वीरेंद्र भाटिया।
वह एक अतीव सुंदर लड़की थी। सुंदरता की दैहिक परिभाषाओ के पार वह जहीनी तौर पर भी सुन्दर थी और यह सुंदरता उस लड़की के साथ रह कर महसूस की जा सकती थी। चलते-चलते लड़की को देखना सुखद तो लगता था लेकिन लड़की के सम्पूर्ण सौंदर्य को देखने के लिए रुकना जरुरी था!
सौदंर्य वैसे देखने की चीज नहीं होती, महसूसने की होती है। 'रुकना' का मतलब लड़की को रुक कर देखने-ताड़ने से नहीं बल्कि लड़की को रुक कर जानने से है। भागते-भागते जानने से लड़की का कृत्रिम सौंदर्य ही नजर आता है। कमोबेश सभी लड़कियों के बारे में यह सत्य है कि लड़की के सौंदर्य को देखने के लिए उसके पास रुकना पड़ता है। तमाम पुरुष लड़की के साथ मात्र रहते हैं, लड़की के पास रुकता कोई ही है।
वह विनम्र थी लेकिन विनम्रता को मज़बूरी की तरह ओढ़ नहीं रखा था उसने, जैसे लड़कियों के लालन-पालन में घुट्टी की तरह मिला दिया जाता है कि उन्हें हर हाल में विनम्र तो रहना ही है। जहाँ उसे कठोर होना होता था वह होती थी और अपनी बात रखती थी।
वह शोध की पढ़ाई कर रही थी, या कहें कि अंतिम चरण में थी पढ़ाई। लेकीन सत्य यह भी है कि कोई पढ़ाई जो आपके भीतर प्रवेश कर जाती है वह अंतिम कभी नहीं होती। पढ़ाई चलती रहती है अंतिम साँस तक।
पढ़ाई क्या थी? वही जो बुद्ध ने की। और बुद्ध अंतिम साँस तक पढ़ाई में मशगूल रहे। अंतिम साँस तक खुद को जानते रहे, समझते रहे, अंतिम साँस तक वे जाने हुए से लोगो को लाभान्वित करते रहे। वह लड़की एक तरह से बुद्ध पर ही शोध कर रही थी। शोध का विषय था, "पुरुषो का अध्यात्म और स्त्रियों का अध्यात्म"। उसके गाइड ने आश्चर्य व्यक्त किया कि ये क्या है, स्त्रियों का अध्यात्म कोई अलग है? अध्यात्म तो एक ही है।
वह लड़की लेकिन अड़ गयी!।बोली, स्त्रियों का अध्यात्म अलग है यकीनन। और कहना चाहती हूँ की स्त्रियां बाय डिफ़ॉल्ट आध्यात्मिक होती हैं लेकिन पुरुषों को अध्यात्म की प्रैक्टिस करनी पड़ती है। वे अध्यात्म के नाम पर अधिकतर छल ही करते हैं क्योंकि प्रैक्टिस से अध्यात्म में जाना और बायडिफॉल्ट आध्यात्मिक होने में फर्क है।
पुरूष अध्यात्म के लिये अक्सर घर छोड़ते रहे और लौट-लौट आते रहे। स्त्रियाँ घर मे रही, भीतर से ऊर्जा लेती रही। पुरुष मृग बने रहे बाहर ढूंढते रहे। स्त्री को जब-जब खड़े होना था वह भीतर गयी पहले।
गाइड को बात कुछ जँची कुछ नही। लेकिन नई संभावना को देखते हुए गाइड ने अनुमति दे दी, लेकिन यह भी कहा कि मेरा ज्ञान यह नही कहता कि स्त्री का अध्यात्म अलग है पुरूष से। आपको ही सिद्ध करना है ये। लड़की के भीतर था यह विषय। उसे बस बाहर उड़ेलना था। वह कितना उड़ेल पाती है बस यहीं थोड़ा डर था। इंसान कई बार वह अभिव्यक्त नही कर पाता जो वह असल मे कहना चाहता है।
अध्यात्म को लेकर तो और विकट स्थिति है कि आजतक कोई नही कह पाया जो कहा जाना चाहिए। यही स्थिति प्रेम के सन्दर्भ मे भी है कि प्रेम को उस तरह अभिव्यक्त नही किया जा सका जैसा वह है। दरअसल अध्यात्म प्रेम का विस्तार रूप है। प्रेम जब व्यष्टि से समष्टि की ओर विस्तारित होता है तब वह अध्यात्म हो जाता है। कितनी ही स्त्रियाँ या कहें कि लगभग प्रत्येक स्त्री इस अवस्था की ओर बढ़ निकलती है लेकिन पुरूष की यात्रा अक्सर प्रयास से, नियोजित औऱ प्रायोजित होती है जो बाद में अक्सर मुखोटा साबित होती है।
लड़की पढ़ देख सुन और अनुभव कर रही थी कि पुरूष जैसे-जैसे बड़ा होता है वह काम्प्लेक्स होता जाता है, स्त्री सरल होती जाती है। अध्यात्म का हासिल अगर जागना है,जागृत होते जाना है तो स्त्री जैसे-जैसे उम्रदराज होती है वह अधिक जागृत होती जाती है, पुरुष सुषुप्त होता जाता है। ऐसा उसने कई स्त्री पुरुषो को देखकर महसूस किया।
