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फिल्म समीक्षा : जातिवाद की हैवानियत को बताती आर्टिकल 15

पेज-थ्री            Jun 29, 2019


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।

जो लोग केवल मनोरंजन के लिए फिल्में देखते हैं, वे आर्टिकल 15 न देखें। इसमें आम मसाला फिल्मों जैसा कोई मसाला नहीं है। न फूहड़ता, न किसिंग सीन, न फाइटिंग, न नाच-गाने, लेकिन फिर भी यह फिल्म देखने लायक है।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि इस देश में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी एक के भी आधार पर किसी भी व्यक्ति से कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद देश में भेदभाव जारी है। यही बात फिल्म कहती है।

फिल्म बताती है कि भले ही प्रधानमंत्री कहे कि भारत दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है, भारत अंतरिक्ष में उपलब्धियां हासिल कर चुका है, भारत के पास बेहद सामरिक क्षमता है, लेकिन अब भी भारत में संविधान के अनुच्छेद 15 का पालन नहीं हो रहा।

फिल्म जातिवाद की हैवानियत को बताती है और शहरों से दूर उत्तरप्रदेश के रिमोट क्षेत्र की व्यवस्था का वर्णन करती है। पूरी फिल्म एक नए-नए आईपीएस पर आधारित है, जो उत्तरप्रदेश के लालगांव में अपर एसपी बनकर पहुंचता है।

दिल्ली और विदेश में रह चुका हीरो पुलिस की नौकरी में न्याय के लिए लड़ना शुरू करता है। उसे लगता है कि पूरा पुलिस महकमा ही ब्राह्मण, ठाकुर, जाट, यादव, एससी, एसटी में बंटा हुआ है।

यहां तक कि अजा और अजजा के लोगों में भी जातिवाद इतना ज्यादा है कि वे एक-दूसरे की जाति देखकर व्यवहार करते हैं। गांव की दो लड़कियां फांसी पर लटकी मिलती है और एक लड़की गायब रहती है। पुलिस महकमे के लोग उसे सलाह देते है कि अपने काम से काम रखे, लेकिन हीरो मामले की तह में जाने की कोशिश करता है।

आर्टिकल 15 को समानांतर फिल्म कहा जा सकता है। जिस तरह व्यावसायिक फिल्मों का फॉर्मूला होता है, उसी तरह समानांतर फिल्मों का भी एक फॉर्मूला होता है। सो इस फिल्म में भी है। गांव, शोषण, सवर्ण, हरिजन, महंत, ब्यूरोक्रेसी, शोषित युवतियां, मर्डर, रेप और थोड़े बहुत भाषण।

जिन लोगों के बारे में फिल्म बनाई गई है, फिल्म वहां तक तो शायद ही पहुंचेगी। फिल्म में हीरो-हीरोइन है, लेकिन उनके बीच गोविंदा या अक्षय कुमार टाइप रोमांस नहीं होता। वे थोड़े बुद्धिजीवी टाइप है। पिता के कहने पर हीरो यूपीएससी की परीक्षा देता है और आईपीएस बन जाता है, उसके साथी पिछड़ जाते है।

पर हीरो तो हीरो है, वह जाति, वर्ग, धर्म आदि के पचड़ों में नहीं पड़ता। न ही उसकी प्रेमिका पड़ती है। हीरो आईपीएस है और उसकी प्रेमिका पत्रकार और लेखक। दोनों एक-दूसरे के पूरक रहते हैं।

पूरी फिल्म में अनुभव सिन्हा ने बातों ही बातों में उन मुद्दों को भी छू लिया है, जिन्हें आमतौर पर दूसरे निर्देशक छूना पसंद नहीं करते। जब वे जाति की बात करते हैं, तब बताते हैं कि अनुसूचित जाति में भी भेदभाव होता है, उनके भीतर भी ऊपर और नीचे की जाति है।

ब्राह्मणों में भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण है, जो अपने आप को सबसे ऊंचा समझते है, सरयूपारीण ब्राह्मण उससे छोटे होते है, जो हीरो है। फिल्म में हीरो का नाम अयान रंजन रखा गया है। जिससे एकदम स्पष्ट पता नहीं चलता कि वे किस जाति का है, लेकिन पोस्टिंग होते ही सबको पता होता है कि वह किस जाति का है।

आईपीएस अधिकारियों की ट्रेनिंग ही इस तरह होती है कि वे अपनी भूमिका अच्छे से निभा सकते हैं, लेकिन फिल्म में हीरो आयुष्मान खुराना को कच्चा खिलाड़ी दिखाया गया है। कहानी के माध्यम से फिल्म समाज में असमानता की परते उधेड़ती जाती है।

डायरेक्टर अनुभव सिन्हा और पटकथा लेखक गौरव सोलंकी पूरे समय पर्दे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते है। हास्य भी कहानी से ही उपजता है और दमदार संवाद दर्शकों को बांधे रखते है। फिल्म की सिनेमैटोग्रॉफी और बैकग्राउंड म्युजिक दृश्यों को जीवंत बनाते है।

फिल्म की शुरुआत होती है, कॉमरेडों द्वारा गाये जाने वाले लोकगीत से और समापन होते-होते दर्शक अपनी बात रैप में कहने लगता है। फिल्म का एक दृश्य इंटरवल के पहले बेहद दमदार बन पड़ा है, जब आईपीएस हीरो अपने कार्यालय में संविधान के अनुच्छेद 15 के पन्ने सूचना पटल पर लगा देता है। अपने सहकर्मियों से वह कहता है कि तुमने जिसकी शपथ ली है, कम से कम उसकी भावना का तो ख्याल रखो।

फिल्म में ओवरफ्लो हो रहे मेन होल में घुसकर सफाई करते हुए सफाईकर्मी का दृश्य बेहद मार्मिक है। आयुष्मान खुराना ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है, पूरी फिल्म उन्हीं के कंधों पर है। ईषा तलवार, सयानी गुप्ता, मनोज पाहवा, जिशान अय्युब, रोजिन चक्रवर्ती की भी छोटी भूमिका है। कुछ अलग हटकर देखना चाहें तो अच्छी फिल्म है।

 


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