आज आठ बरस बीत गये, पापा को आसमानी हुये। अनंत में विलीन सुनहरे विराट पंखों वाले पापा। अब वे दिखते नहीं महसूस किए जाते हैं, ठीक बिल्कुल वैसे ही जैसे परमात्मा। अपने परम से मिलना ही परमात्मा से मिलना होता है और मुझे मेरा परम मिल चुका है,वही मेरा परमात्मा है, जिसे मैंने बहुत करीब से देखा है, मुझे इस संसार में लेकर आया है, जिसने मुझे बेपनाह प्यार किया है। मेरे बाबा कहते थे तुमने या किसी ने भी भगवान को देखा है क्या ? नहीं ना। कहाँ और क्यों खोजते हो, इस धरती पर भगवान तुम्हारे माता पिता ही हैं। पिता सर पर आसमान की तरह है, उनके बगैर जीवन की कल्पना कर ही नही सकते, उनके आशीष की छाया है तो हम हैं।
इंसान जन्म लेता है अपनी उम्र जीता है और चला जाता है। विरले ही होते हैं जिन्हें हजारों लोगों का प्यार, सम्मान, स्नेह मिलता हो। उनके जाने के बाद साल बीत जाता है और उनके लिये शोक सभाऐं खत्म नहीं होती, शहर के हर गली- मोहल्ले में उन्हें याद किया जाता हो। ऐसी ही प्यारी शख्सियत थी मेरे पापा और आप सब के अनुरागी की। मुझे याद है उनके लिए आयोजित एक शोक सभा में आदरणीय कैलाश पंत अंकल ने कहा था – अब शोक सभाऐं खत्म करिऐ, बस करिए हमारे आंसू रुकने दो। अनुरागी हँसने-हँसाने वाला प्यार बांटने वाला इंसान था, उन्हें हँसते हुए याद रखिए। तब कहीं जाकर यह सिलसिला थमा।
कहीं’ अनुरागी’ मिले तो भुजाओं में भर लीजिये
उसे तो वैसे दिल में लिए रहते हैं लोग।
सच है वे अमृता प्रीतम के “ओशो के दरवेश” थे,तो ओशो के लिये परम सखा थे। आदरणीय भवानी प्रसाद मिश्र दादा उन्हें अपना अनुज मानते हुये पुत्रवत स्नेह करते। श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान और माखनलाल चतुर्वेदी जी की गोद में बैठ कविता सुनाने वाले परम भाग्यवान पापा ही होंगे। राष्ट्र कवि रामधारीसिंह दिनकर, श्री माखनलाल चतुर्वेदी, श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान, श्री हरिवंशराय बच्चन, श्री भवानीप्रसाद मिश्र, श्री भवानीप्रसाद तिवारी, श्री गोपाल सिंह नेपाली, श्री गोपाल दास नीरज, श्री काका हाथरसी और अनेक शीर्षस्थ कवियों के साथ काव्य-पाठ किया और सबके प्रिये बने रहे। शिवमंगल सिंह सुमन जी ने लाल किले के मंच से ‘नेहरु’ जी से कहा था –मैं आपके सामने अपनी नहीं, अपने मध्यप्रदेश के एक कवि राजेन्द्र अनुरागी की ये पंक्तियाँ पढ़ना चाहता हूँ, देश को आज जरुरत इन्हीं पंक्तियों की है।
“आज अपना देश सारा लाम पर है,
जो जहाँ भी है वतन के काम पर है।”
शिवमंगल सिंह सुमन जी ने पापा और पापा की रचनाओं को बेहद प्यार किया। उन्होंने पापा के बारे में लिखा भी था,”अनुरागी” ने अपने नाम को सार्थक करते हुए राग के सहज संवेद्य तत्व को ग्रहण किया है, जो आदिकवि की बहूमूल्य धरोहर के रुप में केवल भारतीय ही नहीं अपितू विश्व- साहित्य को प्राप्त हुआ है।” मशहूर गज़ल गायक मेंहदी हसन साहब ने भारत प्रवास के दौरान जब पापा को सुना तो उनके गीत-गज़ल गाने की इच्छा जाहिर की। कोई और होता तो यह मौका नहीं छोड़ता पर फकीरी मिजाज के अनुरागी ने बात को हवा में उड़ा दिया। भगवत रावत अंकल पापा को फक्कड़ फकीर यार कवि कहते थे। वे उनके लिये कहते,अनुरागी जी के मन में जो आया गाया। ना किसी विचार की परवाह की ना किसी सिध्दान्त की और जीवन में भी उन्होंने वो सब कुछ छोड़ दिया जो उन्हें विरासत में मिल सकता था।