लड़की प्रेम के अनुभव से गुजर चुकी थी। उसने महसूस किया कि प्रेम में जो उसके साथ तीन साल रहा वह दरअसल साथ रहा सिर्फ , साथ रुका नही। साथ रह कर देखने और साथ रुककर देखने का अंतर और दर्शन वह बेहतर समझ रही थी। लड़की जब संपूर्ण सौंदर्य को प्राप्त होती है तब वह अभिव्यक्त होने लगती है।
अभिव्यक्त होती स्त्री से प्रेम कर पाना इस मुल्क के पुरुष के लिए करीब-करीब असम्भव है। मूक स्त्री प्रेम का साधन बनी रहे तब तक प्रेम के नाम पर मलकियत बाजी होती रहती हैं। मूक खिलौना जिस दिन अभिव्यक्त होने के लिए अपनी भाषा अपने शब्द विकसित करने लगता है उसी दिन मिल्कियत का भाव उग्र होने लगता हैं। उग्रता अगर स्त्री अंगीकार कर ले तो प्रेम निभता भी रहता है।
लड़की की पढ़ाई पूरी होते ही शादी का दबाव था। घर में मां थी जो लडक़ी की सबसे अच्छी दोस्त थी। मां को देखते-पढ़ते वह बड़ी हुई थी। पिता सन्यासी हो गए थे। भरा पूरा बिजनेस छोड़कर एक दिन चले गए। अध्यात्म का रेशा-रेशा खंगाल लेने का ख्याल और बुखार इसीलिए लड़की पर चढ़ा रहा कि अध्यात्म ऐसी चीज क्या है जो सन्यासी बना देती है, घर छुड़वा देती है। क्यो आजतक कोई स्त्री घर छोड़कर सन्यासी होने नही निकली। क्या स्त्री आध्यात्मिक होना नही चाहती या वह है ही आध्यात्मिक।
मॉ ने कहा, मैंने कुछ लड़के नज़र किये हैं। तुम उंगली रखो। उसी को फाइनल कर देंगे। लड़की की शादी में कोई रूचि ना थी। उसके अध्ययन ने उसके भीतर ही एक ऐसी वृत्ति खड़ी कर दी थी कि जब तक पुरूष समानता को ओढने की बजाय उसे अपने आचरण में नही ढालता तब तक उसकी खोखली सुपरिओरिटी को ढोने का क्या फायदा। क्यों नरक बनाया जाए अच्छे भले जीवन को। उसने मां से कहा कई बार कि अपने पास रखले ना मां। क्यो भेजती है दूर। क्यो मेरी जिंदगी को नरक करती है तू। तुमने शादी करके कौन सा सुख भोगा जो मुझे शादी के नरक कुंड में धकेलना चाहती है।
मां इतना सुनते ही रोने लगती। शादी के लिए लड़की के भीतर ना जाने कितने सपने होते हैं। लेकिन ये लड़की शादी के नाम से ही बिफर जाती है। मां की चिंता बढ़ने लगी।
लड़की मां को किसी चिन्ता में देखना नहीं चाहती थी। उसने शादी के लिए हां तो कर दी लेकिन मां के आगे शर्त रख दी कि जो लड़का आप चुनेंगी उसे फाइनल करने से पहले उसके साथ लांग ड्राइव पर जाऊंगी ।
माँ ने हां कर दी। लड़की दरअसल ऐसा करके उन तमाम लड़कों की लिस्ट को निबटा डालना चाहती थी जिन्हें मां बार-बार उसके सामने रख देती थी।
लड़की अद्यात्म की भारी-भारी किताबें पढ़ती रहती, लड़की का सौंदर्य उसके दर्शन से और निखरता गया। उसके शब्दों उसकी भाषा में गजब का ठहराव था, गजब की दृढ़ता थी। कोई लड़का क्या ही ठहरेगा उसके सामने। औऱ भारतीय समाज मे ऐसी लड़की को वर कहाँ मिलेगा जो खुद वर पर भारी पड़े।
लड़की को एक दिन लिस्ट का पहला लड़का देखने का निर्देश जारी हुआ। लड़का नियत समय पर घर आया, लड़के के साथ कोई नही आया। घर में जबकि माता-पिता, भाई-भाभी थे। लड़के से बातचीत हुई।
लड़का पढा-लिखा और अमीर परिवार का था। लड़का दरअसल बड़े दिनों से लड़की को पाने वालों की लाइन में भी था। जैसे ही लड़की देखने का निमंत्रण मिला तो दौड़ा आया। लड़की ने लड़के को रिजेक्ट करने का मन बना लिया था। उसके मापदंड पर लड़का खरा नही था। लेकिन वह मां को एकदम इंकार नही कर सकती थी।
अगले ही दिन लोंग ड्राइव पर जाने का कार्यक्रम तय हुआ। लड़के के मन में लड्डू फूटने लगे कि अकेली लड़की लांग ड्राइव पर साथ होगी। वाओ।
अगले दिन तय समय पर लड़के का फ़ोन आ गया कि नीचे ही मिलना, ताकि समय बर्बाद ना हो। लड़की ने मां से कह दिया कि यह लड़का आपका दामाद नही बनेगा। मां ने पूछा क्यों । लड़की ने कहा लौट कर बताती हूं।
