वीरेंद्र भाटिया।
औरत सहज लेखन का पात्र है
पथिक कवि
गाँव से गुजर रहा है
कविता में उतार रहा है गाँव
और गाँव की औरत
लिखता है
गाँव की सीमा पर खड़े बिटोड़े*
औरत की कलाकृति का सुन्दर नमूना हैं
सुन्दर कहा कवि तुमने
कवि लिखता है
सर पर दो दो टोकनी( मटके) उठाये
पानी भरने जाती औरत को देखना
आश्चर्य जनक है
कितना संतुलन है उसके इस कृत्य में
कितना लचक है गर्दन और कमर में
सुन्दर , अप्रितम
कवि लिखता है
सर पर रखे तसले में तरतीब से खाना सजा
मटक कर खेत जाती औरत को देखना
कितना सुखद है
कितना बेसब्र होगा ना उसका पति
कल्पनातीत है
सही कहा पथिक
मगर दो पल रुको
दो पल गाँव में रुको पथिक
दो दिन रुको तो बेहतर
दो महीने रुक सको तो और बेहतर
एक पल औरत को रोक कर पूछना
की कैसा लगता है उसे
हर दिन तपती दुपहरी में चूल्हे पर खाना बनाना
फिर चार कोस पैदल जाकर
देकर आना
पूछना कवि
देखना
वह औरत तुमसे बात नहीं करेगी
पराये मर्द से बात करने की मनाही होती है गाँव में
घूँघट में से चेहरा नहीं दिखेगा
मुह से शब्द नहीं निकलेगा
उसके पथरीले, जले हाथ देखकर
अंदाज लगा सको तो जरूर लगाना
लिखना
सर पर टोकनी मटके उठाये औरत के पीछे पीछे
उसके घर तक जाना पथिक
देखना , ढोर डंगर तो प्यासे हैं ही
मर्द को नहाने के लिए पानी का इन्तजार है
देरी से आने पर फटकार स्वाभाविक है,
औरत से पूछना दिन में कितने गेडे (चक्कर) लगाती है वह वाटर वर्क्स के
तो तुम्हे खुद चक्कर आने लगेंगे
और औरत को वो गेडे बखूबी गिनने आते हैं कवि
इसके अलावा उसे कुछ गिनने का अधिकार नहीं है
बाकी सब कुछ उसका मर्द गिनेगा
औरत के लाये पानी से नहाकर, औरत के धोये सफ़ेद वस्त्र पहन कर
बिटोड़ा रह गया पथिक कवि
कलाकृति का नमूना
देखना बिटोड़े को ध्यान से
तुम खुद लिखोगे एक दिन
बिटोड़े पर महाग्रंथ
महा दलित ग्रन्थ
जिस गाँव में जितने ज्यादा बिटोड़े होते हैं
उस गाँव की औरत उतनी ज्यादा दलित होती है
मैला उठाने को बाध्य
जिस गाँव में जितने ज्यादा बिटोड़े होते हैं
वह गाँव दूर है हर सामाजिकता से , हर आंदोलन से, हर बदलाव से
उस गाँव में औरत को मनुष्य नहीं समझा जाता कवि
गाँव में रुको पथिक कवि
औरत पर लिखो
औरत सहज लेखन का पात्र है
बिटोड़ा =गोबर को पाथकर उपले बनाना और उन्हें तरतीब से चिन देना
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