शब्द मसीहा केदारनाथ।
बीस –बाईस साल की एक पतली सी हंसमुख लड़की , जिसने बीड़ा उठाया उस मुद्दे पर मुखर होने का जिस पर बात करते हुए अक्सर लड़कियां और पुरुष घबराते हैं अर्थात पीरियड्स , माहवारी। बहुत हिम्मत का काम होता है आजकल के पितृसत्तात्मक समाज में। विरोध हुआ, हँसी उड़ाई गयी लेकिन उसने अपना रास्ता चुन लिया था और इसमें उसकी साथी लडकियाँ भी बहुत शर्माती थीं मगर उसने अपनी मुहीम को जारी रखा। आज उनकी टीम में सात सौ के करीब लोग जुड़े हुए हैं। लडकियां आज भी इस मुद्दे पर बात नहीं करना चाहतीं। वह गाँव-गाँव जाती हैं महिलाओं और लड़कियों से बात करती हैं और सफाई के बारे, बीमारियों के बारे में और कैसे घर के साधनों से सेनेटरी नेपकिन बनाने और इस्तेमाल करने हैं उनको सिखाती हैं।
हमारे पड़ोसी देश नेपाल में कई जगहों पर ऐसी मान्यता है कि लड़की पीरियड के समय अपवित्र हो जाती है। ये मान्यता हमारे भारतीय समाज में बेहद प्रचलित है लेकिन नेपाल में पीरियड के दौरान लड़की को घर के बाहर झोपड़ी में या पशुओं के बाड़े में रहने पर मजबूर होना पड़ता है। इस प्रथा को छौपदी कहा जाता है, जिसका मतलब है अनछुआ। ये प्रथा सदियों से नेपाल में जारी है और भारत में भी। ऐसे समय वे किसी पवित्र कार्य में शामिल नहीं हो सकतीं। यहाँ तक की रसोई में प्रवेश बंद, अचार या कोई और चीज छू नहीं सकती हैं।
लाज़-शर्म में लिपटा पीरियड का मुद्दा हमारी चर्चा का मूल मुद्दा है , जिसपर शुरुआत में लड़कियों की लाज़मी हिचक कायम है ...लेकिन जब बातों का दौर चलता तो चुप्पी अपने-आप खत्म होकर सवाल-ज़वाब में तब्दील हो जाती है ऐसा स्वाती सिंह बताती हैं।
स्वाति सिंह का फेसबुक कवर बहुत कुछ कहता है।
मुहिम के ज़रिए स्वाती ने ग्रामीण इलाके में पीरियड या मासिकधर्म जैसे उस मुद्दे पर काम करना शुरू किया है जिस विषय पर यहां के समाज में बात करना भी वर्जित माना जाता है। वे अपनी संस्था के माध्यम से उत्तर प्रदेश के वाराणसी के काशी विद्यापीठ ब्लाक के गांव देलहना, बन्देपुर, बछांव, खनाव, बेटावर, रामपुर, लठिया, खुशीपुर, कादेपुर समेत कई गांवों में ‘Period Alert’ कार्यक्रम चला रहीं हैं।
कमाल की बात है कि हम देवी के रजस्वला होने का तो उत्सव मनाते हैं और अपनी बहन या बेटी का तिरस्कार करते हैं मूढ़ता भरी परम्पराओं के कारण। कामख्या में अम्बूवाची पर्व के दौरान मां भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। एक बार देवी रजस्वला धर्म को उपलब्ध होती हैं। इन्हीं तिथियों में देवी के गुप्त नवरात्र भी पड़ते हैं।
स्कूल में पढ़ने वाली ये लड़की माहवारी (पीरियड्) में थी। जाहिर है कि इतनी कम उम्र में उसे अपने शरीर में आ रहे बदलावों के बारे में जानकारी नहीं रही होगी। ये लड़की तमिलनाडु के पालायमकोट्टाइ के सेंथिल नगर के एक स्कूल में सातवीं क्लास में पढ़ती थी। इसी दौरान जब वो स्कूल पहुंची तो उसके शरीर से निकला खून उसके कपड़ों और स्कूल के बेंच पर लग गया। इस गुनाह के लिए स्कूल की महिला टीचर ने उसे कथित रूप से सबके सामने इतना जलील किया कि वो इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकी। ये कैसी परंपरा है? क्या हम आज भी आदिम हैं? धर्म आदमी का बनाया और आदमी के लिए है न कि किसी मासूम लड़की की जान ले लेने के लिए।
