प्रकाश भटनागर।
एक साहब स्वर्ग सिधार गये। इससे पहले कई पुश्तों के खाने-पीने का बंदोबस्त उन्होंने कर दिया था। लिहाजा मौत के बाद परिवार में रोना-पीटना मच गया। पत्नी सहित बेटे-बहू, बेटी-दामाद का रुदन थम नहीं रहा था।
हर कोई यही विलाप करता कि 'हे, ईश्वर इनकी जगह मुझे उठा ले।' यकायक वहां देवदूत प्रकट हो गया। उसने कहा कि उनमें से कोई एक अपनी जान दे दे तो उस आदमी को दोबारा जिंदा कर दिया जाएगा।
यह सुनते ही सारे लोग रोना-धोना भूलकर एक-दूसरे से मर जाने के लिए कहने लगे। फिर सब के सब वहां से नौ-दो-ग्यारह हो गये।
क्या कांग्रेसी कुनबे में राहुल गांधी के साथ कुछ ऐसा ही नहीं हो रहा है? राहुल के इस्तीफे की पेशकश के बाद कांग्रेस में भी विलाप का ऐसा ही नाटकीय माहौल है।
किसी ने लिखा है, 'हर हिन्दुस्तानी एक और राम के पैदा होने की कामना तो करता है, किंतु वह अपनी बजाय पड़ोसी के घर में राम जन्म होने की ही चाह रखता है।' यही कांग्रेस में हो रहा है।
हर बड़ा चाह रहा है कि उसकी बजाय कोई दूसरा पार्टी के लिए कुर्बानी दे दे। यहां दीपक बावरिया या विवेक तनखा टाइप नेताओं की बात करने का मतलब नहीं है। ये दोनों न तो लोकसभा चुनाव में पार्टी की जीत के लिए किसी भी तरह उपयोगी थे और न ही इनके त्यागपत्र से बहुत बड़ा असर होना है। किसी तरह का संदेश जाना तो खैर बहुत दूर की बात है।
राहुल ने बहुत स्पष्ट कहा था कि उनके इस्तीफे के बाद किसी महासचिव या किसी मुख्यमंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया। इसलिए जब तक इस्तीफे का क्रम कमलनाथ की ओर से शुरू नहीं होगा, तब तक यह सारा रुदन मिथ्या ही कहा जाएगा। यही बात राजस्थान में अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के लिए लागू होती है।
इन तीन राज्यों में मुख्यमंत्री का चयन गांधी ने लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ही किया था। सचमुच उन्होंने बड़े कदम उठाए। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट, गांधी के बेहद खास लोगों में शामिल हैं। फिर भी कांग्रेस अध्यक्ष ने सिंधिया की बजाय नाथ तथा पायलट की जगह गहलोत पर दांव खेला।
यहां तक कि छत्तीसगढ़ में भी चरणदास महंत जैसे दिग्गज कांग्रेसी की जगह गांधी ने बघेल पर यकीन जताया। लेकिन तीनों फिसड्डी साबित हुए। तो क्या गांधी के बराबर ही हार के लिए इन तीनों को भी दोषी नहीं माना जाना चाहिए?
