रेहान फ़ज़ल ,बीबीसी
बिस्मिल्लाह ख़ाँ के लिए संगीत, सुर और नमाज़ एक ही चीज़ थे. वो मंदिरों में शहनाई बजाते थे, सरस्वती के उपासक थे और गंगा नदी से भी उन्हें बेपनाह लगाव था.साथ ही साथ वो पांच वक़्त नमाज़ पढ़ते थे, ज़कात देते थे और हज करने भी जाया करते थे.संगीत के प्रति उनका इतना गहरा लगाव था कि जब कभी वो इसमें डूबते थे तो अपनी नमाज़ भी भूल जाते थे.
उनका मानना था कि अगर संगीत बाअसर है तो वो किसी भी नमाज़ या प्रार्थना से बढ़कर है. उनके संगीत का यही आध्यात्मिक गुण श्रोताओं को उनसे बांधता था.1947 में जब भारत आज़ाद होने को हुआ जो जवाहरलाल नेहरू का मन हुआ कि इस मौके पर बिस्मिल्लाह ख़ाँ शहनाई बजाएं.
स्वतंत्रता दिवस समारोह का इंतज़ाम देख रहे संयुक्त सचिव बदरुद्दीन तैयबजी को ये ज़िम्मेदारी दी गई कि वो खाँ साहब को ढ़ूढें और उन्हें दिल्ली आने के लिए आमंत्रित करें.बिस्मिल्लाह खाँ उस समय मुंबई में थे. उन्हें हवाई जहाज़ से दिल्ली लाया गया और सुजान सिंह पार्क में राजकीय अतिथि के तौर पर ठहराया गया.
बिस्मिल्लाह ख़ाँ पर फ़िल्म बनाने वाली और उन पर किताब लिखने वाली जूही सिन्हा याद करती हैं कि बिस्मिल्लाह इस बड़े अवसर पर शहनाई बजाने का मौका मिलने पर उत्साहित ज़रूर थे, लेकिन उन्होंने पंडित नेहरू से कहा कि वो लाल किले पर चलते हुए शहनाई नहीं बजा पाएंगे.
नेहरू ने उनसे कहा, "आप लाल किले पर एक साधारण कलाकार की तरह नहीं चलेंगे. आप आगे चलेंगे. आपके पीछे मैं और पूरा देश चलेगा."
बिस्मिल्लाह खाँ और उनके साथियों ने राग काफ़ी बजा कर आज़ादी की उस सुबह का स्वागत किया.1997 में जब आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मनाई गई तो बिस्मिल्लाह ख़ाँ को लाल किले की प्राचीर से शहनाई बजाने के लिए फिर आमंत्रित किया गया
बिस्मिल्लाह ख़ाँ बनारस के बालाजी मंदिर के बग़ल वाले कमरे में सुबह साढ़े तीन बजे से रियाज़ करना शुरू कर देते थे. गंगा से बालाजी मंदिर तक वो 508 सीढ़ियाँ चढ़ कर जाते थे.युवावस्था में ही उन्हें अपने संगीत की गहराइयों का आभास हो चला था. संगीत साधना करते हुए उनके लिए बाहरी दुनिया का कोई वजूद नहीं रहा करता था.
उनके मामू इसे ’असर’ कहते थे, जब संगीत कला न रह कर ईश्वर से मिलन का एक माध्यम बन जाता था.एक बार बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने बीबीसी को बताया था, "देखिए ये है बड़ी पवित्र चीज़, बड़ी पाक़ साफ़. जहाँ हम रियाज़ करते थे बालाजी मंदिर में, वहाँ मेरे मामू ने 18 साल तक रियाज़ किया. जब हमें रियाज़ करते हुए साल भर हो गया तो एक दिन मुझसे कहने लगे कि अगर कुछ देखना तो कुछ कहना मत. मेरी दस-बारह साल की उम्र थी. मुझे अंदाज़ा ही नहीं हुआ कि ये कहना क्या चाह रहे हैं. एक रोज़ हम बड़े मूड में बजा रहे थे....कि अचानक मेरी नाक में एक ख़ुशबू आई. हमने दरवाज़ा बंद किया हुआ था जहाँ हम रियाज़ कर रहे थे. हमें फिर बहुत ज़ोर की खुशबू आई. देखते क्या हैं कि हमारे सामने बाबा खड़े हुए हैं...हाथ में कमंडल लिए हुए. मुझसे कहने लगे बजा बेटा... मेरा तो हाथ कांपने लगा. मैं डर गया. मैं बजा ही नहीं सका. अचानक वो ज़ोर से हंसने लगे और बोले मज़ा करेगा, मज़ा करेगा...और वो ये कहते हुए ग़ायब हो गए."