लड़के ने नीचे आकर हॉर्न दिया, ऊपर नही आया। लड़की ने मां को नीचे जाने के लिये मना कर दिया कि तुम ऊपर से ही देखना। लड़का ड्राइवर की सीट पर बैठा रहा, लड़की को रिसीव करने की लियाक़त भी नही दिखाई उसने।
लड़की की मां हैरान-परेशान कि लड़की को पता नही लड़का पसंद आएगा भी या नही। इस तरह मीन मेख निकालती है जैसे सब्जी खरीद रही हो। मां भूल रही थी कि लड़की भी तो ऐसे ही चुनते रहे हैं लड़के वाले।
गाड़ी में बैठते ही लड़के ने लड़की को शरारत भरी नजरों से देखा और गाड़ी चला दी। लड़की ने पूछा किधर जाएंगे हम। लड़के ने ऑडियो ऑन किया और गीत गुनगुनाने लगा। लड़की ने फिर पूछा, किधर जाएंगे, बताओ तो सही। लड़के ने कहा सरप्राइज है।
लड़की असहज होने लगी। असहज इसलिए नही थी कि पता नही कहाँ ले जाए बल्कि इसलिए भी थी कि अब तक हुए आचरण मे उसे कुछ भी ठीक नही लग रहा था। पढ़ा लिखा होना क्या होता है वही तो लड़की की पढ़ाई का विषय था। वही तो पढ़ाई थी कि आपकी डिग्रियां
आपके आचरण में कहां तक उतरी। वह गाड़ी में बज रहे म्यूजिक से भी असहज हो रही थी। आख़िरकार उसने अपना पूर्व नियोजित पैंतरा चला। उसने अपनी सहेली को मिस कॉल दी। उधर से फोन आया। मेरे पिता जी को दिल का दौरा पड़ा है, तू जल्दी आ आजा प्लीज़। लड़की ने लड़के को लांग ड्राइव कैंसिल करने के लिए कहा, सॉरी कहा और वापिस आ गयी।
लांग ड्राइव कैंसिल करने के लिए भी उसे काफी जदोजहद करनी पड़ी। लड़की आखिरकार घर लौट आयी। मां ने कुछ नही पूछा। बेटी ने कहा लड़का कैंसिल। मां ने कहा ठीक है। लेकिन एक बात बता। क्या लड़के ऐसे फाइनल किये जा सकते हैं।
क्या प्रेम भी ऐसे हो सकता है कि सब खूबियां होंगी तभी होगा। कोई न कोई कमी तो मिलेगी सभी मे बेटी। लड़की का पैमाना लेकिन अलग था। वह ऐसे नही सोच रही थी। उसने मां की ठुड्डी पकड़कर कहा, मां, उस लड़के में मालूम है क्या कमी थी।
मां लड़की को तकती रही। लड़की बोली, उस लड़के में कमी यह थी कि वह साथ बैठी लडक़ी को मानव नही समझ रहा था। लड़की उसके लिए खिलोना थी जिसके लिए कोई आदर कोई उपस्थिति का भाव उसके भीतर नही था। ज्यादातर पुरूष इसी भाव से ग्रस्त हैं मां। इसीलिए ज्यादातर लड़कियां घुटन मे हैँ। खिलोना बनने की नियती को प्राप्त हैं।
मां की आंख भर आयी। अपनी ठुड्डी पर पड़ी बेटी की उंगलियों को गालों पर फिराते हुए उसने उंगलियां कस कर पकड़ लीं औऱ एक लंबा सांस भीतर लिया। चल खाना खा ले। आराम करले थोड़ा। बेटी ने खाना खाया और पढ़ने लगी। उसने पल में सुबह की यात्रा औऱ वाकया झटक दिया औऱ आगे बढ गयी।
लड़की ने रिसर्च पेपर जमा करवा दिए। उधर मां ने एक औऱ लड़के को घर बुला लिया। लड़के को निर्देश था कि घर के किसी सदस्य के साथ ही आना। शादी रोमांच नहीं दायित्व भी है। दायित्व लेते हुये दिखना भी चाहिये।
शादी पर इतने लोग इसीलिए बुलाये जाते हैं कि लड़का-लड़की रोमांच से आगे जिम्मेदारी के बोध से भरें कि अब वे शादी की जिम्मेदारी उठाने का वचन इतने लोगों की उपस्थिति में दे चुके हैं। इस बार लड़की के दांव उसकी मां ही काट रही थी। दरअसल मां भी दर्शन पढ़ी बेटी से बहुत कुछ सीख रही थी।
लड़का यह भी अच्छा था। पढा लिखा था। अमीर था। सेटल था लेकिन ये तो लड़के की बाहरी खूबियां हैं। लड़का उसे भीतर से अमीर चाहिए था। लड़के के साथ उसकी मां आयी थी। लड़की की मां ने जैसे-तैसे झिझकते हुए लड़के व उसकी माँ से कहा कि लड़का-लड़की अगर मिल लें तो ज्यादा ठीक रहेगा। लांग ड्राइव का कार्यक्रम तय हुआ।
इसबार लडक़ी की मां को लग रहा था कि लड़का पसन्द आएगा। लड़का अगले दिन आया। ऊपर तक आया, मां को चरणवन्दना कहा और लड़की को लिवा ले गया साथ। मां ऊपर खड़ी देखती रही। लड़के ने लड़की के लिए खिड़की खोली। उसे आदर से बैठाया और फिर ड्राइविंग सीट पर बैठा। लड़के ने लड़की से पूछा, आपको संगीत पसंद है?
