संजय शेफर्ड।
टूटना हमेशा दिल का होता है, पर प्रेम सिर्फ हृदय का नहीं, देह का भी होता है। मेरे आसपास टूटे हुए दिलों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। संवेदनशील लोगों की ख़ास बात यही है कि वह बेहद आसानी से प्रेम करते हैं और बेहद आसानी से टूट जाते हैं। जो लोग थोड़े कठोर होते हैं वह आसानी से प्रेम नहीं करते और ना ही आसानी से प्रेम में टूटते हैं। पर एक कमजोर लम्हा उसके जीवन में भी आता है जब सख्त से सख्त इन्सान भी टूट जाता है। प्रेम जिस शिद्दत से एक- दूसरे को जोड़ता है, उसी आवेग से बिखेरने का भी साहस बरकरार रखता है।
प्रेम का यह सबसे बड़ा गुण है। लेकिन हमारा, हम इंसानों का क्या गुण है?
तकरीबन दो-तीन साल पहले मुझे एक लड़की से प्यार हुआ। हम दोनों ने मिलकर सपने देखे। उसने कहा मैं जी भरके तुमसे प्यार करुंगी, मैंने कहा मैं तुम्हारे लिए चांद तारे तोड़कर लाऊंगा। जबकि वश में अमरूद तोड़कर लाना भी मुश्किल था।
अब दो साल बाद जब हम साथ नहीं हैं तो मैं यह सोच रहा हूं कि प्रेम में हमने सपने क्यों देखे? और देखे भी तो टूट जाने से डर क्यों गए? सपनों को तो टूटना ही होता है। काश हम दोनों ने प्रेम को सपनों के पंख लगाने कि बजाय प्रेम को, प्रेम या फिर सामान्य जीवन की तरह जिया होता! बिल्कुल वास्तविक रूप में, रोटी-सब्जी, नमक-मिर्च जैसे जीवन के सैकड़ों अभावों के बीच, बिना किसी बिम्ब अथवा कल्पना के हम बने रह सकते थे, बिल्कुल वैसे ही जैसे लाख अभावों के बावजूद एक दूसरे को प्यार करने वाले एक दूसरे के जीवन में बने रहते हैं।
प्रेम में यह जो महत्वाकांक्षा है ना प्रेम के आगे-आगे चलती है और प्रेम हर बार कहीं पीछे छूट जाता है। हमारा भी प्रेम ना जाने कब पीछे छूट गया। कुछ दिन हम दोनों साथ चले, लेकिन बिना प्रेम के कब तक? लगा अलग हो जाना चाहिए, अलग हो गए। प्रेम जिस तीव्र वेग से जीवन में घटित हुआ उसी आवेग से खत्म भी हो जाना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं। तकरीबन छह महीने तक डिप्रेशन में रहा। सिर्फ प्रेम को नहीं, महज़ इन छह महिनों में मैंने अपने जीवन से उन सभी महत्वपूर्ण चीजों को गवां दिया जो मुझे अच्छी जिन्दगी दे सकती थी।
प्रेम का जीवन में घटना सहज होता है लेकिन टूटना कभी समान्य नहीं होता।
किसी के जाने के बाद जीवन में जो खालीपन बचता है उसमें अवसाद भर जाने की संभावना ज्यादा होती है। ज्यादार यही होता भी है और स्थिति दिन-प्रतिदिन भयावह होती चली जाती है।
प्रेम से निकल जाने के बावजूद प्रेम से निकल जाना आसान नहीं।
यह उस समय समझ में आता है, जब हम एक दूसरे से अलग हो गए होते हैं, बावजूद इसके अलग नहीं हो पाते। प्रेम में सिर्फ दिल नहीं टूटता। मन, आत्मा, देह के कितने दरवाजों को भेदकर बाहर निकलना होता है।
यहां यह समझना जरूरी है कि इंसान हमेशा दिल से टूटता है जबकि प्रेम सिर्फ दिल का ही नहीं होता है, देह का भी होता है, मन और आत्मा का भी होता है, यहां तक कि दिमाग का भी। दिमाग जो हर वक़्त बौद्धिकता के स्तर पर सोचता है, प्रेम में इस हद तक भावुक, नर्म और संवेदनशील हो जाता है कि वह भी मन का ही हो जाता है।
दिल से टूट जाने के बाद भी देह का प्रेम बना रहता है। अकेले होने के बावजूद मन के अवचेतन की एक स्थिति ऐसी होती है जब खाली बिस्तर पर हाथ एक देह, एक पीठ, एक पेट, एक छाती, एक चेहरा, एक स्पर्श ढूंढता है। इंसान भरसक बाहर निकलने की कोशिश करता है। लेकिन हर मोड़ पर एक टुकड़ा छूट जाता है। कितना भी कोशिश कर ले पूरी तरह से बाहर नहीं निकल पाता। निकलता भी है तो उसमें वर्षों लग जाते हैं और यही वर्षों का समय उस इंसान को अक्सर खत्म कर देता है।
इसलिए थोड़े काम्प्लेक्स के साथ ही सही इस बात को अभी से स्वीकार कर लो कि जिसे तुम समग्रता में प्रेम कहते हो वह जितना दिल का है, उतना ही देह का भी है और उतना ही मन और आत्मा का भी। प्रेम को देह से विलग नहीं किया जा सकता है और अगर—अलग हो रहे हो तो पहले प्रेम से अपनी एक अंगुली खींच लेने की बजाय अपनी पूरी देह को खींचकर बाहर निकाल लो। तुम भी वर्षों-वर्षों तक अपनी देह को मेरी देह से कहां बाहर निकाल पाई थीं?
