ममता यादव।
आज दंगल फिल्म देखकर मुझे भी मेरे बापू यानी दादा याद आ गये। हम लोग पिताजी को दादा ही कहते थे। कोई भी मौसम हो एक ही आदेश होता था कि सुबह 5 बजे उठ ही जाना है और ग्राउंड में चाहे घूमो,खेलो,पीटी करो कुछ भी करो। घर लौटकर सुबह से चने और दूध का नाश्ता। पढ़ाई के समय पढ़ाई खेल के समय खेल और शाम को पांचों भाईयों बहनों को मिलकर रामायण के कम से कम पांच दोहे रोज जरूर पढ़ना है।अगर हिंदी सुधारना है तो रामायण जरूर पढ़िये। कई बार बहुत जोर से गुस्सा आता था मगर ये पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि सोने क्यों नहीं देते? मन का कुछ करने क्यों नहीं देते?और भी बहुत कुछ सीखें अनुशासन की बातें। जो तब बहुत बुरी लगती थीं मगर आज लगता है कि नहीं वही अनुशासन और सीखें जिंदगी के संघर्षों से जूझने का हौसला देती हैं।कभी कदम बहके भी तो वही पक्की डोर फिर बच्चों को परिवार में खींच लाती है माता—पिता के पास।
बहुत कुछ बताती है ये फिल्म भारतीय खेल संघों के सिस्टम को नंगा तो करती ही है, ये भी बताती है कि लड़कियों को जितना ज्यादा हतोत्साहित और अनदेखा किया जायेगा वो उतनी मजबूत बनकर सामने आयेंगी फिर चाहे क्षेत्र कोई भी हो। ये फिल्म बताती है कि हमारे देश की नैसर्गिक प्रतिभाओं को सिस्टम कैसा बना देता है कि वो सफल होते होते असफल हो जाती हैं। ये फिल्म बताती है कि हमारे देश के सिस्टम में बैठे लोगों को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि खिलाड़ी क्या लाता है देश के लिये बस मैडल आ जाये काफी है। ये फिल्म बताती है कि इस सिस्टम में बैठे घाघ लोग जरा सा क्रेडिट लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
ये फिल्म बताती है कि हमारे देश में जीत के बाद ही इनाम बरसते हैं उसके पहले तो खिलाड़ी भूखे रहकर कुछ कर लें तो कर लेंं। ये फिल्म बताती है कि मिट्टी से नाता कभी मत तोड़िये। बहुत कुछ इतना कुछ हम फिल्म देखते—देखते ये सोच ही नहीं पाते कि हम फिल्म देखे रहे हैं। लगता है यही हमारे आसपास का समाज है जो कुछ अलग करती लड़की पर पहले हंसता है ताना देता है और जब वो अपने संघर्ष से,हौसले से सारी परिस्थतियों का पटखनी देती है मैडल जीत लेती है तो यही समाज उसे सलाम करता है। आमिर तो आमिर हैं। उन्हें देशभक्ति साबित करने के लिए किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है। एक खिलाड़ी चाहता है कि वह देश के लिये गोल्ड लाये लेकिन भ्रष्ट सिस्टम क्या चाहता है कुछ भी नहीं। लेडिज रेसलर के लिये फंड का संवाद जिस अंदाज में बोला जाता है वह बता देता है कि महिलाओं के बारे में क्या सोच रखकर कार्यक्रम फंडिंग तय किए जाते हैं।
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