पुण्य प्रसून बाजपेयी।
शहर इलाहाबाद के रहने वाले कश्मीरी पंडित राहुल गांधी! इन्हीं शब्दों के साथ द्वारका के मंदिर में पंडितों ने राहुल गांधी से पूजा करायी और करीब आधे घंटे तक राहुल गांधी द्वारकाधीश के मंदिर से पूजा करने के बाद निकले और उसके बाद राजनीतिक सफलता के लिये चुनावी प्रचार में राहुल गांधी निकल पड़े। दूसरी तरफ रविवार को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दशहरा कार्यक्रम में पहली बार किसी मुस्लिम को मुख्य अतिथि बनाया गया।
दरअसल रविवार को बाल स्वयंसेवकों की मौजूदगी में आरएसएस के बैनर तले हुये कार्यक्रम में वोहरा समाज से जुडे होम्योपैथ डाक्टर के रुप में पहचान पाये मुन्नवर युसुफ को मुख्य अतिथि बनाया गया। तो सियासत कैसे—कैसे रंग धर्म के आसरे ही सही लेकिन दिखला रही है उसी की ये दो तस्वीर अपने आप में काफी है कि बदलाव आ रहा है। एक तरफ कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप से पीछा छुड़ाना चाहती है इसलिए राहुल गांधी द्वारका मंदिर के रंग में है और संघ परिवार हिन्दू राष्ट्र की सोच तले मुस्लिम विरोधी होने के दाग को धोना चाहती है और पहली बार मुन्नवर युसुफ को मुख्य अतिथि बना रही है। सवाल उठता है क्या साफ्ट हिन्दुत्व के आसरे कांग्रेस अपने पुराने दौर में लौटना चाह रही है।
यानी अब कांग्रेस समझ रही है कि जब इंदिरा की सत्ता थी तब कांग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व अपना कर जनसंघ और संघ परिवार को कभी राजनीति तौर पर मजबूत होने नहीं दिया।आज जब राहुल गांधी द्वारका मंदिर पहुंचे तो पंडितों ने उन्हें दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी के साइन किये हुये उन पत्रों को दिखाया जब वह भी मंदिर पहुंचे थे। इंदिरा गांधी 18 मई 1980 को द्वारका मंदिर पहुंची थी और राजीव गांधी 10 फरवरी 1990 तो द्वारका मंदिर पहुंचे थे। कह सकते हैं राहुल गांधी ने लंबा वक्त लगा दिया सॉफ्ट हिन्दुत्व के रास्ते पर चलने में। या फिर 2004 में राजनीति में कदम रखने के बाद राहुल ने सिर्फ सत्ता ही देखी तो विपक्ष में रहते हुये पहली बार राहुल गांधी धर्म की सियासत को भी समझ रहे हैं।
क्या राहुल गांधी अतीत की काग्रेस को फिर से बनाने के लिये साफ्ट हिन्दुत्व की छूट चुकी लकीर को खिंचने निकल पड़े हैं? लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो अतीत की लकीर मिटाकर पहली बार मुस्लिमों के प्रति साफ्ट रुख अपनाते हुये उन्हें दिल से लगाने को खुले तौर पर दिखायी देने के लिये मचल रहा है। क्या कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व से कहीं बड़ा सवाल आरएसएस का है? पहली बार संघ अगर दशहरे के कार्यक्रम में किसी मुस्लिम को मुख्यअतिथि बना रही है तो ये सवाल जायज है कि क्या संघ अपने हिन्दू राष्ट्र में मुस्लिमों के लिये भी जगह है ये बताना चाहता है? या फिर बीजेपी की राजनीतिक सफलता के लिये संघ ने अपना एजेंडा परिवर्तित किया है?
ये दोनों सवाल महत्वपूर्ण इसलिये हैं क्योकि संघ परिवार इससे बाखूबी वाकिफ है कि संघ के हिन्दुत्व ने कभी मुस्लिमों को सीधे खारिज नहीं किया पर, सावरकर के हिन्दुत्व ने कभी मुस्लिमों को मान्यता भी नहीं दी और संघ ने हिन्दुओं के विभाजन को रोकने के लिये सावरकर के हिन्दुत्व का विरोध नहीं किया। यानी चाहे अनचाहे पहली बार संघ को लगने लगा है कि जब उसके प्रचारकों के हाथ में ही सत्ता है तो फिर अब सावरकर के हिन्दुत्व को दरकिनार कर संघ के व्यापक हिन्दुत्व की सोच को रखा जाये।
या फिर कांग्रेस साफ्ट हिन्दुत्व पर लौटे उससे पहले बीजेपी चाहती है कि संघ कट्टर हिन्दुत्व वाली सोच को खारिज कर मुस्लिमों के साथ खड़ा दिखायी दे,जिससे मोदी के विकास का राग असर डाल सके। क्योंकि अतीत के पन्नों को पलटें तो कांग्रेस और हिन्दू सभा 1937 तक एक साथ हुआ करते थे। मदनमोहन मालवीय कांग्रेस के साथ साथ हिन्दू सभा के भी अध्यक्ष रहे। लेकिन 1937 में करणावती में हुई हिन्दुसभा की बैठक में जब सावरकर अध्यक्ष चुन लिये गये तो हिन्दू सभा हिन्दू महासभा हो गई। उसी वक्त कांग्रेस और हिंदु महसाभा में दूरी आ गई पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिन्दू महसभा यानी हेडगेवार और सावरकर नजदीक आ गये।
तो क्या 80 बरस पुराने हिन्दुत्व फिर से मुख्यधारा की राजनीति को परिभाषित कर रही है। क्योंकि 80 बरस पहले संघ ये जानते समझते हुये सावरकर यानी हिन्दु महासभा के पीछे खड़ी हो गई कि सावरकर के हिन्दुत्व में मुस्लिम-इसाई के लिये कोई जगह नहीं थी। सावरकर ने बकायदा अलग हिंदु राष्ट्र और अलग मुस्लिम राष्ट्र का भाषण भी दिया और 1923 में हिन्दुत्व की किताब में भी मुस्लिमो को जगह नहीं दी ।
पर संघ इसलिये सावरकर के हिन्दुत्व की आलोचना ना कर सका क्योंकि सावरकर का जहां भाषण होता वहां अगले दिन से संघ की शाखा शुरु हो जाती। क्योंकि हिन्दु महासभा के पीछे संघ की तरह कोई संगठन या कैडर नहीं था। तो संघ सावरकर के हिन्दुत्व की सोच के साये में अपना विस्तार करता रहा और जब जनसंघ बनाने का वक्त आया तो हिंदु महासभा से निकले श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ही जनसंघ की स्थापना की। अब इतिहास अपने को दोहरा रहा है या नये तरीके से परिभाषित कर रहा है? या फिर मौजूदा हालात ने समाज के भीतर ही इतनी मोटी लकीर खींच दी है कि अब सियासत,सत्ता में लकीर मिटाने के दौर शुरु हो रहे हैं?
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