प्रकाश भटनागर।
गजब हो रहा है कमलनाथ के नेतृत्व वाली सरकार में। ऐसा होने की उम्मीदें थीं, पर इतनी जल्दी? मामला श्याम और छेनू की लड़ाई जैसा हो गया। याद आया कुछ। नहीं आया हो तो बता रहा हूं, सन 1971 में मीना कुमारी की एक हिट फिल्म 'मेरे अपने' रिलीज हुई थी।
कालेज के बेरोजगार युवकों पर केन्द्रित। गली गैंग वाली। एक गली का सरताज श्याम (विनोद खन्ना) है। दूसरी का छैनू यानी शत्रुघ्न सिन्हा। आपस में जानी दुश्मन। दोनों के गुर्गे एक-दूसरे के इलाके में नहीं घुस सकते। ऐसा होने पर मारपीट से लेकर अन्य वारदात तक हो जाती हैं।
इनके बीच का सेतू तो मीना कुमारी बन गई थी लेकिन कमलनाथ सरकार में यह भूमिका खाली है। यह रोल दिग्विजय सिंह भी नहीं निभा पाएंगे।
आज के अखबार की केवल एक खबर पढ़कर मैं खुराफाती चिंतन में डूब गया। सोचने लगा कि कौन किसके जैसा दिख सकता है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया में से किसे श्याम तो किसी छैनू के आसपास देखना ठीक रहेगा।
क्योंकि मध्यप्रदेश में सरकार के नाम पर 'मेरे अपने' जैसी ही ढिशुम-ढिशुम चल रही है। श्याम के आदमी छैनू की गली में नहीं जा सकते। श्याम की गली को लेकर छैनू के आदमियों पर भी यही प्रतिबंध है। मंत्रिमंडल की बैठक में कल ऐसा ही माहौल दिखा।
यह ठीक है कि मामला सत्ता की लड़ाई का है। इस लड़ाई को देख कर एक फिल्म और याद आ गई। नाम था 'हवस'। कांबिनेशन भी क्या याद आया। सत्ता और हवस। एक दूसरे के पूरक। तो 'हवस' फिल्म का एक गाना बहुत लोकप्रिय हुआ था।
फिल्म में नायक गाता है, 'तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम, आज के बाद ।' अब कल जयविलास पैलेस के दरबारी प्रद्युम्न सिंह तोमर यही गीत गुनगुनाने की मुद्रा तक भावुक हो गये थे।
जैसे ही उन्होंने बैठक में न आने की बात कही, वैसे ही मुख्यमंत्री ने उन्हें 'जाना हो तो जाओ, मनाएंगे नहीं' वाली स्थिति में घोड़ापछाड़ से चित कर दिया। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री ने श्याम/छैनू की तर्ज पर तोमर से यह भी कह दिया कि वह किसकी दम पर इतना बोल रहे हैं, उन्हें पता है।
अब बताइए कि मंत्रिमंडल की अहम बैठक जैसा आयोजन इस तरह की सड़क छाप संवाद अदायगी का केंद्र बन जाए तो उसे फिल्म कहना क्या गलत है? यह बेचैनी और बौखलाहट आखिर किसलिए है?
इसलिए कि 15 साल बाद मिली मलाई का अधिक से अधिक हिस्सा सूत लिया जाए। या इसलिए कि मामला,'जो है समां फिर हो न हो' की आशंका वाला हो गया है।
मध्यप्रदेश, विशेषकर कांग्रेस के मामले में ऐसे प्रसंग नयी बात नहीं हैं। पार्टी के दो दिवंगत दिग्गज नेताओं महेंद्र सिंह कालूखेड़ा और कर्नल अजय नारायण मुश्रान के बीच तो विधायकों को लेकर 'गेट आउट' तथा 'औकात' जैसे संवाद तक हो चुके हैं।
यह दिग्विजय सिंह के पहले कार्यकाल का मामला था। इसी कार्यकाल में मुकेश नायक और एक अल्पसंख्यक नेता के बीच वल्लभ भवन में 'जूते पड़ेंगे' और 'जरा अपनी हद में रहना' जैसा क्षमता प्रदर्शन का खेल भी चला था। लेकिन मुख्यमंत्री के स्तर पर ऐसी सार्वजनिक झुंझलाहट इस राज्य ने पहले कभी नहीं देखी।
मान लिया कि नाथ झुंझलाहट से भरे हुए हैं। राहुल गांधी से उन्हें पुरानी तवज्जो नहीं मिल पा रही है। चाहकर भी मंत्रिमंडल में बदलाव के लिए वांछित ताकत नहीं दिखा पा रहे हैं। फिर भी इसका गुस्सा इस तरह तो नहीं ही दिखाया जाना चाहिए।
इस बैठक से ठीक पहले सिंधिया समर्थक डिनर-डिनर खेल चुके थे। प्रदेश कांग्रेस में बीते कुछ दिनों से जो तलवारें रह-रहकर चमक रही हैं, उनकी चमक नाथ से भी नहीं छिपी है। इतना तो वह भी भांप गये होंगे कि इस रात्रि भोज में सिंधिया खेमे में उनके खिलाफ अपने तेवरों में और तीखा तड़का लगाने की तैयारी की होगी।
तो तोमर के व्यवहार पर मुख्यमंत्री का उखड़ जाना क्या इस बात का सबूत है कि नाथ उलझने के मूड से ही बैठक में आये थे? क्योंकि आमतौर पर नाथ के ऐसे तेवर कभी नजर नहीं आते हैं। इसलिए लगता है कि यह गुस्सा सोद्देश्य और पूर्व नियोजित तरीके से किया गया, ताकि सिंधिया के बाकी विधायकों को भी संकेत दिया जा सके।
अब लगे हाथ सिंधिया गुट के ऐसे तेवर की भी विवेचना कर ही ली जाए। पता नहीं क्यों यह लग रहा है कि सिंधिया घराने के मौजूदा चश्मो-चिराग राहुल गांधी के आगामी कदम के बारे में सशंकित हो सकते हैं।
ऐसा होने के पूरे-पूरे कारण मौजूद हैं। गांधी ने सिंधिया को उत्तरप्रदेश की कमान दी। पार्टी वहां महज एक सीट जीत सकी।
मध्यप्रदेश में तो खुद सिंधिया अपने परिवार की परम्परागत सीट ही गंवा बैठे। पार्टी में और विशेषकर गांधी की नजर में सिंधिया का वजन क्या इससे घट जाएगा? कमलनाथ के साथ तो राहुल की नाराजगी दिख ही रही है।
इन हालात के चलते सिंधिया इस खतरे से भर गये हों कि प्रदेश अध्यक्ष पद तक उनकी पहुंच कहीं कमजोर हो न हो जाए। वरना तो सिंधिया खेमे के विधायक इतने उग्र होकर उस समय भी नहीं दिखे थे, जब प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए कांतिलाल भूरिया ने सिंधिया को निपटाने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी।
राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं निर्विवाद तथ्य का रूप ले चुकी हैं। किंतु उनका विस्तार एक चुनी हुई सरकार को नौटंकी के मंच में तब्दील कर देने तक हो जाए तो इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।
बीते विधानसभा चुनाव में किस्मत से ही सत्ता की चाबी कांग्रेस के हाथ लगी है, वरना जनता ने कांग्रेस या कमलनाथ को कोई बहुत स्पष्ट जनादेश तो नहीं दिया है।
लेकिन किस्मत से मिले इस मौके को अगर कांग्रेसी जनता को भूल कर अपने ही हित में भुनाने लगे तो फिर लोकतंत्र में तो जनता वाकई जनार्दन भी है।
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