आदरणीय कैलाश पन्त अंकल भी उन्हें सच्चे अर्थों में जन कवि मानते हुए कहते हैं -उनका जुड़ाव किसी मतवाद से नहीं था, किसी विचारधारा से बंधकर अनुरागी ने कविता नहीं लिखी। कबीरी फक्कड़पन के साथ आम जन के अनुभवों को शब्द में ढालते थे और इसलिये उनकी कविता की अनुगूंज सामान्य जनता में सुनाई पड़ती थी। उनके चाहने वाले उनके बारे में कहते,होशंगाबाद की नर्मदा की लहरों सा निश्छल स्वभाव था तो भोपाली खुलूसी मोहब्बत से भरा दिल था। कोई कहता कि उन्हें देख लगता था कि सम्पूर्ण कविता ही चली आ रही हो, तो कोई कहता वे युग पुरुष थे तो कोई उन्हें गीत ऋषी से संबोधित करता। कोई क्रांतिकारी राष्ट्र कवि कहता तो कोई तो उन्हें महा मानव तक की उपाधि दे देता। किसी को उनमें पिता का रुप नजर आता, तो कोई उन्हें सखा रुप में देखता। जितने लोग मिलते सबके अपने-अपने अनुरागी होते।
तुलसीदास जी ने शायद सही कहा, जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। और पापा को लोग अपने ही अनुरुप देखते। पर एक बात सब समान रुप से कहते -अनुरागी जी मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते थे या अनुरागी जी मुझे बहुत चाहते थे। पापा सबसे इतना प्यार कैसे कर पाते थे समझ नहीं आता।हमने जीवन में कभी किसी की बुराई नहीं सुनी। हर मिलने वाला उनके लिए परम प्रिय होता। उनके चाहने वालो में राजनेता,अभिनेता, पत्रकार, गायक, संगीतकार, आई ए.एस, आई.पी.एस. ऑफिसर वर्ग हो या छोटा सा कर्मचारी हो, पान की दुकान वाला हो या फिर बड़े शो रुम का मालिक।साहित्य विरादरी तो उनकी अपनी थी ही। वे कभी किसी खेमें, गुटबाजी में नहीं रहे, शायद इसलिए ही सबसे प्यार कर सके और पा सके।
यकीनन उसमें कोई बात होगी ये
दुनियां यों ही पागल तो नहीं है।
पापा का एक गीत जो मुझे बेहद पंसद है
भजन नहीं हो पाया
जिस दिन कोई रतन, धूल से उठा,
नहीं चूमा-दुलराया।
जिस दिन कोई वक्ष, स्वयं के
मधुर वक्ष से नहीं लगाया।
उस दिन भले बाग में पहुंचा
लेकिन चयन नहीं हो पाया।
पथ चलते जिस दिन दे पाया
नहीं किसी को बाँह सहारा।
थामी नहीं सूर की लाठी
पथ भूले को नहीं पुकारा।
उस दिन मन्दिर में तो पहुंचा
लेकिन भजन नहीं हो पाया।
जिस दिन मीत, नहीं गा पाया
मैं अपने मनचाहे गाने।
जिस दिन नहीं श्रवण से भेंटी
बंसी की मनभावन तानें।
उस दिन भले सेज पर लेटा
लेकिन शयन नहीं हो पाया।
यह उनकी दिल की गहराई से निकला यथार्थ है। उनकी यही वास्तविक जीवनशैली थी। मेरी कलम थकने वाली नहीं पर, आज मुझे उसे विराम देना ही होगा। पापा की तारों सी झिलमिलाती यादों के साथ बस इतना कहना चाहूंगी–
घाटियों को पार करके
मुझ तक
पहुँच जाती है तुम्हारी पुकार
काश कि
आवाज़ के तुरंग पर
सवार हो कर
तुम भी आ पाते
तुम नहीं आते
तुम्हारी याद आती है
याद के पँख होते हैं अनंत
याद को थकान नहीं होती
पाथेय लेकर नहीं चलना पड़ता याद को
काश मैं
हाड-मांस की बजाय याद होती
तुम्हारे पास हर कहीं, हर वक्त आ जा तो पाती
पापा की ऋछू दीदी
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