लड़की ने कहा हां है तो। क्या पसंद है। लड़की ने जगजीत कहा । लड़के ने जगजीत सिंह की गजल लगा दी। कहाँ चलें। लड़के ने ही पूछा।लड़की ने इस बार रुट औऱ लक्ष्य तय किया हुआ था। उसने कहा इधर से एक रास्ता है वहाँ से होते हुए हम झील पर चलेंगे। लड़के ने ओके किया।
लड़की ने जो रास्ता बताया वह एक मलिन बस्ती के बीच मे से गुजरता था। चारों तरफ गन्दगी पसरी थी। नँगे बच्चे सड़क के बीच साइकिल के पुराने टायर हांक रहे थे। सुअर कुत्ते औऱ बच्चे एक साथ एक जैसे लग रहे थे। गाड़ी रेंग रेंग कर चल रही थी। लड़के के चेहरे पर घिन्न उतरने लगी। लड़की ने लड़के का चेहरा पढ़ने की कोशिश की लेक़िन ठीक से नही पढ पाई कि यह नफरत थी, तरस था या चिंता थी।
लड़की ने लड़के से कहा, यहां एक चाय वाला है, अच्छी चाय बनाता है, पीएंगे? लड़के के चेहरे की घिन्न जुबान पर आ गयी। यहां? द वर्स्ट प्लेस दिस इज। लड़की को थोड़ी निराशा हुई।
चमचमाती बड़ी गाड़ी गन्दगी मे जैसे जैसे आगे बढती गयी लड़के के चेहरे पर घिन्न बढती गयी। एक बच्चे का कीचड़ सना टायर लड़के की गाड़ी मे ड्राइवर सीट वाली साइड आ टकराया। लड़के ने बच्चे को जोरदार गाली दी। गाली के साथ ही लड़की का दिल बैठ गया। लड़की ने बहाना बनाया औऱ वापिस लौट आयी ।
मां ने पूछा इसको क्यो रिजेक्ट किया। लड़की ने कहा मुझे भीतर से सुंदर लड़का चाहिए। कृत्रिम संस्कार नही चलेंगे। मां, संस्कार हो और प्रेम दया का भाव ना हो ऐसा पुरुष सबसे अधिक खतरनाक होता है।
मां ने माथा पीट लिया। बोली तुम्हे प्यार करेगा इतना जानती हूँ। लड़की बोली प्यार की ही कन्फ्यूजन है माँ कि एक पलड़े में किसी के लिए नफरत गुस्सा घृणा और दूसरे पलड़े में प्रेम। दोनो चीजे एक साथ कैसे निभा लेते हैं लोग।
प्रेम में कोई होगा तो ही उसके अद्यात्मिक होने की संभावना है और हम दरअसल प्रेम ही चिन्हित नही कर पाते, लस्ट को ही प्रेम समझते रहते हैं उम्र भर। संस्कार तो ओढ़े जा सकते हैं मां लेकिन भीतर की मिठास का क्या।भीतर से तो वह खाली ही है।
अब प्यार की फिलॉसफी भी पढ़नी पड़ेगी तुमसे? मां ने टोका । लड़की हंस पड़ी। मां की आंखों मे आंखे डाल दी। पूछा, मां प्यार अधिकार है या जिम्मेदारी। मां झुंझलाने लगी। कैसी होती जा रही है तू। प्रेम प्रेम है इसमे अधिकार और जिम्मेदारी की बात कैसे आ गयी।
लड़की बोली, प्रेम प्रेम ही रहना चाहिए मां। लेकिन एक समय के बाद प्रेम को पुरुष अधिकार की तरह इस्तेमाल करने लगता है और स्त्री जिम्मेदारी की तरह। जैसा प्रेम स्त्री निभाती है वैसा पुरूष निभा ले तो स्त्री को कभी कोई शिकायत ना रहे।
मां थोड़ी और झुंझलाई। ऐसा कोई पुरुष जो तेरे हिसाब से बना हो वह इस मुल्क में नही बनता। यहां ऐसे ही पुरूष बनते हैं। तुम तो पता नही क्या चाहती हो।
