ममता यादव।
अब जरूरत और समय दोनों आ गया है कि अपराधों की कैटेगरी के हिसाब से अदालतों में सुनवाई हो। हमारा सिस्टम इतना सड़ चुका है कि दरिंदगी की हद पार करने वालों के लिये भी बचने के सौ रास्ते हैं।
वह भी उस स्थिति में जब अपराध क़ुबूल तक कर लिया गया हो। उदाहरण इंदौर के एक मामले में राष्ट्रपति तक ने दया याचिका खारिज कर दी पर एक एनजीओ ने पुर्नविचार याचिका लगाकर मामला अटका दिया। फांसी की सजा से कम कुछ नहीं होना चाहिए इन मामलों में।
भोपाल वाले मामले में बच्ची को मारने के बाद उसके शव से बलात्कार। कठुआ में 6 साल की बच्ची के साथ जो किया गया कितनी बर्बरता रूह कांपती है। वह भी 7-7 वयस्क अधेड़ों द्वारा।
जाहिर है इन्हें उकसाने का लिये किसी आधुनिक माध्यम की जरूरत नहीं। उसकी तकलीफ का अंदाजा फांसी की सजा न देने की पैरवी करने वाले नहीं लगा सकते।
अब वक्त आ गया है कि इस तरह के मामलों में निचली अदालतों के फ़ैसलों को मान्य किया जाए। न कि सुप्रीम कोर्ट फिर राष्ट्रपति तक जाने के रास्ते बनाये रखे जाएं।
एनजीओ वाले जरा गौर करें कि वे पैरवी कर किसकी रहे हैं। हैरानी तो इस बात की है कि उस इंसान के परिवार वाले और एनजीओ जैसे लोग इनका साथ दे कैसे सकते हैं।
इंदौर में 5 महीने की बच्ची से रेप करके उसे ऊपर से फेंका गया था। 39 मामले फांसी के ऐसे हैं जो बाद में 30 साल 25 साल की उम्रकैद में बदल गए। जेलों में तो जीवनयापन का पर्याप्त इंतजाम है।
भोपाल में भी आरोपी शादीशुदा था। भोपाल की उस बच्ची की माँ की गुहार सुनिए। उफ्फ! सिस्टम के कातिल तो मरी हुई बच्चियों और उनके परिवार को रोज ही तिल-तिल मारते हैं।
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