पुण्य प्रसून बाजपेयी।
जयपुर के पांडे मूर्तिवाले! वैसे पूरा नाम पंकज पांडे है लेकिन, पहचान यही है जयपुर के पांडे मूर्त्तिवाले और इस पहचान की वजह है कि देश भर में जहा भी प्रमुख स्थान पर भगवान राम की मूर्ति लगी है, वह पांडे जी ने ही बनायी है।
यूं श्रीकृष्ण और अन्य भगवान के मूर्त्तिया भी बनायी है और अलग अलग जगहो पर स्थापित की है। लेकिन भगवान राम की मूर्ति और वह भी अयोध्या में राम की प्रतिमा को लेकर पांडे जी इतने भावुक रहते हैं कि जब भी बात होती है तो बात—करते करते उनकी आंखो में आंसू आ जाते हैं, आवाज भर्रा जाती है और आखरी वाक्य अक्सर उनसे बातचीत यहीं आकर ठहरती है कि अयोध्या में राम मंदिर तो बना नहीं लेकिन उन्होने भगवान राम की उस मूर्ति को बना कर रखा हुआ है जिसे राम मंदिर में स्थापित करना है।
अक्सर इस आखरी वाक्य से पहले आडवाणी की रथयात्रा से लेकर मोदी की ताकतवर सत्ता का जिक्र जरुर होता है। लेकिन राजनीति और सत्ता धर्म के मार्ग पर कहा चलते हैं? इस सवाल पर संयोग से हर बार वह राजधर्म का जिक्र किया करते थे लेकिन 9 दिसंबर को राजधर्म की जगह धर्मसभा का जिक्र कर उन्होंने यही उम्मीद जतायी कि 15 से 25 दिसंबर के बीच कोई बडा निर्णय होगा।
निर्णय क्या होगा यह पूछने पर उन्होने चुप्पी साध ली लेकिन उम्मीद के इंतजार में रहने को कहा और यहीं से यह बात भी निकली कि कैसे 50 की उम्र वाले पांडेजी आज 75 पार है लेकिन उम्मीद छूटती नहीं। लेकिन दूसरी तरफ दिल्ली में रामलीला मैदान की धर्मसभा में उम्मीद ही नहीं भरोसा भी गुस्से में तब्दील होता दिखायी दिया।
चाहे भैयाजी जोशी मंच से सत्ता से गुहार लगा गये कि राम मंदिर के लिये कानून तो सरकार को बनाना ही चाहिये। लेकिन संयोग से उसी दिन मोदी सत्ता के तीसरे कद्दावर नेता अरुण जेटली ने एक अंग्रेजी चैनल को दिये इंटरव्यू में जब साफ कहा कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार चलेगी तो चार सवाल उठे।
पहला , सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखना चाहती है तो संघ परिवार सत्ता से विधेयक लाने की गुहार क्यों कर रहा है? दूसरा, सत्ता का मतलब है कि बीजेपी की सत्ता और बीजेपी जब खुद को संघ परिवार की सोच से अलग कर रही है तो फिर इसके संकेत क्या कानून तंत्र और भीड़तंत्र को बांटने वाले हैं? तीसरा , क्या सत्ता तमाशा देखे और तमाशा करने करने के लिये विहिप -बंजरंग दल या स्वयसेवक तैयार है? चौथा , आखिर में राम मंदिर जब सियासत का प्यादा बना दिया गया है तो फिर अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर भीडतंत्र की हैसियत तो प्यादे वाली भी ना होगी तो क्या वह सत्ता की मंशा पर मठ्टा डालने का मन बना चुका है?
यानि राम मंदिर से अगर वोंटो का ध्रुवीकरएा होता है और पारदर्शी तौर पर ये दिखायी देने लगा है कि राम भक्ति से ज्यादा सत्ता भक्ति ही अब संघ परिवार पर छायी हुई है तो फिर खडा होगा कौन और राम मंदिर की दिशा में बढ़ेगा कौन?