दिल के टूटने के साथ ही पूरे हृदय और पूरी आत्मा के साथ खुद को अलग कर लो। ताकि तुम दुबारा किसी और से उतना ही प्रेम कर सको जितना अपने पहले प्रेम से करते थे। अगर इस बार तुम कभी प्रेम करना ना, तो सपने मत देखना, एकदम समतल धरातल पर एक दूसरे के साथ समांतर और समान गति से चलने की कोशिश करना। पैर थके तो बैठ जाना, उसे भी थोड़ी देर बैठ जाने के लिए कहना। वह बैठ जाये तो ठीक, नहीं तो उससे कहना कि तुम चलो, थोड़ी देर में अगला मोड़ आते आते तुम्हारा साथ पकड़ लूंगी। देखना, उस अगले मोड़ से पहले वह छोटी पुलिया पर बैठ तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा। उसे चूमना, अपनी बाहों में समेट पूरी तरह से जकड़ लेना। क्योंकि वह जानता है कि प्रेम ठहराव है।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो कभी साथ पकड़ने की कोशिश मत करना, पीछा नहीं करना। सिर ऊपर आसमान की तरफ उठाकर गले तक सांस लेना। फिर वहीं कहीं जमीन पर दुबारा बैठ जाना, सबकुछ भूलकर और यह सोचना कि आखिर जाना कहां है? किस मोड़ पर पहुंचना है ? आखिर जिन्दगी ही तो जीनी है? फिर इतनी भागदौड़ क्यों ? रुको, ठहरो, सुस्ताओ, गले तक डूब कर सांस लो और फिर सोचो, तुम्हें साथ क्यों चाहिए था? बस इसलिए कि जब तुम थको तो हाथ या फिर कोई कंधा साथ हो, उसकी खुली बाहों में आकर तुम हर दर्द, हर थकान को भूल सको। कोई हो जो तुम्हारी थकान को अपनी थकान की तरह महसूस कर सके? नहीं तो छोड़ दो यार! वह कभी तुम्हारे लिए था ही नहीं।
और नहीं विश्वास हो तो इसी सफर में एक बार फिर से लंबी सांस लो, थोड़ी और हिम्मत जुटाओ। इस बार समांतर और समान गति से चलने की बजाय कोई भी राह चुन लो, अपनी गति चुनो, जिधर चाहो उधर मुड़ो, और उससे कह दो कि तुम आओ, अगली ढलान पर तुम्हारा इंतजार करूंगी। देखना, वह नहीं आएगा। कारण तुम जानती हो। यार, दुनिया ऐसी ही है। यहां तुम्हारे रोने-गिड़गिड़ाने और टूटने से कुछ नहीं होने वाला, उल्टे तुम तुम्हारा ही नुकसान कर लोगी। और एक अंदर की बात बताऊं, प्रेम में कोई किसी और को नहीं, खुद को प्रेम करता है। तुमने भी खुद को प्रेम किया। वह तो तुम्हारे अंदर के प्रेम का आभाष मात्र था।
फिर रोना, गिड़गिडाना और टूटना क्यों? प्रेम तो तुमने अपनी शर्त पर किया था ना? उसी शर्त को याद रखो, आंसू ही तो हैं? आंख बंद करो और एक ही घूंट में पी जाओ। सोचो कि वह मौसम था गुजर गया, एक और मौसम आएगा, उसके बाद एक और, उसके बाद भी एक।
इस तरह से तुम्हारे जीवन में सौ मौसम आएंगे।
हर मौसम तुम्हारे अनुकूल नहीं होगा। तुम्हें कभी मौसम तो मौसम को कभी तुम्हारे अनुसार ढलना होगा, वह मौसम जो गुजर गया पतझड़ का मौसम था, स्टूपिड लड़कियों बरसात और बसंत को इसी के बाद तो आना होता है।
तुम्हें बारिश पसंद है ना? अगले मौसम तुम सर्द, धूप और बारिश से प्रेम करना।
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