ख़ाँ साहब ने बताया, "घर आकर जब मैंने मामू को ये बात बतानी चाही तो वो समझ गए कि इसका हो गया सामना.उनकी पूरी कोशिश थी कि मैं उनको ये बात न बताऊँ... इसलिए वो मुझसे कहने लगे...तुम यहाँ चले जाओ...वहाँ चले जाओ. लेकिन जब इस पर भी मैंने उनका इशारा नहीं समझा तो उन्होंने मुझे ज़ोर से तमाचा मारा. वो बोले कि, "अब देखना तो कभी इसके बारे में बात नहीं करना."
बिस्मिल्लाह ख़ाँ की राष्ट्रीय पहचान तीस के दशक में कलकत्ता के एक संगीत सम्मेलन में मिली, जिसे बिहार के भूकंप पीड़ितों की सहायता के लिए आयोजित किया गया था.
बहुत कम लोगों के पता है कि बेगम अख़्तर ने भी उसी संगीत सम्मेलन से अपने करियर की शुरुआत की थी. बाद में बिस्मिल्लाह ख़ाँ और बेगम अख़्तर एक दूसरे के मुरीद बन गए.कहानी है कि गर्मी की एक रात ख़ाँ साहब को नींद नहीं आ रही थी. दूर सड़क पर उन्हें एक स्वर लहरी सुनाई दी और वो उसे सुन कर बैठ गए.
कोई महिला कशिश भरी आवाज़ में गा रही थी...'दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे...'बिस्मिल्ला ख़ाँ ने किसी से पूछा तो पता चला कि ये बेगम अख़्तर की आवाज़ है.बेगम अख़्तर जब ऊँचे स्वर पर जाती थीं तो एक ख़ास जगह पर उनकी आवाज़ टूट जाती थी.बिस्मिल्लाह कहते थे कि हालांकि संगीत की दुनिया में इसे ऐब समझा जाता है, लेकिन यही ऐब बेगम अख़्तर की आवाज़ को एक ख़ास गुण प्रदान करता था.
जूही सिन्हा बताती हैं कि बिस्मिल्ला कहा करते थे कि वो ख़ास तौर से उस लम्हे का इंतज़ार किया करते थे, जब बेगम अख़्तर की आवाज़ टूटने वाली हो.
जब ऐसा होता था तो उनके मुंह से निकलता था, ‘अहा !’ बेगम अख़्तर आश्चर्यचकित होकर उनकी तरफ़ देखती थीं और बिस्मिल्लाह ख़ाँ के मुंह से बेसाख़्ता निकलता था, "यही सुनने तो हम आए थे."
बिस्मिल्लाह ख़ाँ और महान सितारवादक उस्ताद विलायत ख़ाँ के बीच भी एक ख़ास रिश्ता था. जब बारीक जुगलबंदी की बात आती थी तो वो बिस्मिल्लाह ख़ाँ के साथ बजाना पसंद करते थे.
विलायत ख़ाँ की बेटी और जानी-मानी गायिका ज़िला ख़ाँ कहती हैं, "बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई में एक ठुमरी अंदाज़ भरा हुआ था. अब्बा इस चीज़ को समझते थे और हमें बताते भी थे कि जुगलबंदी में एक दूसरे को सहारा और निवाला देने की ज़रूरत होती है, जिससे सामने वाले की रूह खुल सके."
एक बार विलायत ख़ाँ ने उनके बारे में कहा था, "हमारी और भय्या की रूह एक है."
मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघुराय ने भारत के संगीत सम्राटों पर किताब लिखी है. उन्हें विलायत ख़ाँ और बिस्मिल्लाह ख़ाँ दोनों को सुनने का सौभाग्य मिला है.