पीरियड/माहवारी/मासिकधर्म यों तो महिलाओं के शरीर में होने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसके कई नाम है, परन्तु दुर्भाग्यवश न तो कोई इसे अपनी आम बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल करना पसंद करता है और न इस मुद्दे पर खुलकर बात करता है। स्वाती सिंह “माय फर्स्ट ब्लड “ मुहीम भी चला रही हैं जहाँ महिलाएं अपने अनुभव सांझा करती हैं। क्यों ऐसे में लड़कियों को लड़कों से दूर रहो, लड़कों से बात मत करो जैसी बातें सिखाई जाती हैं ? क्या यह किसी लड़की के सम्पूर्णता को प्राप्त होने का उत्सव नहीं है ? समाज को अपनी सोच को बदलने की जरुरत है।
सिर्फ नवरात्रि के नौ दिनों के दौरान धार्मिक परिवार छोटी लड़कियों को ईश्वर के प्रतीक के रूप में देखते हैं और उन्हें अपने घर बुलाकर खाना खिलाते हैं। वे उन्हें बढ़िया भोजन कराते हैं और कुछ उपहार भी देते हैं। मगर 'छोटी लड़कियां' होने की कसौटी आखिर क्या है? वह है, वे लड़कियां जो अभी रजस्वला नहीं हुई हैं। जैसे ही माहवारी शुरू हुई ये लड़कियां देवी नहीं मानी जाएंगी। वैसे तो कई लड़के और बड़ी लड़कियां भी भोजन करने आ जाती हैं मगर सिर्फ और सिर्फ वही लड़कियां देवी मानी जाती हैं और पूजी जाती हैं जिनकी माहवारी अभी शुरू नहीं हुई हैं।
उस पहली बार के बाद एक लड़की यह सीखती है कि माहवारी होना कोई ऐसी बात है जो उसे अशुभ बनाती है। वह सीखती है कि इस दौरान वह अपवित्र होती है। वह रसोई में प्रवेश नहीं कर सकती और वह खाने-पीने के समान को छू भी नहीं सकती क्योंकि जिसे भी वह छू देगी वह दूसरों के लिए अपवित्र, अखाद्य हो जाएगा। विवाह के पश्चात भी वह माहवारी के दौरान कपड़े नहीं धो पाएगी क्योंकि कपड़े भी उसके स्पर्श से अपवित्र हो जाएंगे, भले ही वह कपड़ों को बहुत सारा साबुन लगाकर घंटों रगड़ती रहे और कई बाल्टी पानी उन्हें धोने में खर्च कर डाले। वह मंदिर नहीं जा सकती और अपने घर के भगवान के पास भी नहीं जा सकती। उसे बिल्कुल अलग-थलग बैठकर अपना भोजन करना होगा। अर्थात माहवारी उसे देवी के पद से गिराकर एक परित्यक्त, मनहूस व्यक्ति बना देती है।
स्वाती को अपने कुछ धार्मिक फेसबुक मित्रों से निवेदन करना पड़ा कि वे अपनी देवी के बारे में उसकी इन जिज्ञासाओं पर कुछ विस्तार से प्रकाश डालें: क्या देवी को माहवारी नहीं आती? वह इंसान की तरह ही लगती हैं तो क्या वे भी रजस्वला हैं? अगर हैं तो क्या वे भी अपवित्र होती हैं? क्या आपने किसी को यह कहते सुना है, "यह देवी का माहवारी का समय है इसलिए हम कुछ दिन उनकी उपासना नहीं करेंगे?"
स्वाती को एक धार्मिक व्यक्ति से बहुत गंभीर उत्तर प्राप्त हुआ, जिसमें उन्होंने समझाया: "माहवारी के वक़्त महिलाओं के शरीर से ऋणात्मक (नेगेटिव) विद्युत प्रवाह निसृत होता है इसलिए अगर एक स्त्री माहवारी के समय कपड़े या भोजन को छूएगी तो ये वस्तुएं भी ऋणात्मक (नेगेटिव) रूप से प्रभावित हो जाएंगे। इन परंपराओं का यही कारण है."
यह व्यक्ति इस बेहूदी बात पर पूरी ईमानदारी के साथ यकीन करता है। धर्म लोगों को इतना अंधा बना देता है कि वे उसमें प्रचारित अंधविश्वासों को सही सिद्ध करने के लिए ऐसे-ऐसे 'वैज्ञानिक' तर्क प्रस्तुत करते हैं कि आश्चर्य होता है। स्वाती ने उनसे पूछा कि आपने माहवारी के दिनों में किसी महिला द्वारा निसृत विद्युत तरंगों का किस प्रयोगशाला में अवलोकन किया है और क्या उसकी तीव्रता को नापा भी है?
