मल्हार मीडिया भोपाल।
लैंगिक पहचान की चुनौती और समानता के सवाल’ विषय पर आधारित विकास संवाद के 15वें राष्ट्रीय मीडिया संवाद का आयोजन पिछले दिनों जलगांव गांधी तीर्थ जलगाँव (महाराष्ट्र) में किया गया।
गांधी रिसर्च फाउंडेशन और पहल संस्था के सहयोग से आयोजित संवाद में डॉ. विश्वास पाटिल, आनंद पवार, समीभा पाटिल, अनिल जैन, अरुण त्रिपाठी, चिन्मय मिश्र, अरविंद मोहन, सचिन कुमार जैन, दीपा सिन्हा, जकिया सोमन और सुरेश तोमर,
पुष्यमित्र, राजेश बादल, डॉ राकेश पाठक, अश्विन झाला समेत कई विषय विशेषज्ञों ने लैंगिकता से जुड़े विभिन्न विषयों पर अपनी राय प्रस्तुत की।
पुणे से आए सामाजिक कार्यकर्ता आनंद पवार ने ‘लैंगिक पहचान की चुनौती, और समानता के सवाल’ विषय पर दो सत्रों में विस्तार से अपनी बात रखी। पवार ने लिंग और जेंडर को परिभाषित करते हुए जेंडर की अवधारणा पर बात की।
उन्होंने कहा कि लिंग एक जैविक निर्मिति है जबकि जेंडर उस लिंग की सामाजिक निर्मिति है। उन्होंने कहा कि जेंडर सामाजिक अपेक्षाओं से परिभाषित होता है।
पवार ने कहा कि हमारे समाज में पितृसत्ता के दरवाजे बहुत मजबूत हैं और वहां वास्तविक अर्थों में समानता के लिए जगह बनाना बहुत मुश्किल है।
समानता की बात करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान अभी भी आम घर-परिवारों में चर्चा का विषय नहीं बन सका है। यही वजह है कि हमारे समाज में समानता का अर्थ भी पूरी तरह स्थापित नहीं हो सका है।
इससे पहले विषय प्रवेश वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी ने किया।
जैन इरिगेशन के मैनेजिंग डायरेक्टर अनिल भाऊ जैन ने अपने सारगर्भित उद्बोधन में रेखांकित किया कि कैसे एक छोटी सी पूंजी से शुरू होकर करोड़ों में पहुंचे इस कारोबार में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि दुनिया की शीर्ष कंपनियों में शुमार होने के बावजूद आज भी कैसे गांधी तीर्थ के संस्थापक बड़े भाउ भंवरलाल जैन के द्वारा अपनाए गए गांधी मूल्यों को आज भी कंपनी अपने कार्य व्यवहार में आगे ले जा रही है।
उन्होंने बताया कि 1963 में हमारे पिता जी ने बहुत छोटी पूँजी के साथ काम काम शरू किया था, इस दौरान हमारा काम बढ़ा, आज हमारा टर्नओवर करीब सात हजार करोड़ का हो चुका है, बड़ी संख्या में लोग जुड़े हैं लेकिन इस दौरान एक चीज है जो बिलकुल नहीं बदली वो है हमारे मूल्य। वही मूल्य जो मेरे पिता जी को मेरी दादी से मिले थे।
मेरी दादी ने उन्हें तालीम दी थी कि उन्हें ऐसे टिकाऊ (सस्टैनबल) काम करने हैं जिसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़े साथ ही इंसानों के साथ दूसरे बेजुबान प्राणियों व पेड़ पौधों का भी ख्याल रखना है।
मेरे पिताजी कहा करते थे कि हमने जो समाज व प्रकृति से लिया है उसे उसे कई गुना करके वापस करना है। आज भी हमरी कोशिश इन्हीं मूल्यों पर चलने की है. हम गाँधी जी के विचारों के माध्यम से इन्हीं मूल्यों को समाज में सुपोषित करने का प्रयास कर रहे हैं।
‘हाशिए पर लैंगिकता के सवाल’ सत्र में पारलिंगी (ट्रांसजेंडर) सामाजिक कार्यकर्ता शमिभा पाटिल ने कहा कि देश में करीब 3.5 करोड़ ट्रांसजेंडर हैं, जबकि 2011 की जनगणना में केवल 5 लाख ट्रांसजेंडरों को दर्ज किया गया।
उन्होंने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को समाज और शासन के स्तर पर हाशिए पर रखे जाने का जिक्र करते हुए कहा कि अब वक्त आ गया है कि समाज इस तबके को उसका हक हासिल करने दे।
उन्होंने इस समुदाय के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय का जिक्र करते हुए कहा कि देश में कहीं भी शिखंडी और कुबेर के मंदिर नहीं मिलते क्योंकि ये दोनों ही ट्रांसजेंडर थे।
‘संविधान और लैंगिक पहचान’ विषय पर सचिन कुमार जैन ने याद किया कि किस प्रकार 14 अगस्त 1947 को हंसा मेहता ने समस्त भारत की महिलाओं के प्रतिनिधि के रूप में तिरंगा ध्वज देश को भेंट किया था।
उन्होंने संविधान सभा में शामिल महिला सदस्यों को भी याद किया।
लोकतंत्र में लैंगिक भेद की बात करते हुए उन्होंने बताया कि भारत में संविधान निर्माण के बाद पहले दिन से हर महिला को मतदान का अधिकार दिया गया।
यह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि दुनिया के शुरुआती लोकतांत्रिक राज्यों में से एक एथेंस में महिलाओं को वोट देने का अधिकार 1952 में मिला। 1787 में दुनिया का पहला लिखित संविधान बनाने वाले देश अमेरिका में 1920 में महिलाओं को मताधिकार मिला,
