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याद-ए-अनुरागी:कोई लौटा दे पत्रकारिता को बीते हुए दिन

वीथिका            Dec 21, 2016


ऋचा अनुरागी।

अनुरागियों की बातें, अनुरागियों से पूछो
उनकी ख़बर तुम्हारा अख़बार नहीं लाता।

एक दौर हुआ करता था जब देश में पत्रकार, लेखक, साहित्यकार सही मायने में समाज का चौथा स्तम्भ हुआ करते थे। समाज को, राजनीतिक दलों को आईना दिखाते थे। अक्षरशः सत्य है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। बचपन मे पढ़ा महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का निबंध ” साहित्य समाज का दर्पण है,” जो बाद को पत्रकारिता ने इसका भार उठा लिया। आज और तब मे यह फर्क आया है पहले पत्रकारिता एक मिशन हुआ करती थी अब वो बाकायदा व्यापार बन गई है। पहले पत्रकार के कुर्ते में बटन ना होना चर्चा का विषय होता था और अब यह देखा जाता है कि किस पत्रकार के पास ऑडी कार है। पेड न्यूज की बीमारी ने तो पत्रकारों और पत्रों की स्वतंत्रता का ही जैसे अपहरण कर लिया है। ऐसे में यही याद आता है कि –कोई लौटा दे पत्रकारिता के बीते हुए दिन।

 

पत्रकारों के तो न अच्छे दिन कभी थे, न है, ना आने वाले हैं। शिकायत पत्रकारों से नहीं पत्रकारिता के प्रतिष्ठानों से है। साहित्यकारों और पत्रकारों में एक विशेष खूबी जो अब कम ही दिखाई देती है, वे समाज की विसंगतियों, विडम्बनाओं पर कटु प्रहार ही नहीं अपितु उसे अपेक्षित दिशाबोध भी कराते थे। दरअसल ये समाज के कुशल चित्रकार होते थे। इनकी कलम में वह रंग और ब्रश में वह ताकत होती थी कि जब अखबार रुपी कैनवास पर चलती तो समाज की हर आकृति स्पष्ट उभर कर आती थी। नेता, अफसर, पूँजीपति या फिर कोई और चाहे बाहूबली ही क्यों ना हो थर्राते थे।

सबसे बड़ी और खास बात ये सही मायने में राष्ट्र को दिशा दिखाने वाले होते थे। ना कोई दल ना दलदल जिसमें ये फंसे हों। मुझे सारे देश का तो नहीं मालूम पर पर हाँ , मध्य प्रदेश के सूचना-प्रसारण, आकाशवाणी, शिक्षा विभाग और अन्य विभागों में कवि, लेखक, साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकार ज्यादातर काम किया करते थे जिनमें कुछ नाम मुझे याद हैं — अम्बाप्रसाद श्रीवास्तव विनोद तिवारी, दुष्यंत कुमार त्यागी, शरद जोशी, विद्रोही, बटुक चतुर्वेदी, राजेन्द्र अनुरागी, राजेन्द्र जोशी, प्रेम त्यागी, प्रभाकर श्रौत्रिय, राजेन्द्र अवस्थी, शैरी भोपाली, राम प्रकाश त्रिपाठी और भी बहुत से ख्याति नाम हैं जो सरकारी नौकरियो में होते हुए अपनी धारदार लेखनी और बेबाक टिप्पणियों के लिये मशहूर थे। तब के राजनीतिक दल भी इन्हें डरा नहीं पाते थे। वक्त पड़ने पर वे इनसे सलाह ,इनकी कविताओं, लेखों का भी सहारा लेने में संकोच नही बपरते थे। मुझे याद है पापा को जब ” नगर श्री” की उपाधि से सम्मानित करते हुये तात्कालिक म. प्र. के मुख्यमंत्री मा. अर्जुन सिंह जी ने मंच से उनकी खुले दिल से तारीफ की थी। जब अर्जुन सिंह जी पंजाब के राज्यपाल बने तो उन्होंने अपने प्रदेश के इस कवि को फिर याद किया और प्रथक खालिस्तान की मुहिम में जलते हुए पंजाब की जनता को समझाने के लिए कविता मांगी, तब पापा की कविता मुझे ठीक से पूरी तरह याद नहीं पर कुछ कुछ याद है—

अय गुरु दे वन्दे ये तू कि करदा,
भारत माँ दी माँग अंगारे क्यूं भरदा।

बाज, पराए हाथों उडकर, गौरइयों को मारे,
ये कैसी नादानी
बहकांवे में आकर मारा-मारी क्यूं करदा।

अय गुरु …………

जिस डाली पर बैठा, काटे
काली दास दी वो होश्यारी क्यूं करदा

अय गुरु…..