मध्यप्रदेश में तो गजब हो रहा है। दिग्विजय सिंह के इशारे पर ही कहना चाहिए कि डा. गोविंद सिंह सिंधिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की वकालत कर रहे हैं। सिंधिया प्रदेश अध्यक्ष बन कर क्या करेंगे? बनना होगा तो मुुख्यमंत्री ही बनना चाहेंगे।
नाथ को कल एक टीवी चैनल पर देखा। पहली बार लगा कि कुर्सी का मोह उनसे जोंक की तरह चिपक गया है। इस्तीफे की बात पर मसखरी के अंदाज में वे कह रहे थे कि पेशकश तो पहले ही कर दी थी, लेकिन किसी ने पूछा नहीं तो उन्होंने यह बात बताने की जरूरत भी नहीं समझी।
उन्होंने चुनाव में हार की जिम्मेदारी से साफ बचकर निकलते हुए दलील दी कि यह केंद्र के स्तर का मामला था। लेकिन प्रदेश में बीस-बाइस सीटें जीतने का दावा तो वे ही कर रहे थे।
गांधी की जगह अध्यक्ष बनने संबंधी सवाल पर कमलनाथ ने खुद को मध्यप्रदेश तक सीमित कर दिया। वहीं मध्यप्रदेश, जो नाथ के लिए मुख्यमंत्री बनने के पहले तक छिंदवाड़ा से बाहर कहीं भी नहीं था।
यह सब देखकर एक कहानी 'जिंदगी और जोंक' याद आ गयी। उसका मूल पात्र नकारा है। उपेक्षित है। स्वयं के लिए भी उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। किसी को उसकी जरूरत नहीं है। फिर भी मरने के डर से मरा जा रहा है।
तब लेखक सवाल उठाता है कि जिंदगी इस आदमी से जोंक बनकर चिपकी है या फिर यह आदमी जिंदगी से जोंक बनकर चिपक गया है। इस पात्र में शत-प्रतिशत तो नहीं, किंतु फिर भी काफी हद तक कल कमलनाथ एकाकार होते हुए दिखे।
बघेल और गहलोत का भी ऐसा ही हाल दिखता है। इन तीनों को तो लोकसभा का नतीजा आते साथ ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था, लेकिन न वे ऐसा चाहते थे और न ही उन्होंने ऐसा किया।
बाकी बहुत छोटे स्तर के जो कांग्रेसी इस्तीफा दे रहे हैं (या उनसे ऐसा कराया जा रहा है) उसे देखकर तो दुष्यंत कुमार के सुर में सुर मिलाते हुए कहा जा सकता है 'तुम ने इस तालाब में रोहू पकडने के लिए छोटी-छोटी मछलियां चारा बनाकर फेंक दीं।'
यह समय कांग्रेस में दिग्गजों के स्तर पर बदलाव की जरूरत का है। पार्टी में शीर्ष पर मौजूद चेहरों को बदलने का है। गांधी चाहते हैं कि वरिष्ठ नेता खुद ही दूसरों के लिए रास्ता साफ कर दें। वरिष्ठ नेता चाह रहे हैं कि निचले स्तर पर बदलाव कर अपनी-अपनी जगह को मजबूती से पकड़ लिया जाए।
यह सारा घटनाक्रम एक पुराना किस्सा याद दिला रहा है। दिग्विजय सिंह की सरकार बनने के बाद कला तथा संस्कृति के कई कांग्रेसी ठेकेदारों को याद आया कि पटवा शासनकाल में भारत भवन के साथ काफी अनाचार किया गया।
स्थिति में सुधार की दिखावटी कवायद के नाम पर बैठक बुलायी गयी। इसमें मशहूर विचारक तथा साहित्यकर्मी पुपुल जयकर भी शामिल हुईं। जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि मामला भारत भवन के सुधार का नहीं, बल्कि वहां डेरा जमाकर अपने-अपने उद्धार की कोशिश का है।
तब एक बैठक में जयकर ने गुस्से में कहा था, 'प्लीज, डोंट ट्राय टु परपेचुएट योरसेल्फ।' परपेचुएट का आशय यादगार बनना, चिरायु होना या स्थिर करना होता है।
जाहिर है कि महिला कल्चरल एक्टिविस्ट का आशय उन लोगों को रोकने से था, जो इस कवायद की आड़ में खुद की जड़ें जमाने की गोटियां बिठा रहे थे। जयकर अब दुनिया में नहीं हैं, किंतु भारत भवन वहीं है। बड़े तालाब के किनारे। मुख्यमंत्री निवास से लगा हुआ।
वैसा ही तालाब, जिसमें रोहू पकड़ने के लिए छोटी-छोटी मछलियां पकड़ने वाला नंगा सच दुष्यंत कुमार ने बयां किया था। क्या चारा बनती मछलियां चीख-चीखकर मुख्यमंत्री निवास को यह संदेश दे रही होंगी कि 'प्लीज डोंट ट्राय टु परपेचुएट योरसेल्फ!'
यह संदेश चेतावनी की शक्ल में बार-बार कांग्रेसी दिग्गजों से टकरा रहा होगा। यह भी यकीन किया जा सकता है कि बीती 23 मई के तुरंत बाद वह सारी दीवारें साउंड प्रूफ कर दी गयी होंगी। ताकि बाहर का कोई भी शोर भीतर तक सुनायी न दे सके।
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