ऋचा अनुरागी।
दो दिनों से बुखार और थ्रोड़ इनफेक्शन से पीडित हूँ और माँ-पापा बहुत याद आ रहे हैं । बचपन में जो कभी बीमार हो जाती तो पापा के काले मोटे फोन का रिसीवर कान पर और ऊँगलियाँ घिर-घिर नम्बरों को घुमाती रहती और देखते ही देखते डॉ.के.सी जैन,डॉ.बलवापुरी,डॉ.टंडन,डॉ.बोस डॉ.श्रीवास्तव आंटी ,आधा दर्जन से ज्यादा डॉ.घर पर होते ।माँ तब तक दो-तीन तरह से नज़र उतार चुकीं होती ।
आज हँसी आती है कि नार्मल बुखार में पापा हर मर्ज के विशेषज्ञों की टीम बुला लेते थे और सबसे बडी बात ये सब भी बडी सहजता से पापा के बुलावे पर आ भी जाते थे और सुबह -शाम वकायदा आकर अपना फर्ज भी निभाते। मुझे देखते हुये डॉक्टरों की टीम माँ से मुखातिब होती भाभी आप तो कुछ खाने का इंतजाम करे और फिर एक बार मेरे आस-पास हँसी-ठहाके होते मैं बीमारी भूल जाती। माँ कभी मखाने तल कर खिलाती कभी सेव फल में काला नमक भुरक कर स्वादिष्ट बना देती ,मुन्नका यानी बड़ी किश्मिश की सौंधी टिकिया मना-मना खिलाती ,तकिये के नीचे सरोती रख दी जाती ,एक पल भी अकेले नहीं छोडा जाता और ऐसा हर बच्चे के बीमार होने पर होता था।
पापा की कुर्सी मेरे पलंग के पास लग जाती उनका हाथ बार-बार सर को सहलाता हुआ थर्मामीटर और मानो पानी की ठंडी पट्टी का काम करता। दो दिनों के सीजनल बुखार की ऐसी तीमारदारी की लगता था कि ठीक ही ना हुआ जाए। बहरहाल अब तो बस यादें हीं शेष हैं ।
आज बस पापा की कविता को आँखें मूंद कर जी लेने का मन है --
सुगन्ध हो जाने का मन
आज नहीं है गाने का मन
सारे सम्बोधन से कट कर
व्यक्ति मात्र हो जाने का मन
आज नहीं है गाने का मन।
इतना गाया ,कितना गाऊँ
कब तक खुद को और रिझाऊँ
लय में डूब नहाने का मन।
तुमने जो रिश्ते बाँधे थे,
उनकी गाँठे खोल रहा हूँ
कल तक जो गाने में चुप था
आज मौन में बोल रहा हूँ
मुखर मौन हो जाने का मन।
तुम सुन्दर हो मैं आँखें हूँ
बस इतना रिश्ता क्या कम है
इससे आगे नहीं सोचना
तुमको मेरी प्राण कसम है
यह कह कर सो जाने का मन।
फूलों का आकार गन्ध है
जिसकी नहीं परिधी-सीमाएँ
धूपदान के अगरु-धूप-सी
अपने जीवन की रेखाएँ
बस सुगन्ध हो जाने का मन।
आज नहीं है गाने का मन।
Comments