वहाँ के अखबारों, पंजाब संदेश में छपी और बेहद सराही गई। आपातकाल के खिलाफ भी इन सबने अपनी लेखनी का भरपूर इस्तमाल किया। उस दौर में दुष्यंत कुमार त्यागी, शरद जोशी, राजेन्द्र अनुरागी, राजेन्द्र माथुर और इन सबकी मित्र मंडली ने अपनी-अपनी लेखनी से कटु प्रहार किए। एक समय ऐसा भी था जब साहित्यकार पत्रकार लगते और पत्रकार साहित्यकार। आज मैं पापा के साथ-साथ मध्य प्रदेश के उन महान पत्रकारों को भी यादें सुमान समर्पित करती हूँ जो उस दौर में अपनी लेखनी से राष्ट्र को दिशानिर्देश कर रहे थे। मैं स्मरण करना चाहूँगी — आदरणीय प्रभाष जोशी जी, आ. माया राम सुरजन, आ. रामशंकर अग्निहोत्री, आ. राहुल बारपुते, आ. राजेन्द्र माथुर , आदरणीय ओम कुंन्द्रा , आ. बालमुकुंद भारती, आ. राज बाहदुर पाठक, आ. श्रीधर जी, आदरणीय रामेश्वर संगीत, आ. यशवंत अरगरे, आ. सत्यनारायण श्रीवास्तव, आ. बलभद्र तिवारी, आदरणीय एन राजन, आ. के. पी. नारायणन् , आदरणीय तंरगी जी, आदरणीय जगदीश गुरु, आदरणीय ध्यान सिंह तोमर राजा, आदरणीय मदन मोहन जोशी ,आदरणीय त्रिभुवन यादव, आदरणीय श्याम सुन्दर बैहार, आदरणीय कमाल खान कमाल, आदरणीय महेश श्रीवास्तव, ये वे सब लोग हैं जो पापा से उम्र मे दो चार साल बडे थे या हम उम्र थे, पर दोस्ती गजब की थी। पापा के बाद की पीढी के पत्रकारों में जो उनके बहुत करीब रहे उनमें जगत पाठक, अरुण पटेल, सोमदत्त शास्त्री, मधुकर द्विवेदी, मलय श्रीवास्तव, विनोद तिवारी, अवधेश बजाज, विजय दास, राजेन्द्र नूतन , राकेश जैन , शलभ भदौरिया और भी बहुत से पत्रकारों से भी उनकी खूब जमती थी।

उम्र के अन्तर को उन्होंने कभी महत्व ही नहीं दिया सब उनके प्यारे भाई होते थे और वे सबके प्यारे। और अब की बात करुं सबसे सबसे युवा पीढ़ी की तो उसमें एक बहुत प्यारा नाम है मनीष दिक्षित का जो पापा की बाहों में झूला है, पापा के कंधों पर थपकी के साथ एक राज के बेटे वाली लोरी सुनी है और पापा का ढेंर सारा प्यार और आशीष उसके पास है।

सबसे पहले यादों के इस सुनहरे संदूक से जो यादें बाहर आ रही है वह है आ. रामशंकर अग्निहोत्री दादा की, सफेद झक धोती -कुर्ता लम्बा कद् और सदा बहार मुस्कान बिखेरते हुए बाहर से ही राजन ….कह पापा को पुकारते हुये घर में प्रवेश करते। हम बच्चे उनसे ऐसे चिपकते जैसे कोई बहुत ही प्रिये बरसों बाद मिला हो। दरअसल हमारे गृह नगर होशंगाबाद जिले के ही थे और पापा को वे अनुज सा ही स्नेह करते । वे हम सब बच्चों को शिक्षाप्रद कहानियां सुनाते, उसमें एक कहानी चुगलखोर हज्जम की हमें इतनी पंसद थी कि हमने हजारों बार उनसे सुनी अपने बच्चों को सुनाई उनके बच्चों को भी सुनाते हैं और उस कहानी की एक लाईन है —किन ने कही , हम आज भी उन्हें किनने कही दादा के नाम से ही याद करते हैं।बड़े हुये तब जाना कि हमारे किन ने कही दादा कितनी बड़ी शख्सियत हैं।

एक बार शरद जोशी अंकल के साथ राजेन्द्र माथुर जी घर आये पापा ने जब हम बच्चों का उनसे परिचय कराया तो कुछ इस तरह से — बच्चों ये प्यारे भाई राजेन्द्र माथुर हैं, मेरे हमनाम, फर्क यह है कि मैं हिन्दी का प्रोफेसर हुआ करता था और ये अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं।पर हाँ एक गहरी समानता है कि दोनों ही नर्वदा के किनारे के वासी हैं और हिन्दी में लिखते हैं। वे हमारे यहाँ कभी कभार ही आये पर पापा से उनकी मुलाकातें अक्सर होती। वे शरद जोशी अंकल के गहरे दोस्त थे और सूचना प्रसारण विभाग में इनकी बैठकें भी खूब होती। पापा कहते -यार शरद तूने एक अच्छे -खासे प्रोफेसर को पत्रकार बना दिया। किस्सा शायद कुछ यूं था कि शरद अंकल ने उनकी लेखनी के तीखेपन को पहचाना और राहुल बारपुते जी से मिलवा दिया बस फिर क्या था वे देश के जाने-माने पत्रकार हुये।वे बहुत ही सरल और सहज व्यक्तित्व के धनी थे।

