अजय बोकिल।
तो क्या क्रिकेट इस देश में ‘एचीवमेंट किलर’ भी बन गया है? उसके जलवे के आगे कोई भी कामयाबी फीकी है? ये सवाल देश की दो स्वर्ण धाविकाओं हिमा दास और दुती चांद के उस मार्मिक बयान के बाद उठा है, जिसमें दोनों ने कहा कि उफ्! क्रिकेट वर्ल्ड कप के शोर में हमारी उपलब्धियां दफन हो गईं।
देश की इन दो गर्व करने लायक बेटियों के बयान ने इस बहस को भी नए सिरे से हवा दे दी है कि आखिर सही अर्थों में विश्व विजेता किसे माना जाए?
उंगलियों पर गिनने लायक 10-12 देशों से मुकाबला कर ट्राॅफी जीतने वाले को या सौ डेढ़ सौ देशों के बीच घनघोर प्रतिस्पर्द्धा के बाद एक गोल्ड मेडल हासिल करने वाले को?
यह कड़वी सच्चाई है कि बाजार, भारतीयों के मानस और अपेक्षाकृत कम शारीरिक श्रम वाला खेल क्रिकेट इस देश का ‘धर्म’ बन गया है।
चार दशक पहले तक लोग हाॅकी को भारत का राष्ट्रीय खेल समझते रहे थे, लेकिन बाद में भारतीय क्रिकेट टीम की कई सफलताओं और बाजार की सक्रियता ने क्रिकेट को देश का नंबर वन गेम बना दिया। टीवी आने का सबसे ज्यादा फायदा भी क्रिकेट को हुआ। वहां पैसे की बरसात होने से युवाओं का रूझान भी क्रिकेट की तरफ ज्यादा होने लगा।
क्रिकेट में हमने कई वैश्विक उपलब्धियां अर्जित कीं और ‘सचिन तेंडुलकर’ के रूप में ‘क्रिकेट का (जीता-जागता) भगवान’ भी हमने ही दिया। इस दीवानगी का नतीजा यह हुआ कि क्रिकेट की हार-जीत एक राष्ट्रीय नशे में तब्दील हो गई।
अगर भारतीय क्रिकेट टीम जीतती है तो जश्न का जुनून छा जाता है और क्रिकेट टीम हारती है तो कौमी मातम का माहौल बन जाता है।
यकीनन यह किसी भी खेल से ‘मोहब्बत की अति’ है। इसलिए कि क्रिकेट ही कोई अकेला खेल नहीं है। इसलिए भी कि उसमे मनुष्य के जीतने की संकल्प शक्ति और जीवटता की पराकाष्ठा उस रूप में दांव पर नहीं लगती, जिस तरह एथलेटिक्स, फुटबाॅल, टेनिस या हाॅकी में लगती है।
यूं क्रिकेट भी फिटनेस, धैर्य, कौशल और ताकत मांगता है, लेकिन उसकी तासीर आयुर्वेदिक दवा की तरह होती है। क्रिकेट में ‘करो या मरो’ के क्षण कम ही आते हैं। जबकि अन्य कई खेलों, खासकर एथलेटिक्स में तो इंसान की जीवटता हर घड़ी दांव पर लगी महसूस होती है।
हिमा दास और दुती चांद का असल दर्द यही है। हिमा ने अलग-अलग अंतराष्ट्रीय स्पर्द्धाओं में 19 दिनों में पांच गोल्ड मेडल जीते तो दुती चांद ने वर्ल्ड यूनिवर्सिटी गेम्स में स्वर्ण पदक अपने नाम किया। ऐसा करने वाली वह पहली भारतीय खिलाड़ी है। लेकिन दोनों बेटियों के स्वर्ण पदकों की चमक विश्व कप क्रिकेट के सेमीफाइनल में भारत की हार में गुम होकर रह गई।
मीडिया ने भी उनका कुछ खास नोटिस नहीं लिया। यह कुछ वैसा ही था कि घर में बेटी के जन्म की खुशी पर नानी की मौत का मातम भारी पड़ जाए। देश का मानस असमंजस में था कि दुती और हिमा की हिमालयी कामयाबी पर ताली बजाएं या कोहली की टीम की मात पर मर्सिया पढ़ें।
