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गंभीर समस्या पर बनी सतही, उबाऊ फिल्म बस्तर द नक्सल स्टोरी

पेज-थ्री            Mar 16, 2024


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

द केरल स्टोरी वाली टीम की उसी तर्ज की फिल्म है बस्तर। अभिनेत्री अदा शर्मा, निर्देशक सुदीप्तो सेन और निर्माता विपुल शाह की तिकड़ी मूल विषय यानी नक्सल समस्या को ठीक से दिखाने में कमजोर रही। 

इस बार विषय सांप्रदायिकता नहीं, सामाजिक न्याय है, इसलिए हिंसा का अतिरिक्त सहारा लिया गया। द कश्मीर फाइल्स में महिला को आरा मशीन पर चीरते हुए और दो दर्जन लोगों को एक एक करके गोली मारते दिखाया गया था, इसमें हिंसक नक्सलियों द्वारा राष्ट्रध्वज फहरानेवाले को बावन टुकड़ों में कुल्हाड़ी के काटते हुए वीभत्स तरीके से दिखाया गया है।

एक दूसरे दृश्य में नक्सली महिला छोटी बच्ची को जलती आग में जिन्दा फेंकती दिखाई गई है। 

फिल्म नक्सलियों को इंसान नहीं, दरिंदा साबित करने की कोशिश करती है और पुलिसिया जुल्मों को छुपाती है। फिल्म सतही और उबाऊ तरीके से एकतरफा नजरिये से बनाई गई है। अखबारों की कतरनों को फिल्मा देने से ही फिल्म महान नहीं बन जाती, हर पहलू को देखना होता है।

फिल्म शुरू होते ही डिस्क्लेमर आता है कि यह फिल्म कई घटनाओं  से प्रेरित है और फिर अगली लाइन में कहा गया कि यह एक काल्पनिक फिल्म है। दूसरी फिल्म में ही निर्देशक मेहनत से जी चुराने लगा है।

जैसे विवेक अग्निहोत्री की कश्मीर फाइल्स सुपरहिट हुई और उन्होंने आर्टिकल 370 में वे ही फार्मूले अपनाये और फिल्म पिटी, वैसे ही केरल स्टोरी के बाद नक्सल स्टोरी भी बनाने वालों का हाल है। 

दर्शक ढूंढे नहीं मिल रहे। धन्यवाद आइनॉक्स वालों का, कि केवल हम दो दर्शकों के होते हुए भी उन्होंने फिल्म का शो केंसल नहीं किया!

इमोशनलेस हैं यह फिल्म ! एनिमल फिल्म जैसी हिंसा का वीभत्स चित्रण है।  केवल राज्यों और जगहों के नाम सही हैं, बाकी एकतरफा कहानी का एकांगी चित्रण!

नक्सली समस्या के सामने सलवा जुडूम आंदोलन चित्रण भी है और प्रतीकों में अरुंधति रॉय, कुछ पत्रकारों, वकीलों, प्रोफेसरों का नक्सल प्रेम दिखाया गया। लेकिन कहीं भी पुलिस की एट्रोसिटी का जिक्र तक नहीं।

फिल्म में महिला आईजी को थानेदार की तरह दिखाया गया है, जो खुद हरेक मिशन को अंजाम तक पहुंचाती है।

फिल्म में घटनाओं का चित्रण केवल ब्लैक और व्हाइट में किया गया है, ग्रे एरिया अनदेखा है।

समस्या को हल करने के राजनीतिक प्रयासों पर सवाल है।  कई गंभीर मामलों में फिल्म एकतरफा कहानी कहती है। सरकारी तंत्र और न्यायपालिका के कुछेक लोगों पर केंद्रित है। भवानाओंरहित यह फिल्म कई तकनीकी कसौटियों पर भी यह फ़िल्म खरी नहीं उतरती।

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले आई यह फिल्म चुनाव प्रचार का हिस्सा लगती है। इसीलिए प्रभावहीन है।

 


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