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चुनावी मैदान में बनेटी घुमाने उतरे बागियों को नकार नहीं सकतीं भाजपा-कांग्रेस

राजनीति            Nov 04, 2023


कीर्ति राणा।

कहीं पार्टी की चूक, कहीं बागियों के मुगालते, कहीं प्रत्याशी से अपनापन या दबाव-प्रभाव, कहीं सर्वे का हवाला, तो कहीं निष्ठा की अनदेखी और टिकट बेचने जैसे आरोप - इन सारे मसालों को मिक्स कर किसी फिल्म के लिए स्क्रिप्ट लिखी जाए तो उसका टाइटल ‘हां मैं बागी हूं’ से बेहतर क्या होगा। दोनों दलों के ये वो बागी हैं, जिन्हें ‘नाच ना जाने आंगन टेढ़ा’ कह कर नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि इनमें से अधिकांश पूर्व विधायक हैं या कि पिछले चुनावों में जीतने वाले विधायकों के चुनाव संचालक, या उनके दाए-बाएं हाथ रहे हैं।

यानी चुनाव लड़ने के साथ ही जातिगत समीकरण, फंड जुटाने, क्षेत्र के मतदाताओं को मोहित करने जैसे अनुभव भी जिनकी पूंजी है। रही जन-धन जुटाने की चिंता, तो पार्टी से नाराज संबंधित क्षेत्र के कार्यकर्ता बिना सामने आए मदद करते रहते हैं, तो विरोधी दल का प्रत्याशी आर्थिक सहयोग करता रहता है कि मैदान में मजबूती से खड़े रह सकें।

नाम वापसी के अंतिम समय तक मान मनौवल, फोन पर समझाइश चलती रही। कुछ बागी तो समझ गए, कुछ को पार्टी नेताओं की समझाइश ही बचकानी लगी। कुछ ने एक कान से सुना और दूसरे कान से धमकी वाली सीख को हवा में उड़ा दिया। किसी ने खर्चा पानी मांग लिया, तो किसी ने भोपाल-दिल्ली के नेताओं को ठेंगा दिखा दिया।

अब स्थिति साफ हो गई है। 230 सीटों के लिए दोनों दलों के 460 अधिकृत प्रत्याशियों के खिलाफ इस बार सर्वाधिक 2800 बागी मैदान में हैं। निर्दलीय फार्म भरने वाले अपनी ही जीत का दावा करते नहीं थक रहे हैं, लेकिन सब जीत ही जाएं यह जरूरी नहीं। किंतु एक बात साफ है, चुनाव बाद पार्टियां इन निष्कासितों को अपनी जरूरत मुताबिक फिर से शामिल कर लेती हैं।

पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी से बगावत कर निर्दलीय चुनाव जीते सुरेंद्र सिंह शेरा, प्रदीप जायसवाल, केदार डाबर और विक्रम सिंह राणा इस बार पार्टियों के घोषित प्रत्याशी बन चुके हैं। इन सब से प्रेरणा लेकर इस बार मैदान में उतरे ‘हां मैं बागी हूं’ फिल्म के कलाकारों को भरोसा है कि जीत गए तो सरकार बनाने की जोड़-तोड़ में लगी पार्टी खुद पैर पखारने आ जाएगी।

इस मर्तबा सीधी से केदारनाथ शुक्ल, बुरहानपुर से नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे हर्षवर्द्धन सिंह तो बड़वारा से पूर्व मंत्री मोती कश्यप, साथ ही साथ महू से अंतरसिंह दरबार, गोटेगांव से शेखर चौधरी चुनाव मैदान में निर्दलीय डटे हुए हैं। बड़े नेताओं की समझाइश के बाद हृदय परिवर्तन होने का ही असर रहा कि पूर्व मंत्री रंजना बघेल, पूर्व मंत्री कौशल्या गोटिया, पूर्व विधायक जितेंद्र डागा ने नाम वापस लेकर अधिकृत प्रत्याशियों को टेंशन से मुक्ति दे दी है।

