असल दिक्कत शरीर की नहीं न ही मामला संस्कृति,संस्कार का है

वामा            Apr 10, 2017


नीतिश के एस।
साड़ी के बीच दिखता हुआ पेट बुरा नहीं लगता, लेकिन ब्लाउज के नीचे दिखती ब्रा की स्ट्रिप गलत कहलाती है। टी शर्ट के बीच से झांकती ब्रा की स्ट्रिप अजीब नहीं लगती, लेकिन जीन्स और टीशर्ट के बीच दिखती ज़रा सी कमर बेहयापन कहलाती है। शरीर कितना और कहाँ दिखता है, इसको ले कर कोई स्पष्ट रेखा नहीं खींच पाए हैं समाज के लोग। असल में पुरुष की कल्पना और यौन उत्सुकता स्त्री के शरीर से जुडी है। बल्कि ये कहें कि स्त्री के शरीर के हर उस हिस्से से जुडी है जो ढका जा सकता है। ढके हुए की कल्पना और उसको खोलने का रोमांच अलग ही होता है।

असल में दिक्कत शरीर की नहीं है। असल दिक्कत उस भावना की है जिसे हम साहित्यिक भाषा में पौरुष और साधारण भाषा में ठरक कहते हैं। छोटे कपड़ों से दिक्कत इसलिए है कि जब लगातार शरीर को खुला हुआ देखेंगे तो उसे सहजता से अपनाना सीख ही जायेंगे। फिर किस बात से, किस कल्पना से अपना पौरुष जगायेंगे? अभी तो कंधे, कमर, यहाँ तक की शक्ल की भी कल्पना कर के उत्तेजना जगा लेते हैं। लेकिन जब सब खुल जायेगा और दिमाग उसे सहजता से लेना शुरू कर देगा तब क्या करेंगे? तब किस बात पर पौरुष की धौंस दिखाएंगे? मामला न तो संस्कृति का है, न संस्कार का है। न ही अश्लीलता का है और न नैतिकता का है। मामला उस डर का है जो जान के खतरे से भी अधिक डरावना है। डर ख़त्म हो जाने का डर। वर्चस्व चले जाने का डर।

ज़ुबान से लगातार बताओ कि तुम्हारा शरीर ही सबसे महत्वपूर्ण है। नज़रों से बताओ कि सबसे महत्वपूर्ण चीज़ ख़तरे में है। काम से बताओ कि हम कितने खतरनाक है, लेकिन हमने खुद पर नियंत्रण का दिखावा कर रखा है। बस, हो गया काम। घबरा कर वर्चस्व तुम्हारे हाथ में। बड़ी सिंपल साइकोलॉजी है। मामला शरीर का नहीं, नैतिकता और संस्कार का नहीं, पौरुष के खो जाने का है। उस चीज़ के खो जाने का जिसे वर्चस्व की लड़ाई में सबसे बड़ा हथियार मानते हैं।

विकास यादव के फेसबुक वॉल से।



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