रजनीश जैन।
बात निकलती है तो दूर तलक जाती ही है। कभी—कभी एक छोर पकड़कर भी दूसरे छोर पर नहीं पहुंचा जा सकता तो कभी एक तिनके के बराबर छोर पूरी डोर के अंत तक पहुंचा देता है।ऐसा ही एक छोर दिखा वीरेंद्र भाटिया की फेसबुक दीवार पर जिसमें कवि नरेश सक्सेना की पत्नि विजय ठाकुर का इंटरव्यू था। उनकी कहानी दिलचस्प तो थी ही।
संघर्ष और उपेक्षाओं से भरी होने के बाद भी बाद में कला जगत में धूमकेतु की तरह चमकने की कहानी है। इस एक सिरे को खोजते हम पहुंचे सागर शाह के एनसाईक्लोपिडिया कहे जाने वाले रजनीश जैन के पास। उन्होंने जैसे बेणीकुंवर के बहाने समाज का कल का आज का कभी न बदलने वाला चेहरा ही पेश कर दिया।
विजय नरेश सक्सेना की मां बेणीकुंवर की असली कहानी यहां प्रस्तुत है।
सागर शहर के इतिहास के ये स्याह पन्ने एक फ्लैशबैक की तरह हैं। इन्हें महसूस करने के लिए 'प्यासा' और 'कागज के फूल' वाले गुरुदत्त का नजरिया चाहिए होगा।
सन् 1900 से 1950 का कालखंड है। शहर का कटरा बाजार मस्जिद पर जाकर खत्म होता है। कटरा में आने वाली बैलगाड़ियां,बग्घियां और छकड़े नमकमंडी के एक किनारे पर पड़ाव डाले हैं।
कटरा जाकर मस्जिद पर खत्म होता है और उसके पीछे शहर की रौनकों वाला इलाका शुरु हो रहा है।
सजे हुए तांगों की कतारें खत्म होते ही चौरसियों की पान की दुकानें। इनमें से एक सग्गर पान वाला जिसके बीड़े सिर्फ रईस खा सकते हैं और बंधवा कर ले जा सकते हैं।
तरह—तरह की सुगंधियां, किमामें और चांदी के वर्कों वाले पान।
गुजराती बाजार की इस पुरानी तस्वीर में दिख रहे मकान जिनमें से कुछ में तवायफों के कोठे व रहवास थे। किरणकला स्टूडियो का बोर्ड देखा जा सकता है।
गुजराती बाजार का आज का दृश्य...गली के बाजू में दिख रहे मकान के स्थान पर ही वेणीकुंवर का कोठा और रहवास था।
बगल से फूल और हार बेचने वाले मालियों के कुछ खोखे जिनमें बेला, गुलाब और मधुकामिनी के गजरे और वेंणियाँ।
फिर बख्शीशखाना सराय जिसमें बाहरी मुसाफिरों के कमरे और देहलानें...और यहीं से शुरू हो जाने वाली स्वर लहरियाँ।
घुंघरुओं के साथ गजलों,ठुमरी, कजरी, टप्पे तरानों की दिलकश आवाजें,हारमोनियम और रीड आर्गनों के साथ तबलों पर तरह-तरह के ठेके।
एक के बाद खूबसूरत जालीदार छज्जों के भीतर मखमल के परदों के पीछे की हसीन और मदमस्त दुनिया।
टाकीजों, फिल्मी दुनिया के सागर में आने से पहले की सतरंगी और सपनों की दुनिया यही थी,ये गाने और नाचने वालियों की दुनिया थी।
झाड़फानूस, मंहगे कालीनों, कीमती परदों, रोशनदानों, अलंकृत पानदानों और चिरागों से सजी इनकी कोठियों की कतारें दोनों ओर बसे गुजराती कारोबारियों की गोदामों तक जाकर खत्म होती थीं।
दिन का सूरज उतरने के साथ-साथ यहाँ की महफिलें चमक—दमक से रोशन होती जाती थीं। खत्म होती रियासतों के बुझते चिराग यहाँ की मस्ती में अपनी पुरानी शानोशौकत का भ्रम बनाए रखते, जमींदारों के बिगड़ैल उनसे होड़ लगाते और बड़े कारोबारी और रईस इनके बीच बैठ कर मनोरंजन के साथ-साथ अपनी संभावनाएं तलाशते!
