पंकज पाराशर।
हिंदुस्तान की आज़ादी की 75वीं सालगिरह उन सबको भी मुबारक, जिनके कारनामे तारीख़ के पन्नों में दर्ज़ नहीं. जिनकी जान, जिनके धन की क़ीमत आज तक नहीं समझी गई.
सूबा उत्तर प्रदेश के ज़िला चंदौली की जसुरी गाँव की गायिका विद्याधरीबाई को भी आज के मौके पर आज़ादी मुबारक जरूर कहिए, जिन्होंने 'चुन-चुन के फूल ले लो अरमान रह न जाए'-जैसे क्रांतिकारी गीत लिख/गाकर आज़ादी के मतवालों को प्रेरित किया था.
शाम से रात नौ बजे तक मुज़रे से मिले पैसे वह आज़ादी के आंदोलन को दे देती थीं. उसके बाद शेष बचे पैसे से ज़िंदगी बसर करती थीं.
आज़ादी मुबारक, उन नामचीन तवाइफ़ गौहर जान को भी आज कहिए, जिन्होंने गांधी जी के कहने पर कलकत्ते में मुजरा किया और आज़ादी के लिए चलाए जा रहे आंदोलन के लिए आधा पैसा दान कर दिया (कौल के मुताबिक अगर गांधी खुद पैसे लेने जाते तो वह पूरा दे देतीं).
गौहर जान की उस वतनपरस्ती से सराबोर अकड़ को भी आज सराहिए कि वह अँगेरज़ अफसर को जुर्माना देना कुबूल करती रहीं, लेकिन अँगरेजों से भी बड़ी बग्घी पर सवारी करना कभी नहीं छोड़ा.
आज के दिन आज़ादी मुबारक शहर कानपुर की उन अज़ीज़ुन्निसा बेगम को भी कहिए, जिन्होंने तोप के मुँह से बंधकर टुकड़े-टुकड़े हो जाना तो मंज़ूर किया, लेकिन अपने कोठे पर छिपे किसी क्रांतिकारी का नाम अंगरेज हाकिमों को नहीं बताया.
आज़ादी मुबारक, आज शहर बनारस की उन हुस्ना बाई, बड़ी मोतीबाई और रसूलन बाई को भी जुरूर कहिए, जिनका योगदान किसी भी ऐतबार से उन लोगों से कम नहीं, जिनके नाम से हम वाकिफ हैं आज.
आज़ादी के इस मुबारक मौके पर 'थर्ड जेंडर' के उन लोगों को भी आज न भूलिए, जिनके योगदान के बारे में न तो हमको कुछ पता है, न वे लोग इसका ढिंढोरा पीटते हैं कि हमने ये कर दिया, हमने वो कर दिया.
सन् 1857 के उन किसानों, उन ग़रीब लेकिन बहादुर सिपाहियों को भी न भूलिए, जिन्होंने भावना के आगे जान की परवाह नहीं की और अपने को इस मुल्क के ख़ाक में मिल जाने दिया.
आज़ादी मुबारक, देश के उन घुमंतू समुदाय के लोगों को भी आज कहिए, जिनके पास आज भी रहने को कोई घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं और इस देश के होकर भी वह इस देश के वोटर नहीं.
आप शायद नहीं जानते कि कितनी ही तवाइफ़ों ने अपने जीवन में कमाया हुआ सारा धन इस समाज की भलाई के लिए दे दिया. कई धर्मशालाएँ बनाकर इस दुनिया से गईं. कई अस्पताल बनाकर इंतकाल कर गईं.
कुछ ने आज के बड़े और नामचीन विश्वविद्यालय को अपनी ज़मीन दान दे दी. इस देश की बेहतरी में यह भी एक बड़ा योगदान है और इस योगदान को आज के दिन मैं बारहा याद करता रहा. विडंबना यह है कि इतिहास के पन्नों से ऐसे लोग आज तक अदृश्य हैं! बकौल खुर्शीद अकबर,
हम भी तिरे बेटे हैं ज़रा देख हमें भी
ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से शिकायत नहीं करते
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