रामलीला मैदान में एक पुराने स्वयसेवक से जब चर्चा होने लगी तो उन्होने बेहद सरल शब्दो में उपनिषद का सार समझा दिया। बोले, ईश्वर के पास तो सबकुछ है , तो उन्होंने अपने को बहलाने के लिये सृष्टि की रचना की और मनुष्य उन्ही के कण से बने। तो मनुष्य खुद को कैसे समझे और ईश्वर को कैसे जाने तो सृष्टि बनाते वक्त ईश्वर ने मनुष्य़ के मन, दिमाग और तन को खुद से इस तरह अलग किया कि जिससे मनुष्य अपने होने या खुद को पहचानने के लिये भटकता फिरे।
ध्यान दिजिये जिसका मन राम में रम गया या अपने इश्वर में लग गया तो वह उस माया से मुक्ति पा जाता है जिसके लिये मनुष्य खुद के जीवन को खत्म कर देता है। हमारी बातों को भगवा पहने एक व्यक्ति भी सुन रहे थे तो उन्होने बीच में टोका, तो जो मनुष्य खुद को शक्तिशाली समझता है वह तो ईश्वर से उतना ही दूर हो गया। क्यों ...मैने सवाल किया तो वह बेहिचक बोले क्योकि हर राजा को लगता है कि उसके पास सबकुछ है तो अपने मनोरंजन के लिये ही वह अपनी जनता से खेलता है वह ये भूल जाता है कि वह खुद उस ईश्वर के कण से बना है जिन्होने सृष्टि ही अपने लिये बनायी।
यानी कण कण में भगवान का मतलब यही है कि सभी तो ईश्वर के कण से बने है और ताकतवर खुद को ही इश्वर मानने लगता है तो फिर ये भी इश्वर का तमाशा ही है।
जाहिर है बातो में ऐसा रस था कि मैने सवाल कर दिया ...अब तो लोकतंत्र है राजा कहां कोई होता है। पर लोकतंत्र को भी शाही अंदाज में जीने की चाहत मुखौटे और चेहेर में कैसे बंट जाती है ये तो आप राम मंदिर के ही सवाल पर देख रहे है।
स्वयंसेवक महोदय ने ना कहते हुये भी जब मुखौटे का जिक्र किया तो मैंने उसे और स्पष्ट करने को कहने की मंशा से अपनी समझ को राम मंदिर से इतर मौजूदा सामाजिक राजनीतिक हालात की दिशा में ये कहते हुये मोड दिया कि ..ऐसा तो नहीं मोदी के सत्ता में आने पर बतौर मुखौटा सिर्फ गरीबी गरीब , किसान-मजदूर की बात बीचे साढे चार बरस में लगातार जारी है। लेकिन असल चेहरा कारपोरेट हित और सत्ता की रईसी के लिये पूंजी के जुगाड में ही रमा हुआ है।
संयोग से तभी साध्वी रितंभरा मंच से बोलने खडी हुई और मंदिर कानून बनाने का जिक्र किया तो स्वयसेवक महोदय बोल पडे , अब मंदिर कानून का जिक्र कर रही है तो ये सवाल वृंदावन में अपने आश्रम के लिये सरकारी चंदा लेते वक्त क्यो नहीं कहा।
यानी ...यानी क्या सरकार के साथ अंदरखाने मिलाप और बाहर विलाप ? मुश्किल यही है कि 1992 के आंदोलन की पूंजी पर आज की गुलामी छुपती नहीं है।
यही हाल संघ परिवार का हो चला है, कोई नानाजी देशमुख सरीखा तो है नहीं कि एक धोती और एक गमछा ले कर चल निकले। अब तो घूमने के लिये आलीशान गाडियां भी चाहिये और विमान प्रवास में सीट भी ए 1।
इन बातो को सुनते हुये एक और पुराने स्वयसेवक आ गये जो मंच से सत्ता को राम मंदिर के नाम पर लताड़कर आये थे। उनकी आंखो में आंसू थे ..लगभग फूट पडे...देख लिजिये कोई सत्ता का आदमी आपको यहा दिखायी नहीं देगा। लेकिन राम मंदिर से सत्ता हर किसी को दिखायी दे रही है।
गुलामी होने लगी है, साढ़े चार बरस बोलते रहे विकास है तो चुप रहो। अब विकास से कुछ हो नहीं रहा है तो राम—राम कहने के लिये कह रहे हैं।
अच्छा ही है जो इनके चंगुल से कक्काजी , दयानंद दी , शरद जी , मिश्रा जी , तोगडिया जी और ऐसे सैकड़ों अच्छे प्रचारकों को निकाल दिया गया और लगे सत्ता की गुलामी करने। मेरा तो ह्रदय दिन में रोता है और आंखें रात में बरसती हैं।
बात बढ़ती जा रही थी ..चंद भगवाधारी और जमा हो रहे थे और जो—जो जिन शब्दो में कहा गया उसका अर्थ यही निकल रहा था कि भगवा भीड़ भी अब संभल रही है और सत्ता तंत्र के खेल में प्यादा बन खुद को भीड़तंत्र बनाने के लिये वह भी तैयार नहीं है।
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