मराठा शासकों के दौर में पनपे सागर शहर में ब्रिटिश हुकूमत के खत्म होने के लगभग 15 साल पहले तक एलीट क्लास के मनोरंजन का ठिकाना यही तवायफ घर थे।
तवायफों और वेश्याओं में साफ फर्क था, देहव्यापार करने वालियों के इलाके अलग थे जिनमें से कुछ सदर इलाके में थे जहां ब्रिटिश सेना के लिए इनकी खास अहमियत थी।
अंग्रेज प्रशासन इन वेश्याओं का पूरा डाटा संधारित करता था, सैनिकों के स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से वेश्याओं के रजिस्ट्रेशन, रुटीन हेल्थ चेकअप और उपचार के इंतजाम होते रहते थे।
ऐसे सर्वे की रिपोर्ट्स ब्रिटिश गजेटियर में शामिल की जाती थीं ताकि आने वाले ब्रिटिश अफसरों को वस्तुस्थिति का पता रहे।
गुजराती बाजार इलाके की तवायफें शास्त्रीय गायन और नृत्य में तालीमदार होती थीं। इनकी तालीम के गुरु शिष्य परंपरा से होती थी।
जितनी ज्यादा रियाज उतना ही पक्का गला और हर तवायफ की डेस्टिनी ऊंचा कलाकार बनने की होती थी ताकि बड़ी से बड़ी रियासत की छत्रछाया उन्हें हासिल हो सके। बड़ी रियासतों से जुड़ा होना तवायफ का स्टेटस और नजराना तय कर देता था।
तवायफों का परफार्मेंस अफोर्ड कर पाना समाज के सामान्य वर्गों के वश की बात नहीं थी इसलिए आसान था कि उन्हें निंदा और कलंकित भाव से बरत कर स्वयं की अहमतुष्टि कर ली जाए।
अन्यथा तवायफों का तबका शास्त्रीय संगीत की प्रवाहमान सरिता की तरह था। माइक्रोफोन, लाऊडस्पीकर के अस्तित्व में नहीं होने पर किसी किले या गढ़ी के रंगमहल या दरबार हाल ही ऐसे मंच थे जहां ये कलाकार अपना प्रदर्शन कर सकती थीं। अतः इन्हें बैठक गायिकाएं कहना ज्यादा समीचीन है।
सागर के गढ़पहरा फोर्ट के शीशमहल के सामने की इमारत ऐसी ही रंगशाला का सटीक उदाहरण है जो सैकड़ों साल पहले एक बेहतरीन रंगमंच की तरह बनाया गया था। इस रंगशाला के मध्य खड़े होकर हम तत्कालीन वैभवशाली आयोजनों की कल्पना कर सकते हैं।
बहरहाल ग्रामोफोन और फिर फिल्मों ने आकर तवायफों वाली मनोरंजन की इस रंगीन और मंहगी दुनिया का तीन चार दशकों में ही पटाक्षेप कर दिया। हर तवायफ और उसके परिजनों को इस संक्रमणकाल से गुजरना पड़ा।
ज्यादातर के लिए यह समय तकलीफें, गरीबी, बेबसी, मजबूरी, साजिशें, बर्बादियाँ, बिछोह और पलायन लेकर आया। उनके कोठे भूमाफियाओं की साजिशों से गुजर कर व्यवसायियों के हाथों में पहुंच कर भव्य शोरूमों से भरे मंहगे मार्केटों में बदल गए।
जिन तवायफों ने बदलाव की इस आहट को सुन लिया था सिर्फ वे अपने बच्चों परिवारों को बचा सकीं।
बड़े शहरों की तवायफों ने अपनी कला और हुनर को सम्हाला और बदलती हुई आडिएंस, शोबिज, फिल्मी पर्दों तक पहुंच कर आपदा को अवसर में बदल सकीं। पर हरेक तवायफ जद्दनबाई नहीं थी और न ही हरेक तवायफ की बेटी नरगिस थी।
ज्यादातर खुद वक्त की खाक में गर्क हो गईं, उनके परिवारों को मजदूरी करके और फेरी लगाकर अपने परिवार पालने पड़े।
खासतौर पर छोटे शहरों, कस्बों की तवायफों के लिए न फिल्मी पर्दा नसीब हुआ, न बड़े सभागृह, मंच और न कोई मदद। उनके हिस्से आई समाज की बेरुखी, कलंक, हवस भरी निगाहें और दुत्कार। इस सबसे उन्हें लड़ना था।
जाहिर है कि सागर भी एक छोटा सा कस्बानुमा शहर था। इस संक्रमण काल को सागर की तवायफों ने कैसे भुगता इसकी एक सच्ची और प्रेरणादायक कहानी है सागर की मशहूर तवायफ वेणी कुंवर उर्फ बेनी बाई की।
यह वह कहानी है जिसे सागर शहर ने कचरे और गंदगी मान कर अपने दामन से पोंछ कर मिटा और भुला दिया है।
पर वक्त के थपेड़े खाते हुए वेणी कुँवर की बेटी और नातिन ने अपनी कोशिकाओं में समाए संगीत और कला को फिर जीवित कर लिया और अपनी ऐसी गौरवशाली दुनिया फिर से बना ली जिसमें सम्मान और शोहरत एक साथ थे ।
एक तरह से तो यह कहानी सागर की तवायफ वेणीकुंवर की है, पर इस कहानी में एक तवायफ माँ का अपनी पीढ़ियों को बाजारू कोठे से बाहर निकाल कर भद्र समाज में स्थापित करने के संघर्ष और सफलता की कहानी भी छिपी है।
सागर के भूमाफियाओं ने जिस तवायफ से उसका मकान छीन कर थाने कोर्ट कचहरियों के चक्कर काटने छोड़ दिया उसकी बेटी को एक देश ने संयुक्त राष्ट्र में अपना स्थायी प्रतिनिधि नियुक्त करने का प्रस्ताव दिया।
जिसकी पोती के रंगकर्म और फिल्म प्रोडक्शन हाऊस के देश—विदेश में चर्चे होते हैं। वह पोती अपनी तवायफ नानी के संघर्षों, द्वंद्वों और समाज के दोहरे मानदंडों को देश विदेश नाट्यमंच पर ससम्मान प्रस्तुत करती है, लेकिन सागर और जबलपुर के रंगमंचों ने तवायफ की उस कामयाब नातिन को कभी अपनी कहानी मंचित करने को नहीं बुलाया।
ऐसी कहानी जिसे सागर और जबलपुर के बाशिंदों को सुनना देखना चाहिए ताकि वे अपने शहरों और अपने पुरखों के इतिहास के एक छिपे हुए पन्ने को फिर से पढ़ सकें।
(शेष भाग-दो में)
लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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