लड़की ने कहा। मुझे जागा हुआ लड़का चाहिये। सुषुप्त नही चाहिये। स्त्रैण लड़का चाहिए जिसमें जागने की संभावना का बीज हो। मुझे वह लड़का चाहिए जिससे तमाम चीजे तमाम साधन छीन लो तब भी वह सहजता में रहे। सहज वही हो सकता है माँ जिसकी भीतर की यात्रा शुरू हो चुकी हो। मां इस बार अजीब मनोभाव मे घिर गई।
बोली , पिता को तलाश ले, वह आध्यात्मिक होने निकले थे, उनमे भी आये क्या ये गुण। मैं दावे से कहती हूं कि नही आये होंगें । किसी युवा लड़के से कैसे उम्मीद करती हो कि वह सहज सरल और पारदर्शी हो।
बेटी सहज बनी रही। उसने कहा, मां, पिताजी में निश्चित ही ये गुण आये नही होंगें। क्योंकि अध्यात्म के लिए पहले स्त्रैण होना पड़ता है औऱ स्त्रैण होना मतलब भागना नही है। पलायन तो वही करता है माँ जिसका अंतस खाली है, बाहरी लाव लश्कर को अपना मानता है।
ये जो धर्म है ना मां यह भी बाहरी लाव लश्कर है। धारण करना तो बाहरी ही होता है। और धर्म का मतलब तो धारण करने से ही है। धार्मिक होना अद्यात्मिक होने की पहली बाधा है। उसी से ही नहीं निकल पाता तो अद्यात्मिक क्या होगा आदमी
मां ने सत्संग को विराम देते हुए बात बदली। अच्छा बता ऐसा लड़का कहाँ मिलेगा तुम्हे।
लड़की जानती थी कि नही मिलेगा। लेकिन इससे कम भी क्या लेना जब जीवन का दर्शन इतना समझ लिया हो।
एक दो लड़के लड़की ने औऱ देखे लेकिन वे भी बस्ती पार नहीं हुए। लड़की इस आश्चर्य में थी कि तमाम लड़के इस प्रारंभिक राउंड में ही फेल हो गए थे।
लड़की की किताबी पढ़ाई पूरी हुई। डिग्री ऑनर हो गयी। किसी बड़े अद्यात्मिक संस्थान में उसने नौकरी जॉइन कर ली लेकिन जब ये जाना कि यह तो अध्यात्म की दुकान है, वह वापिस लौट आयी। लेकिन वहां उसने बहुत सारे लोगों को देखा।
सभी उस संस्थान में सेवा करने, सुमिरन करने को अद्यात्म कह रहे थे। उन्हें समझाया गया था कि कोई ब्रह्म मुहूर्त होता है, उस वक्त उठकर ईश्वर का सुमिरन करना चाहिए। तमाम लोग नींद से उचाट आधे बीमार हो गए थे। कुछ बता रहे थे कि पहुँचना होता है कहीं लेकिन पहुंचा कोई नही था, ऐसा कोई आंकड़ा उनके पास नही था कि कितने लोग वहां पहुंचे जहाँ पहुंचने का भ्रम फैलाया गया था।
अद्यात्म उन्हे धारण करवाया जा रहा था लेकिन अद्यात्म बाहर से कैसे भीतर डाला जा सकता है यह किसी के विचार में ना था। विचार को रोक देना, मार देना अद्यात्म कहा जा रहा था लेकिन वे यह नही सोच रहे थे कि नानक बुद्ध कबीर तो विचार की ही क्रांति लेकर आये।
लड़की ने जब संस्थान छोड़ा तो बात वहां के बड़े गुरुजी के पास गई जो वहां का ईश्वर था।
गुरू जी ने लड़की को बुलाया, संस्थान छोड़ने का कारण पूछा, लड़की ने दृढ़ता से अपना पक्ष रखा कि आप अद्यात्म से दूर ले जा रहे हैं लोगों को। आप उनमे अद्यात्म नही बल्कि अद्यात्म का भ्रम,अद्यात्म का दम्भ भर रहे हैं। गुरुजी समाज को दिखाना चाहते थे कि अद्यात्म पर रिसर्च करने वाले भी उनके यहां नौकरी करते हैं।
इससे उनकी दुकान की ब्रांडिंग हो रही थी लेकिन लड़की उनके दर्शन से एकमत नही हुई।