रघु राय कहते हैं, "दुनिया में तीन जोड़े ऐसे हैं जिन्होंने कमाल की जुगलबंदी की है...एक तो हैं विलायत ख़ाँ और बिस्मिल्लाह ख़ाँ, दूसरे रविशंकर और अली अकबर ख़ाँ और तीसरे, हरि प्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा. लेकिन विलायत ख़ाँ और बिस्मिल्लाह ख़ाँ में जो संवाद था और जैसे वो एक दूसरे की संगीत की एक-एक बारीकियों पर कुर्बान होते थे, वो देखने लायक चीज़ हुआ करती थी."
राय ने आगे कहा, "1970 में विज्ञान भवन में विलायत ख़ाँ साहब का कॉन्सर्ट था. मैं तीसरी लाइन में बैठा हुआ था. मेरी अगली लाइन में बिस्मिल्ला ख़ाँ बैठे थे श्रोता के रूप में. जब विलायत ख़ाँ ने दरबारी कान्हड़ा में सितार वादन शुरू किया और जैसे जैसे गहनता बढ़ती जाती, बिस्मिल्लाह ख़ाँ अपनी जगह पर खड़े होते, अपनी टोपी उतारते...और उनके कमाल की दाद देते. एक लेजेंड का दूसरा लेजेंड को इस तरह सम्मान देते देखना बहुत ही भावुक अनुभव था."
बिस्मिल्लाह ख़ाँ को फ़िल्में देखने का बहुत शौक था. सुलोचना उनकी पसंदीदा अभिनेत्री थीं.उन्होंने 1959 में एक फ़िल्म 'गूंज उठी शहनाई' का संगीत निर्देशन भी किया था. उसमें उन्होंने एक गीत को सुर दिया था..."दिल का खिलौना हाए टूट गया."
जूही सिन्हा कहती हैं कि इस गीत के पीछे भी एक कहानी है. अपनी जवानी के दिनों में ख़ाँ साहब एक महिला के काफ़ी क़रीब थे.जूही बताती हैं, "उस महिला का नाम था बाला और वो उनके लिए कजरी गाया करती थीं, ’बरसे बदरिया सावन की’, गूंज उठी शहनाई का वो गाना उस कजरी की धुन पर आधारित था."
शुरू में बिस्मिल्लाह ख़ाँ को हवाई जहाज़ से सफ़र करने में डर लगता था. लेकिन बाद में ये डर जाता रहा और उन्होंने दुनिया के हर कोने में अपने कॉन्सर्ट किए.सफलता उनके कदम चूमती गई, लेकिन उनके रहन-सहन का ढ़ंग हमेशा एक सा रहा, सादगी से भरपूर.जाड़े में वो अपने घर के आँगन में चारपाई पर बैठते, धूप का आनंद लेते और उनके पीछे तार पर उनके कपड़े सूख रहे होते.
जूही सिन्हा कहती हैं, "ताउम्र उन्होंने अपने कपड़े ख़ुद धोए और वो हमेशा बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहनते थे. उनके कमरे में एक चारपाई और बिना गद्दे वाली कुर्सी के अलावा कुछ नहीं था. उन्होंने कभी कार नहीं ख़रीदी और हमेशा रिक्शे से चले. उन्होंने कभी शराब नहीं पी. हाँ कभी-कभी वो विल्स की एकाध सिगरेट ज़रूर पी लिया करते थे."जूही बताती हैं, "एक बार उनके एक प्रशंसक ने उनके कमरे में एक कूलर लगवाने की पेशकश की थी, जिसे बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने ये कह कर अस्वीकार कर दिया कि यही पैसे ग़रीब विधवाओं को दे दिए जाएं."
बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने शहनाई को नौबतख़ानों और शादी की दहलीज़ से उठा कर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया.उन्होंने सिर्फ़ अपने बूते पर शहनाई को एक आम साज़ से उठा कर एक सुसंस्कृत साज़ की श्रेणी में ला खड़ा किया. एक इंसान के रूप में वो धर्मनिरपेक्ष भारत के सबसे बड़े प्रतिरूप बने.जब 2006 में बनारस के संकटमोचन मंदिर पर हमला हुआ तो बिस्मिल्लाह ख़ाँ ने गंगा के किनारे पर जा कर शाँति और अमन के लिए शहनाई बजाई.
उन्हें अपने शहर के लोगों से कोई अपील नहीं करनी पड़ी. उनकी शहनाई से सिर्फ़ एक सुर निकला... महात्मा गांधी का प्रिय भजन... रघुपति राघव राजा राम....
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