वह भी केवल श्वेत महिलाओं को।
अर्थशास्त्र की प्रोफेसर दीपा सिन्हा ने जेंडर और आर्थिक विषमता के संबंधों को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि पेशों को भी जेंडर के मुताबिक बांट दिया गया है।
सिन्हा ने कहा कि तंबाकू उद्योग में 80 फीसदी महिलाएं जबकि कपड़ा उद्योग में 70 फीसदी कर्मचारी महिलाएं हैं।
उन्होंने कहा कि आर्थिक क्षेत्र में जेंडर आधारित भेदभाव कम करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि महिलाओं को अवैतनिक कामों में बहुत अधिक समय नहीं देना चाहिए, क्योंकि हमारे समाज ने ऐसे ज्यादातर काम महिलाओं के हिस्से में डाल रखें हैं।
उन्होंने कहा कि अमीर तबके की स्त्रियां तो अपने काम का बोझ हलका करने के लिए गरीब महिलाओं को काम पर रख लेती हैं, लेकिन गरीब महिलाओं के पास कोई विकल्प नहीं।
वरिष्ठ पत्रकार और गाँधी के अध्येता अरविंद मोहन ने महिलाओं के साथ बापू के सहज संबंधों का बखूबी वर्णन किया। उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी ने देश भर में महिलाओं को परदे से बाहर निकालने का प्रयास किया।
उन्होंने महिलाओं को न केवल घरों से निकाला बल्कि आजादी के लिए जेल तक जाने के लिए तैयार किया।
वरिष्ठ गांधीवादी विश्वास पाटिल ने महात्मा गांधी की अर्द्धांगिनी कस्तूरबा का जिक्र किया और उनके समूचे जीवन चरित्र को लगभग सचित्र ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से बताया कि कस्तूरबा गांधी की शक्ति का स्रोत थीं।
जेंडर मामलों के अध्येता सुरेश तोमर ने लैंगिक अवधारणा और समाज में व्याप्त मिथकों पर अपने विचार प्रकट किए।
उन्होंने बताया कि महिला और बाल विकास विभाग में कार्यरत अधिकारी के रूप में उन्हें जमीनी तौर पर किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और वे किस प्रकार उनसे निपटते हैं।
तोमर ने बताया कि दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में आज भी कन्या भ्रूण हत्या, लिंग चयन आदि की जिम्मेदारी परिवार के पुरुष बहुत आसानी से महिलाओं पर आरोपित करके बच निकलने का प्रयास करते हैं।
अल्पसंख्यक समुदायों में लैंगिक पहचान की चुनौती विषय पर निदा रहमान और जकिया सोमन ने अपनी बातें कहीं।
निदा रहमान ने जहां अपने निजी जीवन के उदाहरणों के साथ मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं को सामने रखा वहीं जकिया सोमन ने कहा कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के लिए बहुत बड़ी समस्या रहा है।
पहली बार भारतीय महिलाएं इसी मुद्दे पर एकजुट होकर सामने आयीं थीं। जकिया ने कहा कि मुस्लिम महिलाएं सबसे पहले भारतीय नागरिक हैं और उन्हें भी समान अधिकारों की जरूरत है। इस बात को भूलना नहीं चाहिए।
लेखक-चिन्तक चिन्मय मिश्र ने अपनी बात को किन्नर बच्चों पर केंद्रित रखा। उन्होंने कहा कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 0 से छह वर्ष तक की आयु के किन्नर बच्चों की तादाद केवल 55 हजार थी।
मध्यप्रदेश में कुल 30 हजार ट्रांसजेंडर हैं जिनमें 3400 बच्चे छह वर्ष तक की आयु के हैं। यानी करीब 10 प्रतिशत। इनमें से ज्यादातर बच्चों को उनके परिजन उनका भविष्य जानते हुए भी त्याग देते हैं।
उन्होंने जोर देकर कहा कि किन्नर समुदाय पहले ही हमारे समाज में हाशिए पर है। पहले ही एक अंग के अभाव से ग्रस्त किन्नर बच्चों के साथ परिवार और समाज की बेरुखी एक ऐसी त्रासदी को जन्म देती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
इस तीन दिवसीय आयोजन के दूसरे दिन यानी 26 नवंबर को संविधान दिवस के अवसर पर ‘संविधान संवाद’ नामक वेबसाइट का भी लोकार्पण किया गया।
इस राष्ट्रीय संवाद के दौरान ही ‘समानता के सवाल’ नामक पुस्तक का भी लोकार्पण किया गया। इस पुस्तक में देश के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे पत्रकारों एवं विद्वानों ने लैंगिक पहचान और समानता विषय पर 35 आलेख लिखे हैं।
संपादन पूजा सिंह और राकेश मालवीय ने किया है। इस सम्मेलन में देश के बारह राज्यों के 120 पत्रकार शामिल हुए।
रिपोर्ट : राकेश कुमार मालवीय, पूजा सिंह और जावेद अनीस
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