एक बार प्रभाकर श्रोत्रिय अंकल को कहते सुना था –दादा आपको और राजेन्द्र माथुर जी को पढ़कर लगता है कि आप लोग कभी कांग्रेसी हो ,तो कभी पूरी तरह समाजवादी , लोहियावादी हो तो कभी भ्रम होता है आप जनसंघी और हिन्दूवादी हो तो किन्हीं रचनाओं को पढ़कर तो लगता है आप कमि्न्यूस्ट हो। असल बात तो यह थी कि ये दोनों कोई वादी नहीं थे। ये दोनों पूरी तरह राष्ट्रवादी थे। सभी विचारधाराओं में डूबकी लगाते हुये सबकी अच्छाईयों की तारीफ और बुराइयों पर प्रहार करते हुये ऊपर आ जाते। इन्हें कोई अपने में बांध पाये नामुमकिन था।

वर्तमान में जब पत्रकारिता खेंमों ,साहूकारों, राजनीतिक पार्टियों की विज्ञापनी हो गई हो तो इनकी याद आना स्वाभाविक है। लोगों का कहना है कि राजेन्द्र माथुर जी अपने अंतिम समय में मानसिक रुप से परेशान थे जिसका कारण यही बाजारवाद और पूँजीवाद था जिससे वे कभी समझौता नहीं करना चाहते थे। नर्वदा के पानी या उसके किनारे की माटी का ही प्रताप कहिए कि पापा के एक और मित्र प्रभाष जोशी जी। जब बड़ी हुई तब जाना कि यह एक बहुत बड़ा नाम है वरना जब हम छोटे-छोटे हुआ करते थे और कभी उनका आना होता तो स्व. आलोक भाई के छोटे से बल्ले से किक्रेट खेलते। बचपन में उनकी वाणी के ओज को सुना पर बाद में तो एक दो बार दिल्ली में जरुर अच्छे से मुलाकात हुई पर भोपाल में उनसे दो-चार बार के बाद भैंट न हो पाई।

आ. ओम कुंद्रा दादा का भी हम सब बच्चों पर असीम स्नेह रहा , वे अक्सर घर आ जाते और फिर मौजू हालातों पर चर्चा शुरू होती तो घंटों का पता ही नहीं चलता। यही हाल ध्यान सिंह तोमर अंकल , महेश श्रीवास्तव अंकल, नर्वदा प्रसाद त्रिपाठी अंकल, सत्यनारायण श्रीवास्तव अंकल जिन्हें प्यार से पापा सत्तू भैया पुकारते थे , का भी था जब कभी आते तो चाय के प्याले खत्म होते जाते कब चर्चा बहस में और फिर ठाहको में तब्दील हो जाती पता ही नहीं चलता। अच्छा था उस समय यह कमबख्त मोबाइल नहीं था वर्ना यह घंटों की गोष्ठियां मिनटों की हो जाती या आज की तरह होती ही नहीं। अब तो पापा के ही शब्दों में …

पैगाम तो आते हैं, पर यार नहीं आता।
इंसान में इंसाँ का, किरदार नहीं आता।

सभी महान पत्रकारों से जुड़ी अनेकों यादें हैं पर फिर कभी उन्हें लेकर आऊंगी, इस समय मैं आदर के साथ मधुकर भाई साहब का जिक्र करना जरुर चाहूंगी , एक समय आया कि पापा को अपना सरकारी आवास अचानक खाली करना था , बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी अतः इस बात को बहुत कम में बहुत कह कर समाप्त करुंगी, पापा के पास मुकेश नायक भाई आकर बैठे थे तभी पापा ने उन्हें एक कविता दी —

” घर तो दरअसल था ही नहीं, मैं जिसे घर कहता रहा
घर मुझे सहता रहा या मैं उसे सहता रहा।
शुक्रिया ,जो आपने मुझको दिया अहसासे घर
मैंने जाना, रास्ते में मील का पत्थर रहा।

और कहा भाई ये तुम —उन तक पहुंचा देना। और पापा के इस नेक बेटे मुकेश नायक ने रातों रात पापा को एक खूबसूरत बंगले में शिफ्ट कर दिया, पता चला कि वह बंगला किसी और का नहीं, मधुकर द्विवेदी जी का है और उन्होंने पूरे सम्मान के साथ पापा को वहाँ इस भाव से रखा मानों उन्हें रख वे भाग्यशाली हो गये हों। पापा ने जब कुछ देने की मंशा से घर खाली करते समय एक चैक दिया जिसे उन्होंने पापा के आशीष स्वरुप ग्रहण तो किया पर भुनाया नहीं। मैं उनकी सदा ऋणी रहूँगी। हरी अनंत हरी कथा अनंता, अभी तो यादें असीम हैं।



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