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कांग्रेस की जीत के असली शिल्पकार दिग्विजय की नर्मदा यात्रा, समन्वय, संगत में पंगत

राजनीति            Dec 19, 2018


हेमंत पाल।
सारे अनुमानों को झुठलाते हुए कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में सरकार बना ली। डेढ़ दशक तक सरकार चलाने के बाद भी भाजपा को गद्दी छोड़ना ही पड़ी। राजनीति को समझने वाले कुछ जानकारों के अनुमान सही निकले, कुछ के गलत। लेकिन, जो नजर आ रहा था, वो यही था कि भाजपा के लिए चौथी बार सरकार बना पाना आसान नहीं है।

लेकिन, भाजपा इस जमीनी सच्चाई को ठीक से समझ नहीं सकी। फिर भी भाजपा ने जितनी सीटें हासिल की, वो अनुमान से ज्यादा ही है।

जबकि, कांग्रेस ने चुनाव पूरी तैयारी से चुनाव लड़ा, फिर भी कुछ इलाकों में उम्मीदवारों का चयन करने में पार्टी चूक गई। कांग्रेस की यही चूक भाजपा के लिए फायदे कारण बनी और उसे अनुमान से करीब 10 से 12 सीटें ज्यादा मिली।

इस सबके बावजूद इस सच को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की जीत का कोई असल शिल्पकार कोई रहा, तो वे दिग्विजय सिंह ही हैं। उनकी 3300 किलोमीटर की 6 महीने में पूरी हुई नर्मदा परिक्रमा ने नर्मदा पट्टी में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया था, उसी नतीजा है कि आज कांग्रेस सत्ता में है।

विधानसभा चुनाव से पहले दिग्विजय सिंह की राजनीतिक सक्रियता को लेकर भी काफी भ्रम उपजा था। चुनाव में उनकी भूमिका क्या होगी, उन्हें प्रदेश की राजनीति में दखलंदाजी के योग्य समझा भी जाएगा या नहीं?

ऐसे कई सवाल हवा में थे। लेकिन, पंद्रह साल तक मध्यप्रदेश की राजनीति से बाहर रहने वाले दिग्विजय सिंह ने 'नर्मदा-परिक्रमा' के बाद न केवल प्रदेश की राजनीति में सक्रिय वापसी की, बल्कि पार्टी को एक सूत्र में बांधने के लिए प्रदेशभर का दौरा भी किया।

उनका 'संगत में पंगत' वाला फार्मूला काफी हद तक सफल माना गया। प्रदेश में समन्वय समिति के मुखिया के रूप में उन्होंने पार्टी को एक सूत्र में बांधने की जो कोशिश की, जो सही दिशा में उठाया गया कदम रहा।

जबकि, चुनाव से पहले से इस बात को जोर-शोर से प्रचारित किया गया था कि कांग्रेस ने टिकट बंटवारे से दिग्विजय सिंह को दूर रखने का फैसला किया है। लेकिन, न तो ऐसा हुआ और न होना था। क्योंकि, पार्टी ने ऐसा कोई फार्मूला ही तय नहीं किया था।

प्रदेश की अधिकांश सीटों पर उनके दखल से ही नाम तय हुए और ज्यादातर जीते भी। उनकी समन्वय यात्रा के दौरान हुई 'संगत में पंगत' का ही नतीजा था कि भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में बगावत कम हुई और बागियों ने जीतकर भी पार्टी प्रति प्रतिबद्धता नहीं छोड़ी।

मध्यप्रदेश की कांग्रेस राजनीति में दिग्विजय सिंह ही अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की विधानसभा सीटों के समीकरण, वहाँ की कमजोरी और वहाँ की ताकत से वाकिफ हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया बड़े नेता जरूर हैं, पर प्रदेश की सभी 230 सीटों पर उनकी पकड़ मजबूत कभी नहीं मानी गई। उनके भी अपने क्षेत्र हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह की तरह व्यापक प्रभाव क्षेत्र नहीं है।

कमलनाथ का प्रभाव महाकौशल में और ज्योतिरादित्य सिंधिया का चंबल और मालवा में है, वह भी चंद सीटों पर! वे शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, मुरैना, और ग्वालियर की सीटों की तासीर को ही ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं।

