इस्लाम में निकाह बंधन नहीं महज समझौता!

वामा            Dec 09, 2016


ekta-sharmaएकता शर्मा।

किसी भी शादीशुदा मुस्लिम महिला के लिए ‘तलाक, तलाक, तलाक’ ऐसे शब्द हैं जो उसकी जिंदगी को बर्बाद करने की कुव्वत रखते हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट का ताजा फैसला इसी पृष्ठभूमि से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर केंद्र सरकार ने भी स्पष्ट किया था कि वो इस प्रथा का विरोध करती है। इसे जारी रखने देने के पक्ष में नहीं है। सरकार का दावा है कि उसका ये कदम देश में समानता और मुस्लिम महिलाओं को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए है। सरकार ये भी कह रही है कि ऐसी मांग खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर से उठी है! क्योंकि, मुस्लिम महिलाएं लंबे समय से तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाती आ रही हैं। कुल मिलाकर सरकार तलाक के मुद्दे पर खुद को मुस्लिम महिलाओं के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट कर रही है।

इस्लाम में निकाह हिंदू विवाह व्यवस्था की तरह बंधन नहीं होता! निकाह को ‘अहदो पैमान’ यानि पक्का समझौता (सिविल कॉन्ट्रैक्ट) माना गया है। मर्द और औरत आपसी रज़ामंदी के बाद ये करार करता है। इस्लाम ने पति-पत्नी को इस समझौते को निभाने के लिए कई हिदायतें दी हैं! इसे तोड़ना आसान भी नहीं है। सिर्फ तीन बार तलाक़ कह देने से ही शादी टूट जाती हो, ऐसा नहीं है। शरिअत में पूरे इंतजाम हैं कि एक बार रिश्त-ए-निकाह में जुड़ने वाला पुरुष और महिला खानदान बनाएं और आखिरी वक़्त तक इसको कायम रखने की पूरी कोशिश करें। कुरआन ने भी निकाह को मीसाक-ए-गलीज़ यानी मजबूत समझौता करार दिया है।

इस्लाम में तलाक देने के तीन तरीके सबसे ज्यादा चलन में हैं। तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-बिद्अत! यही झगड़ें की सबसे बड़ी वजह भी हैं। एक साथ तलाक, तलाक, तलाक कहना ये मामला ‘तलाक-ए-बिद्अत’ से जन्मा है। मुसलमानों के बीच तलाक-ए-बिद्अत का ये झगड़ा 1400 साल पुराना है। जबकि, भारत में मुस्लिम पर्सनल के झगड़े की बुनियाद 1765 में पड़ी! इस्लाम में निकाह तोड़ने के चार तरीके हैं! तलाक, तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह। ‘तलाक’ के तहत पूरा अधिकार मर्द को है। इसी तरह निकाह को खत्म करने के लिए तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह का अधिकार औरतों को भी है।

इस्लाम में ‘तफवीज़-ए-तलाक़’ पति-पत्नी के अलग होने का एक तरीका है। इसमें निकाह तोड़ने का अधिकार औरत को है। मर्द तलाक देने का अपना अधिकार बीबी के सुपुर्द कर देता है। ख़ुलअ भी निकाह तोड़ने का एक तरीका है। इसका हक भी औरत को है। अगर औरत को लगता है कि वो शादीशुदा जिंदगी की जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर सकती या इस मर्द के साथ उसका निर्वाह संभव नहीं है, तो वो अलग होने का फैसला करती है। लेकिन, अलग होने पर औरत को मैहर की रक़म वापस पड़ती है। तीसरा है तलाक़। ये अधिकार मर्द को है और सारा झमेला इसे लेकर है। तलाक देने का तरीका बहुत ही साफ है। इसकी तीन कड़ियाँ हैं। तलाक-ए-रजई, तलाक-ए-बाइन और तलाक-ए-मुगल्लज़ा।

‘तलाक-ए-रजई’ को तलाक की कार्रवाई का पहला चरण कहा जाता है। इस्लाम के मुताबिक यदि कोई पति अपनी पत्नी को छोड़ना चाहता है तो पहले उसे एक तलाक देना होता है। ये तलाक भी माहवारी के समय लागू नहीं माना जाता! ‘तलाक-ए-बाइन’ दूसरा चरण है। शुरु के दो महीनों में यदि पुरुष ने दिया गया पहला तलाक वापस नहीं लिया और तीसरा महीना शुरू हो गया तो अब तलाक पड़ना माना जाता है। इसे ‘तलाक-ए-बाइन’ कहते हैं। तीसरा चरण है ‘तलाक-ए-मुगल्लज़ा!’ ये तलाक का तीसरा और अंतिम चरण है। तीसरे महीने में अगर पुरुष ने कहा कि ‘मैं तुमको तीसरी बार तलाक देता हूँ!’ ऐसा कहने के बाद आखिरी तलाक भी पड़ गई मानी जाती है। इसे ‘तलाक-ए-मुगल्लज़ा’ कहा जाता हैं। इसके बाद पति-पत्नी के बीच निकाह नहीं हो सकता!

(लेखिका पेशे से वकील और महिलाओं के अधिकारों के क्षेत्र कार्यरत है)



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