कहा ना, लड़की विनम्र तो थी लेकिन अपनी बात मजबूती से रखती थी। वह संस्थान छोड़ आई। लड़की एक दिन उसी मलिन बस्ती में गयी जिस बस्ती से कोई लड़का गुजर कर पार नही हो सका जो उससे शादी करने आये थे।
उसने देखा एक शामियाना टँगा है और एक डॉक्टर वहाँ के लोगों का चेकअप कर रहा है । लड़की वहां रुक गयी। गन्दे बच्चे उसके आसपास मंडरा रहे थे, स्त्रियाँ पुरूष अपना चेकअप करवाने इकठ्ठा थे। लड़की ने बैनर ढूंढने की कोशिश की कि किस हस्पताल से आया होगा डॉक्टर। औऱ ऐसी बस्ती में क्यो आया जहां लोगों के पास रोटी के लिये पैसे नही। यहां से कैसे चलेगी इसकी दुकान।
मेडिकल कैम्प तो डॉक्टरों का विज्ञापन करने का तरीका है। लड़की को लेकिन कोई बैनर टँगा हुआ कहीं नही मिला। बहुत देर तक वह डाक्टर को देखती रही। बहुत देर तक डाक्टर अपने काम मे मशगूल रहा।
लड़की को लगा कि वह इस डाक्टर को बरसो से जानती है। मनोविज्ञान बताता है कि किसी अंजान व्यक्ति को देखकर आपको ऐसा लगे कि आप उसे करीब से जानते हैं तो समझिए आपकी तासीर उससे मिलती है।
लड़के लडकी में निभने की पहली शर्त तो यही है कि तासीर मिलनी चाहिए लेकिन प्रोफेशन डिग्री अमीरी स्टेटस जाति बिरादरी औऱ ना जाने क्या क्या मिलाए जाते हैं लेकिन तासीर कभी नही मिलाई जाती। तासीर मिलने का परिणाम यह होता है कि युगल एक दूसरे की उपस्थिति को सम्मान देते नजर आते हैं उम्र भर।
लड़की ने डॉक्टर साहब को हेलो कहा। डॉक्टर ने गर्दन ऊपर उठायी। मलिन बस्ती में अतीव सुंदर लड़की? लड़का लड़की पहली बार मलिन बस्ती में तो नही ही मिलते। वे बेशक किसी शादी समारोह में मिलते हैं, किसी बाज़ार सड़क माल में मिलते हैं।
यह तो अदभुत घटना थी। लड़की ने कहा क्या हम पहले मिले हैं ? डॉक्टर ने कहा मुझे लगता है कि मिले है लेकिन याद नही आ रहा। लड़की ने भी याददाश्त पर जोर डाला लेकिन स्मरण नही आया। आप किस हॉस्पिटल से हैं। लड़की ने पूछा।
किसी होस्पिटल से नही, स्वतंत्र हूँ। आप बैठिए ना, खड़ी क्यों हैं। यहां की चाय पीना पसंद करेंगी?
लड़की के भीतर जैसे ठंडी फुहार का कोई स्रोत जिन्दा हो गया। वह बोली, निश्चित ही पसंद करेंगे। लड़की दरअसल उस संस्थान की नौकरी छोड़ने के बाद इस बस्ती में काम करना चाहती थी।
बच्चों स्त्रियों पुरुषों सब को पढ़ाना चाहती थी। इसलिए बात करने का कोई स्पेस ढूंढ रही थी। जब सब ही यहां इकठे मिल गए तो चाय के बहाने कुछ देर रुका जा सकता था। लड़की अभी अपने पत्ते खोलना नही चाहती थी। वह डॉक्टर को जान लेना चाहती थी कि उसका आर्थिक हित महत्वपूर्ण है या सामाजिक।
लड़की ने चाय की सिप भीतर की। डाक्टर ने भी चाय का घूंट लिया। लड़की डाक्टर की डिग्री डॉक्टर की दक्षता को लेकर संशय में थी।
लड़की जानना चाहती थी कि डॉक्टर किस मर्ज के विशेषज्ञ डाक्टर है। कोई डिग्री डिप्लोमा भी है क्या? वैसे भी इस बस्ती में आजतक तो कोई डिग्रीधारी डॉक्टर आया नही। लड़की ने पूछा, किस मर्ज पर पकड़ है आपकी?