जबकि, दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की अधिकांश सीटों की गुत्थियों को बेहतर ढंग से समझते हैं। उन्हें हर जगह की तासीर और वे समीकरण भी पता हैं, जो चुनाव पर असर डालते हैं। दिग्विजय सिंह की इसी राजनीतिक पकड़ और नर्मदा परिक्रमा के दौरान उनका लोगों से सीधा संपर्क चुनाव में मददगार बना।

कांग्रेस की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले इस नेता के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते। उनसे नफरत तो की जा सकती है, पर उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्हें राजनीति का चाणक्य भी इसीलिए कहा जाता है, कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजियों को पलट दिया है।

अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवादास्पद भी बने! फिर भी कांग्रेस में उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। ऐसे भी कई मौके आए, जब उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण बने! लेकिन, कांग्रेस में उनका वजन हमेशा बरकरार रहा। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद राजनीतिक सक्रियता की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि उनका लक्ष्य कांग्रेस को एकजुट और मजबूत करना है। इस नजरिए से उन्होंने अपनी पकड़ से पार्टी को मजबूती तो दी है।

दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद 2003 में हुई हार से आहत दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे। जबकि, राजनीति में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने पहले कभी ऐसा किया हो। लेकिन, जब से वे सक्रिय हुए हैं, राजनीतिक गलियारों में उनकी धमक को महसूस किया गया।

दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा से कांग्रेस को सबसे बड़ा फ़ायदा ये हुआ कि पार्टी ने सॉफ्ट हिंदुत्व वाले बदलाव को स्वीकार किया। उनकी नर्मदा परिक्रमा का सीधा सा मतलब था कि वे उस हिंदुत्व की तरफ झुके, जिससे अभी तक कांग्रेस बचती रही है। उन्होंने इस परिक्रमा को पूरी तरह धार्मिक और आध्यात्मिक कहा था। लेकिन, दिग्विजय सिंह कितनी भी सैक्यूलर पॉलिटिक्स करें, व्यक्तिगत तौर पर वे बेहद धार्मिक और आस्थावान हैं।

नर्मदा परिक्रमा उनकी इसी आस्था को आगे बढ़ाने वाली कड़ी थी। राजनीति में उन्हें मुस्लिम हितरक्षक नेता माना जाता रहा है। लेकिन, नर्मदा परिक्रमा के दौरान रास्ते के आने वाले हर मंदिर में माथा टेकना और नर्मदा का संध्या पूजन कांग्रेस की बदलती भविष्य की रणनीति का संकेत माना गया।

दिग्विजय सिंह ने बेहद रणनीतिक तरीके से मध्यप्रदेश की राजनीति में अपनी वापसी की। उनकी छह महीने लंबी नर्मदा परिक्रमा से पहले समझा अनुमान नहीं था कि ये आध्यात्मिक यात्रा एक दिन मध्यप्रदेश की सियासत को झकझोर देगी।

यात्रा की शुरुआत में तो इसे गंभीरता से नहीं लिया गया, पर जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ी, उसके सियासी मंतव्य निकाले जाने लगे थे। इसके चलते 'संघ' और भाजपा के साथ कांग्रेस में भी मंथन होने लगा था।

दिग्विजय सिंह ने तो इसे निजी और नितांत धार्मिक यात्रा पर बताया और राजनीतिक चर्चा से भी उन्होंने दूरी बनाए रखी। लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा गया।

आज जो दिग्विजय सिंह दिखाई दे रहे हैं, वो काफी हद तक नर्मदा यात्रा से मिली ऊर्जा से ही लबरेज है। इस चुनाव के पीछे की रणनीति में यदि कोई नेता परदे के पीछे सबसे सक्रिय रहा है, तो वे दिग्विजय सिंह ही थे। क्योंकि, उनके पास खोने को कुछ नहीं था, पर मध्यप्रदेश में पार्टी को संजीवनी देने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।

लेखक सुबह सवेरे इंदौर के स्थानीय संपादक हैं।

 


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