ऐसे बेवकूफी से भरे विश्वास ही देश में महिलाओं की बुरी हालत के लिए ज़िम्मेदार हैं और धर्म इन विश्वासों का आधार है। महिलाओं को माहवारी के समय अलग-थलग रखने की प्रथा सारे भारत में सामान्य रूप से विद्यमान है। शरीर के प्राकृतिक चक्र के कारण, जो उसे माँ बनने की शक्ति प्रदान करता है, कैसे कोई महिला अस्पृश्य हो सकती है?
यह सवाल उस व्यक्ति से पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्हें उनकी माँ ने माहवारी के समय अपना दूध पिलाया था? अगर हाँ, तो वह स्वयं भी अस्पृश्य माना जाना चाहिए और उसे भी बहिष्कृत किया जाना चाहिए। लेकिन हम सब जानते हैं कि धर्म अपने ही नियमों और परंपराओं के बारे में एकरूप और एकनिष्ठ नहीं है। वह कमजोर को छलता है और यही पुरुष प्रधान समाज ने किया भी है और कर भी रहा है।
शिक्षा-सम्पन्नता चाहे कितनी भी हो, जब बात समाज की हो या व्यवहार की संस्कृति की इन सब पर कई बार भारी दिखाई पड़ती है,पर ध्यान रहे यहाँ बात हर चीज़ के संदर्भ में नहीं हो रही, कुछ ख़ास विषयों के संबंध में हो रही है, जैसे – मासिकधर्म/पीरियड/महीना। पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य, विकास और स्वच्छता से जुड़ा ये एक ऐसा विषय है जिसपर शर्म करना और चुप रहना हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है और दुर्भाग्यवश इस रुढ़िवादी सोच को हमारी शिक्षा और सम्पन्नता भी नहीं तोड़ पायी है।
इस बात को मुहीम की संस्थापिका स्वाती सिंह ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान महसूस किया, जब इस मुद्दे पर उनके साथ पढ़ने वाली छात्राएं भी बात करने से कतराती थी। पढ़े-लिखे युवा वर्ग के इस व्यवहार ने स्वाती को इस बात पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि जब शहर में उच्च-शिक्षा लेने वाले युवाओं का ये हाल है तो ग्रामीण क्षेत्रों का हाल कितना बुरा होगा। इसी तर्ज पर उन्होंने उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में मासिकधर्म के मुद्दे पर किशोरियों और महिलाओं को जागरूक करने का बीड़ा उठाया है।
मुहीम के ज़रिए स्वाती सिंह को मासिकधर्म पर ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिए को बीते 30 अगस्त हिंदी अखबार हिन्दुस्तान और उत्तर प्रदेश कन्या शिक्षा एवं महिला कल्याण तथा सुरक्षा की तरफ से आयोजित सम्मान समारोह में उन्हें अनवरत अमूल्य योगदान के लिए सम्मानित किया गया।
सन्निधि संगोष्ठी संस्थान के संयोजक प्रसून लतांत, मंत्री अतुल प्रभाकर व कुसुम शाह ने पत्र भेजकर 23 दिसंबर को गांधी हिंदुस्तानीं साहित्य सभा में स्वाती को सम्मान के लिए आमंत्रित किया। यह सम्मान काकासाहेब कालेलकर की 132वीं जयंती के उपलक्ष्य पर आयोजित समारोह में दिया गया। ज्ञात हो कि यह पुरस्कार पांच विधाओं में प्रति वर्ष दिया जाता है, इसमें साहित्य, पत्रकारिता, खेल, समाज-सुधार व राजनीति के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले को यह सम्मान दिया जाता है।
आजकल के पढ़े लिखे समाज में अगर एक लड़की को इस तरह काम करना पड़ता है तो यह कैसी तरक्की है? स्वाती सिंह लगातार इस मुद्दे पर लोगों से मिलती हैं, ड्राइंग कम्पीटीशन और वर्कशॉप आयोजित करती हैं। यह कदम भी स्वच्छता अभियान का एक बड़ा हिस्सा है। हमारी आधी आबादी के स्वास्थ्य का प्रश्न स्वाती सिंह उठा रहीं हैं। वे वाकई प्रशंशा और धन्यवाद की पात्र हैं। उनकी इस मुहिम को समाज का समर्थन मिलना ही चाहिए। उनके इस काम में उनके मित्र श्री राम किंकर कुमार जी भी कंधे सर कन्धा मिलाकर उनका साथ दे रहे हैं।
फेसबुक वॉल से।
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