हेमंत कुमार झा।
बचपन में एक बार यह जान कर मैं अचंभित रह गया था कि ब्राह्मणों की कोई एक उपजाति होती है जिसका काम है आयुर्वेद पढ़ना और वैद्य बन कर लोगों का इलाज करना। मतलब कि बच्चे को पता है कि उसे बड़े होकर वैद्य ही बनना है क्योंकि उसके पिता, दादा, परदादा आदि यही करते रहे हैं। किसी महान शास्त्र के अध्ययन को इतना संकुचित कर देना उसके विकास की राह में कहीं न कहीं बाधा जरूर बना होगा।
मुझे नहीं पता कि इतिहास के किस दौर में ब्राह्मणेतर जातियों के बीच आयुर्वेद पढ़ने की ललक जगी और समाज ने उन्हें इसकी अनुमति दी। लेकिन, इतना अंदाजा है कि इस प्रवृत्ति को बहुत अधिक बढ़ावा नहीं मिला होगा और वैद्य बनना कुछ खास परिवारों के लोगों का ही विशेषाधिकार रहा हो।
चिकित्सा के पेशे में श्रेष्ठ प्रतिभाओं को आना चाहिये लेकिन आयुर्वेद के अध्ययन को कुछ खास लोगों के दायरे में बांध देने से इसमें समयानुकूल शोध और अनुसंधानों की गुणवत्ता जरूर प्रभावित हुई होगी। यद्यपि, ऐसा लिखने का यह मतलब नहीं कि जिन्होंने भी इसका अध्ययन किया होगा और वैद्य बन कर लोगों का इलाज किया होगा उनके योगदान को कम करके आंका जा रहा है, किन्तु, जो सच है उसे तो स्वीकार करना ही होगा...और सच यही है कि आयुर्वेद के अध्ययन और अनुसंधान पर इन परंपराओं का प्रतिकूल प्रभाव जरूर पड़ा होगा।
जब आधुनिक चिकित्सा पद्धति, जिसे आमतौर पर एलोपैथ कहे जाने का प्रचलन है, विकसित हुई और हमारे देश में भी इसका विस्तार हुआ तो इसने जल्दी ही मुख्य चिकित्सा पद्धति का रुतबा हासिल कर लिया और आयुर्वेद कहीं साइड में चला गया। उसे साइड में जाना ही था क्योंकि एलोपैथ निरन्तर शोधों और नवीनतम अनुसंधानों से समृद्ध हो रहा था, श्रेष्ठ प्रतिभाएं इसमें आ रही थीं।
धीरे-धीरे आयुर्वेद आमलोगों के लिये हारे को हरिनाम टाइप की चीज बन कर रह गया। एक महान शास्त्र का यह हश्र कहीं से भी सम्मानजनक नहीं था, लेकिन जो सच था वह यही था। यद्यपि, नए दौर में इसके अध्ययन को लेकर जातीय आग्रह शिथिल हुए लेकिन श्रेष्ठ प्रतिभाओं को इस क्षेत्र में आने को प्रोत्साहित नहीं किया गया। एक धारणा बन गई... डॉक्टर साहब मतलब एलोपैथ, आयुर्वेद मतलब कोई वैद्य जी, जो मुख्यधारा की चीज नहीं हैं।
आधुनिक दौर में आयुर्वेद में ठगों का बोलबाला हो गया। सरकारों ने भी इस पर उचित ध्यान नहीं दिया। नतीजा, सख्त और सक्षम नियंत्रण प्रणाली के अभाव में आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण और वितरण की प्रक्रिया अनेक संदेहों से घिरने लगी। लोगों की आस्था का दोहन करते हुए कई कंपनियां बाजार में मालामाल होती रहीं, लेकिन अधिकतर ने गुणवत्ता के मानकों का पालन करने की कोई जरूरत महसूस नहीं की।
निर्माण प्रक्रिया के मानकों का उचित अनुपालन न होने से आयुर्वेदिक दवाओं की प्रभावकारिता घटी जिसने इनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए। प्राचीन काल के मनीषियों ने एक से एक चमत्कारिक औषधियों का फार्मूला दिया लेकिन आज की अधिकतर कंपनियां उनके नाम का इस्तेमाल कर सिर्फ लाभ कमा रही हैं। सख्त जांच हो तो इनमें से कितनों की कलई खुल जाए।
आयुर्वेदिक दवाओं की निर्माण प्रक्रिया और उनमें शामिल सामग्रियों के अनुपात की उचित जांच हो, सख्त नियंत्रण और नियमन प्रणाली हो तो आज बाजार में मुनाफा कूट रही कम्पनियों में आधी से अधिक बन्द हो जाएं।
भले ही परंपराएं महान हों, आज की तारीख में अधिकतर आयुर्वेदिक दवा कंपनियों की कमाई का मुख्य आधार यौन शक्तिवर्द्धक दवाओं का कारोबार ही है। कहने की जरूरत नहीं कि इस कारोबार का बड़ा हिस्सा बाकायदा फर्जी है लेकिन बेरोकटोक चल रहा है और लोगों के लीवर और किडनी को क्षतिग्रस्त करता आयुर्वेद को बदनाम कर रहा है।
बाबा रामदेव ने आयुर्वेद की प्रासंगिकता को बढ़ाया और औषधि निर्माण के क्षेत्र में उतर कर उन्होंने एक उम्मीद जगाई। लेकिन जल्दी ही उनका भटकाव सामने आने लगा और अब तो उनका कारोबार इतना बड़ा और बहुआयामी हो गया है, उनकी निजी महत्वाकांक्षाएँ इतनी बड़ी हो गई हैं कि उनके साथ विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो गया है। अब आंख मूंद कर उनकी कंपनी की दवाओं की गुणवत्ता पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता।
आज की तारीख में आयुर्वेद के साथ यही सबसे बड़ा संकट है। विश्वसनीयता का संकट। एक महान चिकित्सा पद्धति के साथ इस देश ने कभी भी, इतिहास के किसी भी दौर में न्याय नहीं किया। आज भी नहीं कर रहा है।
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