डॉक्टर बोला, याद आया हम कहां मिले थे।
लड़की ने आश्चर्य मिश्रित भाव से डाक्टर को देखा। लड़की की आंखों में उत्सुकता थी।
आप जिस अद्यात्मिक संस्थान में हैं उस मे थोड़ा समय मैंने भी सेवा दी है। वहां आपको बोलते सुना था मैंने।
लड़की ने ओह वाली मुद्रा में मुंह खोला। अब मैंने छोड़ दिया है वह संस्थान।
क्यो? डॉक्टर ने विस्मय से पूछा।
बस वैसे ही।मुझे नही जची वह संस्थान। अच्छा। लेकिन आपको तो ठीक ठाक पे करते थे, फिर क्यो छोड़ दिया।
पे मेरा कन्सर्न नही है। काम में संतुष्टि, काम करने को स्पेस, खुद को लगे कि आपने कुछ डिलीवर किया है। डिलीवर करना ग्रहण करने से ज्यादा सुखमय है डाक्टर साहब।
डाक्टर लड़की को एकटक देखता रहा। यह क्या कह दिया लड़की ने। इतना बड़ा दर्शन तो खुद वह गुरु नही जानता जो उस संस्थान को चला रहा है।
आपने बताया कि आपने वहां सेवा दी है। फिर आपने क्यो छोड़ दिया। लड़की ने प्रतिप्रश्न किया।
मुझे भी ऐसा ही कुछ लगा था जो आपने महसूस किया। वैसे भी मैं विजिटिंग डॉक्टर था, फुल टाइम नही। डॉक्टर ने संक्षिप्त जवाब दिया।
आपने बताया नही आप किस मर्ज के विशेषज्ञ डॉक्टर हैं। लड़की अपने सवाल पर खड़ी रही।
मैंने रोग प्रतिरोधक क्षमता पर रिसर्च की है। अमेरिकी सरकार ने मुझे सम्मानित किया इस रिसर्च के लिए। मैं छह महीने अमेरिका रहकर खूब पैसे कमाता हूं।
छह महीने अपने देश आकर सब खर्च देता हूँ। मैं ऐसी ही किसी बस्ती में जन्मा था। मुझे रह-रहकर लगता था कि हम गरीब लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता अमीर लोगो से कहीं ज्यादा बेहतर होती है। रूखा-सूखा खाकर भी हम रोग से लड़ने की शक्ति पैदा कर लेते हैं। फिर जब बड़ा हुआ तो समझ आया कि कष्ट आपका सबसे बड़ा कवच है। वह इसीलिए है ताकि आप मजबूत हो सकें।
मज़बूती दरअसल भीतर का मामला है लेकिन लोग बाहरी साधनों को मजबूती मानते हैं। कष्टों में बढ़ते-बढ़ते मैं एक दिन डाक्टर बन गया। मैंने रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने का ऐसा इंजेक्शन बनाया जो इंसान के शरीर मे इंजेक्ट कर दो तो उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता 20 साल के लिये उन्नत हो जाती है। मेरी इस खोज से मुझे बेशुमार पैसे मिलते हैं।
उन पैसों से दवाई इंजेक्शन लेता हूँ और मेरे मुल्क के लोगो मे बांट देता हूँ। खुद लगाता हूं ताकि कोई पढ़ा लिखा दुकानदार इनके हक को बीच मे हड़प ना ले।
लड़की जड़ हुई डॉक्टर को देखती रही। डाक्टर ने बताया कि कष्ट आपका कवच बन कर आता है। अद्यात्म का यही तो दर्शन है कि जिसे दुख को देखना आ गया वही पार हुआ।
चाय खत्म हुई। लड़की ने डाक्टर का फोन नंबर लिया औऱ लौटने लगी। लौटने से पहले लड़की ने डाक्टर से पूछा, रात कहाँ ठहरेंगे?
इन्ही लोगो के बीच। डाक्टर ने सहजता से जवाब दिया
लड़की ने विनम्रतापूर्वक कहा, मेरी माँ आपसे मिलकर बहुत खुश होगी। आज आप हमारे मेहमान बनिये प्लीज।
डॉक्टर ने थोड़ी ना नुकर के बाद हां कर दी। डाक्टर जानता था कि रहस्यवाद पर लड़की की बड़ी बारीक स्टडी है । कुछ सीखने को मिलेगा। थोड़ा काम औऱ बाकी था, डॉक्टर ने कहा, निबटा लेते हैं फिर साथ ही चलेंगे आपके।
डाक्टर बच्चों स्त्रियों पुरुषो वृद्धों की जांच करता रहा दवाई बाँटता रहा। देना यानी त्याग करना कैसा दैवीय अनुभव होता है कि आपका ओरा आपका व्यक्तित्व खिल उठता है। डाक्टर एक बार भी नही झुंझलाया एक बार भी गुस्सा नही हुआ। अन्यथा तो भारी भरकम परामर्श फीस लेकर भी बिफरे रहते हैं डॉक्टर। लेने और देने में यही अंतर है। डाक्टर ने काम समेटा अपना झोला लटकाया और तैयार हो गया।
लड़की ने पूछा, दवाईयों का बॉक्स नही लेंगे साथ, डॉक्टर बोला, नही, यहीं रहेंगी दवाई।, कल फिर यहीं तो आना है। हजारों रुपये की दवाई बस्ती वालों के हवाले कर डॉक्टर लड़की के साथ हो लिया। लड़की समझ गयी डाक्टर की गहराई। लड़की की गाड़ी बाहर सड़क पर खड़ी थी। डॉक्टर ने झोला गोद में लिया, गाड़ी में बैठ गया। लड़की ने गाड़ी स्टार्ट की। पूछा, संगीत पसन्द है आपको?