निर्दलीय तो हर चुनाव में खड़े होते हैं, फर्क इतना है कि लोकसभा की अपेक्षा विधानसभा, नगर निगम चुनाव में इनकी संख्या अधिक होती है। ऐसा पहली बार हुआ है कि 230 सीटों पर इस बार सर्वाधिक 2800 निर्दलीय अधिकृत प्रत्याशियों के लिए चुनौती बने हैं।

मप्र में अब तक हुए विधानसभा चुनावों में 1990 के चुनाव में 2730 (सर्वाधिक) निर्दलीयों के चुनाव लड़ने का रिकार्ड रहा है। यह रिकार्ड भी इस बार 2800 प्रत्याशियों के निर्दलीय चुनाव लड़ने से टूट गया है। किसी भी चुनाव में सभी सीटों पर निर्दलीय नहीं जीतते, किंतु 1962 में हुए विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा 39 विधायक निर्दलीय जीते थे।

विंध्य के मझौली से 1957 में निर्दलीय चुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचे अर्जुन सिंह 1980 में मुख्यमंत्री भी बने थे। इसी तरह, 1974 में बाबूलाल गौर ने भोपाल दक्षिण पश्चिम सीट से निर्दलीय उपचुनाव जीता था। 2004 में वे भी मप्र के सीएम बने थे।

कांग्रेस से दो बार विधायक और सांसद रहे प्रेमचंद गुड्डू ने भी कांग्रेस से इस्तीफा देकर आलोट से निर्दलीय पर्चा दाखिल कर दिया है। कभी आलोट से उन्होंने अपने पुत्र अजीत को निर्दलीय लड़ाया था, तब वो भी हार गए थे। गुड्डू की पुत्री रीना बोरासी सेतिया को कांग्रेस ने सांवेर से प्रत्याशी बनाया है, कभी यहां से गुड्डू भी विधायक रहे हैं। दावेदारी इस बार भी की थी, लेकिन टिकट नहीं मिला तो आलोट से कांग्रेस प्रत्याशी को हराने के लिए कांग्रेस पर पट्ठावाद का आरोप लगाते हुए मैदान में निर्दलीय कूद पड़े हैं।

महू में पूर्व विधायक अंतरसिंह दरबार और धार में कुलदीप सिंह (पूर्व विधायक मोहन सिंह बुंदेला के पुत्र) पर कमलनाथ की समझाइश का कोई असर नहीं पड़ा है। ये दोनों भी कांग्रेस प्रत्याशियों रामकिशोर शुक्ला (महू) और प्रभा गौतम (धार) को मजा चखाने के लिए कमर कस चुके हैं। धार में भाजपा प्रत्याशी नीना वर्मा को टिकट देने से नाराज राजीव यादव तो नाम वापसी के दौरान गायब ही हो गए, भाजपा नेता खोजते रह गए। बुरहानपुर में स्व. नंदू भैया के पुत्र हर्ष चौहान ने नाम वापस नहीं लिया है तो जाहिर है अर्चना चिटनिस का तनाव यथावत है।

इंदौर जिले की देपालपुर सीट पर हिन्दूवादी नेता राजेंद्र चौधरी ने भी भाजपा के मनोज पटेल को चुनौती दे रखी है।बड़नगर में तो टिकट बदलकर खुद ही बागी की ड्योढ़ी पर कांग्रेस पीले चावल रखने चली गई। इस सीट पर मौजूदा विधायक मुरली मोरवाल अपने पुत्र पर लगे दुष्कर्म के आरोप में घिरे हुए हैं। अपनी साख बनाए रखने के लिए पार्टी ने पहले राजेंद्र सिंह सोलंकी को टिकट दिया, लेकिन मोरवाल खेमे द्वारा किए विरोध और समर्थक द्वारा भोपाल में आत्मदाह के प्रयास जैसे दबाव के बाद पार्टी ने फैसला बदल दिया और मोरवाल का नाम घोषित कर दिया। इस निर्णय से खफा सोलंकी अब मैदान में बनेटी घुमाने उतर गए हैं।

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