दी ही खुद की मौत तय मानने लगता है।
इस कोशिश में जुट जाता है कि मौत से पहले अपनी बीवी की किसी अन्य से शादी करवा दें। ताकि पति की मृत्यु के बाद पत्नी एकाकी बुढ़ापा बिताने पर मजबूर न हो।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को जर्मनी में भारत के लिए आशंकाएं जताते देखकर सहसा इस फिल्म की याद ताजा हो गई। राहुल गांधी का मामला भी इस चलचित्र से काफी मिलता-जुलता ही दिखता है।
फिल्म में नायक को बीमारी के लक्षणों का फोबिया था, इधर राहुल को मोदी का फोबिया सता रहा है। उन्होंने नोटबंदी को लेकर भयावह आशंकाएं जतार्इं, जिनमें से अधिकांश निर्मूल साबित हुर्इं।
वह जीएसटी के लिए काल सर्प योग जैसा आने वाला डरावना समय दिखाते रहे, किंतु वहां भी वह गलत सिद्ध हुए। उनकी मुंह खोलने पर भूकंप आने की धमकी और मोदी को पंद्रह मिनट भी सामने खड़े न रहने देने की चेतावनी वैसी ही हास्यास्पद लगती हैं, जैसा अपने दौर में चॉकलेटी हीरो ऋषि कपूर को मार-धाड़ के दृश्य करते देखते समय लगता था।
राहुल को अब चिंता है कि देश के यही लक्षण रहे तो आतंकवाद बढ़ेगा। उनके मुताबिक विकास प्रक्रिया से बाहर रखे गए लोग अंतत: आतंकवादी बन जाएंगे। कहने को तो उन्होंने यह बात दुनिया के संदर्भ में कही, किंतु जाहिर है कि उनके निशाने पर मोदी ही थे। यानी बात भारत के लिए कही गई थी। कई बार लगता है कि गांधी की सोच और बोलने की प्रक्रिया के बीच भीषण किस्म की कोई कमजोर कड़ी है। हो सकता है कि वह सोचते अच्छा हों (हालांकि ऐसा भी महसूस तो नहीं होता) लेकिन बोलते समय गड़बड़ी कर जाते हों। वरना ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई स्वस्थ इंसान एक के बाद एक जब मुंह खोले तो वह प्रक्रिया, बोलने की बजाय वमन करने वाली दृष्टिगोचर हो।
आतंकवाद विकास से दूर रखे जाने से नहीं पनपता। उसका प्रसार होता है विकास से विमुख होने के चलते। मानव सभ्यता पर कलंक बनी इस प्रवृत्ति के संवाहक हों, प्रेरक हों या हों पिछलग्गू, सभी सिरे से विकास के विरोधी होते हैं।
क्योंकि वह जानते हैं कि यदि विकास हो गया तो समस्या नहीं रहेगी, समस्या नहीं रहेगी तो लोग शांतिपूर्वक रहने लगेंगे और ऐसा हुआ तो उनकी दुकान ही ठप हो जाएगी। वस्तुत: आतंकवाद सृजनात्मक विकास से डरता है। लेकिन राहुल इससे ठीक उलट बात कर रहे हैं। फिर आईएसआईएस तो दुनिया में विशुद्ध इस्लामी राज्य की स्थापना करने के लिए आतंकवाद का सहारा ले रहा था। इसमें पता नहीं कहा से राहुल गांधी बेरोजगारी ढुंढ़ लाए।
फिर, ऐसी बात कहने के लिए देश से बाहर का कोई मंच कितना उचित है? क्या ऐसा इसलिए कि देश की जनता के बहुत बड़े वर्ग ने गांधी की बातों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। भाजपा-विरोधी कई राजनीतिक दल तक उन्हें तवज्जो नहीं दे रहे हैं। वजह तो राहुल ही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन यह तो कोई आम आदमी भी बता सकता है कि जर्मनी में इस तरह की बात कहकर भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल के प्रमुख ने देश की साख को बट्टा लगाने का काम ही किया है। आजादी के बाद भारत ने आखिर जितनी भी तरक्की है, उसमें सबसे ज्यादा योगदान कांग्रेस का है। और जो बड़ी खामियां है, उनकी जिम्मेदार भी कांग्रेस ही है।
आखिर तीन साल की जनता पार्टी। दो साल जनता दल और दस साल केन्द्र में गैर कांग्रेसी नेतृत्व की गठबंधन सरकारें। और पांचवां साल पूरा कर रही भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार। बाकी तो देश में जो भी आधार हैं, उन्हें इन पन्द्रह बीस सालों में आखिर कौन कितना बदल पाया होगा। पहली बार भाजपा बहुमत से सत्तारूढ़ है तो देश में विचारधारा का संघर्ष ज्यादा दिखता है। जाहिर है पहली बार देश में कोई गैर कांग्रेसी सरकार अपनी विचारधारा के अनुसार कुछ बदलाव लाने की कोशिश कर रही है।
यह उम्मीद तो बेमानी है कि एक बार फिर जगहंसाई का पात्र बनने के बावजूद गांधी इस तरह की बात कहना और करना बंद कर देंगे। किंतु यह संभावना तो जताई ही जा सकती है कि इससे उनकी गंभीरता पर और अधिक प्रतिकूल असर अवश्य पड़ेगा। यदि वह आरएसएस को अरब जगत के मुस्लिम ब्रदरहुड की तरह बता रहे हैं तो उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि समय आते ही उनकी पार्टी ने इस देश में मुस्लिम ब्रदरहुड से अधिक खतरनाक प्रवृत्ति रखने वाले दलों के आगे हाथ फैलाया है। इनमें वह ममता बनर्जी शामिल हैं, जिनके जैसी शक्तियों की बदौलत ही कोलकाता का एक हिस्सा बकायदा मिनी पाकिस्तान कहलाने लगा है।
इनमें वह वामपंथी भी हैं, जिन्होंने सन 1962 के युद्ध में भारत की चीन से हार पर खुशी जताई थी। ऐसे नाम और काम अनंत हैं, जिनका जिक्र कभी और किया जाएगा। लेकिन मुख्तसर में यही कहना है कि गांधी को मोदी फोबिया का इलाज कराना चाहिए। वरना वह वाकई ऊपर बताई गई फिल्म के पात्र की तरह हो जाएंगे। हां, एक बात और याद दिला दें। गांधी ने हाल ही में कहा था कि उन्होंने कांग्रेस से शादी कर ली है। उनके ऐसे बयान जारी रहे तो उनका पतन तय है, इसलिए गांधी को चाहिए कि "मेरी बीवी की शादी" की तर्ज पर कांग्रेस के लिए कोई सुपात्र ढूंढना शुरू कर दें। शायद बूढ़ी कांग्रेस में फिर नयी जवानी के अंकुर फूटने लगें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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