डाक्टर बोला, किसे नही होगा पसन्द। लगाइए।
क्या सुनेंगे
अपनी पसंद सुना दीजिये। जो आपको अच्छा लगता है
लड़की ने अपनी पसन्द का सूफी संगीत लगा दिया। डॉक्टर संगीत को आंख बंद करके भीतर भरने लगा। लड़की ने पहली बार किसी की मौजूदगी को महसूस किया। उसने संगीत औऱ डाक्टर के बीच जुड गए तारतम्य को डिस्टर्ब नही किया। लेकिन डाक्टर ने जल्द अपने आप को संगीत से डिटैच किया। वह लड़की को देखकर मुस्कुराया।
लड़की ने खामोशी तोड़ी , पूछा, इतनी महंगी दवाईयां बस्ती वालों के पास क्यो छोड़ दी आपने। उन्होंने बेच खायी तो। लड़की यह सवाल करना नही चाहती थी लेकिन कोई और सवाल उसे सूझ नही रहा था।
डॉक्टर बोला, बस्ती वाले ईमानदार नही हैं मैं जानता हूँ लेकिन ये बेईमानी उसी से करते हैं जिन्हें इनकी ईमानदारी पर विश्वास नही।
लड़की गूढ़ता को महसूस कर रही थी। कोई ऐसा आदमी मिला जिससे बात करके बात में वजन महसूस हो।
डॉक्टर बोला, कोई विश्वास तो करे इनपर।
लड़की ने बात बदली, आप कोई ऐसी योजना क्यो नही देते सरकार और समाज को कि ऐसी बस्तियां रहें ही नां। इनका पुनर्वास हो जाये। आपका कद बड़ा है। सरकार विचार तो करेगी आपके सुझाव पर।
डाक्टर हंस पड़ा, बोला, आपको एक तल्ख सच्चाई बताता हूँ, ना सरकार चाहती ना समाज क़ि गरीबी मिट जाए। कोई सरकार सोच लीजिये, कोई भी। किसी ने नही हटाई गरीब बस्ती। किसी ने नही किया पुनर्वास।हां अधिग्रहण हुआ तो अलग बात है।
लड़की ने आश्चर्य किया, क्यों।
क्योंकि सरकार को सरकार गरीब ही बनाता है। और रही समाज की बात तो उसने अपने बच्चों को डराने के लिये गरीबी जिन्दा रखी हुई है कि ऐसा होता है गरीब, देख लो,।नही तो पढ लो, प्रतियोगिता करो। समाज तो अन्दर से खुद इतना असुरक्षित है इतना डरा है कि खुद की सम्भाल में बुरी तरह भटक गया है। वह मलिन बस्तियों पर सिर्फ भाषण देगा, लेख लिखेगा, स्टोरी करेगा। करेगा कुछ नही। करने की औकात नही समाज की। खुद भूखा नँगा है समाज। कतरनों से ढक रखी है नंगई।
डॉक्टर घर आ गया, मां ने देखा बेटी आज किसी पुरुष की कम्पनी में खुश थी। डाक्टर बेटी और मां देर तक बातें करते रहे। मां ने दोनों की गूढ़ बातों की गहराई देखी। लड़की जैसा लड़का बताती थी, वैसा लड़का सच में होता है, मां देखकर खुश हो रही थी।
देर तक बात करते किसी ने किसी की जात नही पूछी, किसी ने किसी का धर्म नही जाना, किसी ने किसी का खानदान नही जाना। जो कहा गया जो सुना गया वह सब अद्भुत था, सब लाजवाब था। मां ने बेटी की आँखों मे पहली बार अलग सी चमक देखी।
डॉक्टर की लड़की के अद्यात्म वाले विषय पर गहरी रुचि थी। देर तक डाक्टर ने लड़की को कानों से देखा आंखों से सुना। देर तक डाक्टर ने लड़की को महसूस किया। देर तक दर्शन परिष्कृत होते रहे। दोनो भी एक दूसरे के प्रति स्नेह और सम्मान से परिपूर्ण होते रहे।
देर तक दूर तक डाक्टर और लड़की साथ चले साथ बहे। ऊर्जा प्लस ऊर्जा ने दोनों के व्यक्तित्व को और निखारा। दोनो ने मिलकर बस्तियों में काम किया। बस्तियों में ऊर्जा बिखेरी। झुके हुए लोगों को सीधे खड़ा होना सिखाया। रेंगते हुए लोगों को चलना सिखाया। सख्त समय मे विनम्र रहे, इरादों पर दृढ़ रहे। चलते-चलते बहते रहे दोनों, बहते-बहते साथ चलते रहे।
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