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पंडित लख्मीचंद:यशपाल शर्मा की कुलबुलाहट को सृजन में बदलने का परिणाम

पेज-थ्री            Oct 29, 2022


वीरेंद्र भाटिया।

जिस प्रान्त और कल्चर की अपनी लिपि होती है उस कल्चर को सहेजने की जिम्मेदारी उस भाषा या लिपि के लेखकों की होती है।

जिस प्रान्त और कल्चर की अपनी भाषा अपनी लिपि नहीं होती वह कल्चर वहां के रंग कर्मी आगे बढ़ाते हैं।

लेकिन यह लगातार होते रहने वाला काम है जिसमे निरंतरता चाहिए।

आगे से आगे बढ़ती पीढ़ी अपने ही कल्चर/ लोक संस्कृति को एक समय में आउट डेटेड कहने लगती है।

ऐसे में रंग कर्मी लोगों की आजीविका तक का संकट खड़ा हो जाता है और वे उस काम को छोड़ने लगते हैं।

यदि लोक संस्कृति किताबों के सहेजी गई होगी तो फिर किसी दिन कोई सिरफिरा उठेगा और उसे जिन्दा कर देगा।

हरियाणा के संदर्भ में ऐसा नहीं है। यहाँ सांस्कृतिक सृजन अन्य प्रांतों की तुलना में विकसित स्तर पर नहीं जा पाया।

हरियाणा के बारे में जब कहा जाता है की यहाँ सिर्फ एक ही कल्चर है और वह है एग्रीकल्चर तो गहरे में एक टीस उठती है।

वह टीस बिना किसी प्राप्य के भीतर ही कुलबुलाती है और दफ़न हो जाती है ।

हिंदी फिल्मों के सशक्त कलाकार यशपाल शर्मा कुरुक्षेत्र में आयोजित होने वाले सालाना कार्यक्रम सृजन उत्सव में शरीक होते रहे हैं।

वहां हरियाणा की बोली, संस्कृति और साहित्य पर विस्तृत चर्चा होती है।

एक फ़िल्मकार जो साहित्य और रंग मंच से जुड़ा हो उसकेभीतर सृजन को लेकर अलग तरह की एक कुलबुलाहट होती है।

हिसार निवासी यशपाल शर्मा में भी वही कुलबुलाहट उठती थी जब उनके सामने यह तंज आता कि हरियाणा में सिर्फ एक ही कल्चर है और वह है एग्रीकल्चर।

यशपाल शर्मा ने अपनी कुलबुलाहट को सृजन में बदला और हमारे सामने हरियाणवी संस्कृति की लुप्त होती विधा रागनी और सांग के सृजक पंडित लख्मी चंद पर फिल्म बना डाली।

फिल्म 8 नवंबर को अभी रिलीज होनी है लेकिन रिलीज़ से पहले ही यह फिल्म प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरुस्कार के साथ साथ अनेको अन्य पुरुस्कार भी जीत चुकी है।

इस फिल्म की काफी शूटिंग सिरसा जिला के कुछ गाँवों में हुई है।

पंडित लख्मी चंद रागनी और सांग विधा का एक चिर परिचित ऐतिहासिक नाम है।

1905 में उनका जन्म हुआ और आज़ादी मिलने के दो साल पहले 1945 में उनका निधन हो गया।

अधिसंख्य महान लोग जिन्होंने जीवन में बड़े काम किये वे अपनी जवानी की उम्र में विदा हो गए।

लेकिन जितने भी बरस वे हमारे बीच रहे, उन्होंने अपने होने को एक-एक पल सार्थक किया ।

पंडित लखमीचन्द ने अपने जीवन में लगभग दो दर्जन ‘साँगों’ की रचना की, जिनमें ‘नल-दमयन्ती’, ‘हरीशचन्द्र’, ‘ताराचन्द’, ‘चापसिंह’, ‘नौटंकी’, ‘सत्यवान-सावित्री’, ‘चीरपर्व’, ‘पूर्ण भगत’, ‘मेनका-शकुन्तला’, ‘मीरा बाई’, ‘शाही लकड़हारा’, ‘कीचक पर्व’, ‘पदमावत’, ‘गोपीचन्द’, ‘हीरामल जमाल’, ‘चन्द्र किरण’ ‘बीजा सौरठ’, ‘हीर-रांझा’, ‘ज्यानी चोर’, ‘सुलतान-निहालदे’, ‘राजाभोज-शरणदे’, ‘भूप पुरंजन’ आदि शामिल हैं। इनके अलावा उन्होंने दर्जनों भजनों की भी रचना की।

लंबी बीमारी के उपरान्त 17 जुलाई, 1945 को उनका देहान्त हो गया। वे अपनी अथाह एवं अनमोल विरासत छोड़कर गए हैं।

उनकी इस विरासत को सहेजने व आगे बढ़ाने के लिए उनके सुपुत्र पंडित तुलेराम ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसके बाद तीसरी पीढ़ी में उनके पौत्र पंडित विष्णु दत्त कौशिक भी अपने दादा की विरासत के संरक्षण एवं संवर्धन में अति प्रशंसनीय भूमिका अदा कर रहे हैं। वे अपने दादा द्वारा बनाए गए ‘ताराचन्द’ के तीन भाग, ‘शाही लकड़हारा’ के दो भाग, ‘पूर्णमल’, ‘सरदार चापसिंह’, ‘नौटंकी’, ‘मीराबाई’, ‘राजा नल’, ‘सत्यवान-सावित्री’, महाभारत का किस्सा ‘कीचक द्रोपदी’, ‘पद्मावत’ आदि दर्जन भर साँगों का हजारों बार मंचन कर चुके हैं और आज भी लोगों की भीड़ उन्हें सुनने आती है।

यशपाल शर्मा इस फिल्म के माध्यम से हरियाणा की लोक संस्कृति के इस अध्याय इस विरासत इस विधा को हरियाणा से बाहर निकाल कर पूरे भारत के सामने ला रहे हैं। यशपाल शर्मा और उनकी टीम को

बधाई

और फिल्म की सफलता के लिए उन्हें शुभकामनाएं ! फिल्म रिलीज होने के बाद बहुत लोग लिखेंगे ! बहरहाल फिल्म का इन्तजार है!

 

 



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