अब सवाल यह कि खेलों में किसकी मेहनत का मोल ज्यादा है? हिमा और दुती दोनों समाज के बेहद निचले तबके से आई हैं और अपने दम पर दुनिया में भारत का डंका बजा रही हैं। उनकी यह शिकायत जायज है कि ‘सिर्फ 11 सेकंड दौड़ने के लिए हम रोज 8-8 घंटे मेहनत करते हैं।‘
इसके बाद भी जब मेडल हाथ आने से चूक जाता है तब शरीर तो क्या, आत्मा को भी इतना कष्ट होता है कि क्या कहें और किससे कहें? इससे भी ज्यादा पीड़ा दायक है मेडल जीत लेने के बाद भी अपनो से मिली उपेक्षा।
गोया देश की नजरों में हमारी मेहनत का कोई मोल ही नहीं है। मिला क्या और न मिला क्या? यानी मेडल चूकने पर कोई आंसू नहीं बहाता और मिलने पर कोई पीठ भी नहीं थपथपाता।
यही सबसे बड़ी विडंबना है।
गैर क्रिकेट खिलाडि़यों के साथ चाहे-अनचाहे किया जाने वाला सौतेला व्यवहार है। वैसे तो यह बर्ताव क्रिकेट खेलने वाली बेटियों के साथ भी होता है, लेकिन फिर भी क्रिकेट की रूद्राक्ष माला उनके गले में पड़ी रहती है। हिमा और दुती को शायद वह भी नसीब नहीं है। उनके भीतर खदबदाती ऊर्जा और जीतने की अदम्य इच्छा भी देश की जीत- हार के जज्बे से वैसी कनेक्ट नहीं करती, जैसे कि क्रिकेट एक छक्का, एक रन आउट या एक विकेट करता है।
यह बात भी अहम है कि क्रिकेट दुनिया में कुल एक दर्जन देश खेलते हैं। वह सही मायनो में वैश्विक भी नहीं है। वह सातों महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। फिर भी हमारे देश में लोकप्रिय शायद इसलिए है कि वह हम भारतीयों की तासीर के अनुरूप है। इसके विपरीत दर्जनों देशों से कड़े मुकाबले के बाद एकाध मेडल हासिल करना क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीतने से ज्यादा चुनौतीपूर्ण और कठिन है।
क्रिकेट के दीवानों को इससे मिर्ची लग सकती है। लेकिन दूसरे खेलो में जितनी निर्मम और बहुआयामी प्रतिस्पर्द्धा है तो उसमें खरा उतरने का आनंद भी अतुलनीय है। हमारे जो खिलाड़ी ऐसे महासागर से भी मेडल का मोती निकाल लाते हैं, वो क्रिकेट समान या कदाचित उससे ज्यादा अभिनंदन के हकदार हैं।
हमें समझना होगा कि हिमा और दुती का बयान क्रिकेट के प्रति ईर्ष्या भाव से नहीं उपजा है। बल्कि उसकी बुनियाद में एक सच्ची और निर्मल व्यथा है। भाव यही कि ‘आप भले थाली में खाएं, लेकिन मुन्ने को प्याली में देना’ तो न भूलें।
जिस माटी ने क्रिकेट खिलाड़ियों को पाला-पोसा है, उसी ने दुती और हिमा को भी तैयार किया है तो फिर प्यार बरसाने में इतना भेदभाव क्यों?
अच्छी बात यह है कि हिमा की कामयाबियों को सचिन सहित देश के कई नामी क्रिकेटरों ने भी दिल से सलाम किया है। क्योंकि एक खिलाड़ी ही दूसरे खिलाड़ी के संघर्ष और उपलब्धि की कीमत बेहतर ढंग से समझ सकता है।
इसके बाद भी गैर क्रिकेट खिलाडि़यों के प्रति प्यार और एप्रीसिएशन के तौल कांटे में ‘फर्क’ का संदेश जाता है तो उसकी वजह वो बाजार भी है, जिसकी परिभाषा में हिमा और दुती शायद अभी भी ‘अनफिट’ हैं।
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