राकेश कायस्थ।
भारत की गरीब जनता ने अब F वर्ड संस्कृत के शब्द रूप या धातु रूप की तरह रट लिया है। दूसरी तरफ साउथ दिल्ली या साउथ बांबे के एलीट (लड़कियों समेत) शुद्ध हिंदी का बीसी एमसी बहुत कूल लगता है।
आखिर गालियों का समाजशास्त्र क्या है और यह किस तरह बदलता है?
अमेरिका से कानून की पढ़ाई करने वाली और एक बड़ी एमएनसी में कार्यरत मोहतरमा ने जब नोएडा के सिक्यूरिटी गार्ड के सामने जब शुद्ध देसी गालियों की झड़ी लगाई तो यह सवाल फिर से मन में आया।
कई साल पहले मैंने इस विषय पर वेबसाइट फर्स्ट पोस्ट के लिए एक लेख लिखा था, आज साझा कर रहा हूं।
ये गाली नहीं है बे
एफ वर्ड अब स्वदेशी है
नये जमाने में सबकुछ एकदम डिफरेंट है। नये कायदों में एक कायदा सोचने से पहले बोलने का है।
मन में आये तो बोलने के बाद सोच लीजिये कि क्या बोला था और हो सके तो मतलब भी पता कर लीजिेये। लेकिन मामला वैकल्पिक है, इसलिए कोई इस चक्कर में नहीं पड़ता।
जो बोल दिया वो बोल दिया, डोंट ट्राई टू प्रीच मी एंड जस्ट ..।
दस साल पहले इस खाली जगह में गेट लॉस्ट भरा जाता लेकिन अब जमाना कैपिटल एफ का है।
कूल एरा के कूल एनवायरमेंट में कैद यह नाचीज़ मॉल से लेकर ऑफिस और फॉर्मल मीटिंग्स से लेकर रेस्टरोंट्स के इनफॉर्मल गेट टू गेदर तक दिन भर में पचास बार `एफ’ वर्ड सुनता है।
इस्तेमाल करने वालों में आधी आबादी की भागीदारी करीब-करीब आधी ही है। कोई टिप्पणी नहीं, जेंडर इक्वलिटी का मामला है।
साउथ बांबे और साउथ दिल्ली की बालिकाओं को हिंदी वाली बीसी एमसी भी बहुत कूल लगती है, खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल करती हैं।
मातृभाषा का इस्तेमाल सिर्फ दूसरों की माताओं और बहनों को याद करने के लिए! सबको पता है कि दुनिया भर में दी जानेवाली तमाम गालियां मर्दवादी हैं, मकसद स्त्री जाति के प्रति शाब्दिक यौन हिंसा है।
सिगरेट के धुएं के बीच कन्याओं के अंग्रेजी वार्तालाप के बीच जब अचानक मां और बहन आ जाती है तो मन ही मन कहता हूं— बहनजी क्या फायदा, थोड़ी मेहनत करके भाई या बाप तक पहुंचिये तो हिसाब बराबर हो।
एक बार मेरा एक जूनियर साथी मेरे पास आया और कहने लगा कि अगर लड़कियों के लिए सार्वजनिक तौर पर गाली देना जेंडर इक्वलिटी का मामला है तो मेरे लिए भी सवाल भाषाई अस्मिता का है।
क्या मैडम वहां खड़ी होकर जोर-जोर से जो कुछ बोल रही हैं, उसका हिंदी अनुवाद करके सबको बता दूं?
मैने कहा—खबरदार! सुपर सॉफिस्टिकेटेड एनवायरमेंट में हिंदी ही अपने आप में एक गाली है।
अगर अनुवाद के चक्कर में पड़ोगे तो दो-दो गालियों का इल्जाम लगेगा। सेक्सुएल हरासमेंट का चार्ज बनेगा वो अलग। नौकरी जाएगी, पक्के तौर पर।
नये जमाने के लड़के अपने सीनियर्स का वैसा लिहाज नहीं करते जैसे बीस साल पहले हमारी पीढ़ी किया करती थी। नसीहत सुनकर सहकर्मी ने फौरन मुझपर फिल्मी डायलॉग चिपकाया-- मैं बोलूं तो साला कैरेक्टर ढीला है।
बात उसकी ठीक थी। इस देश में सामाजिक हैसियत ही शिष्टाचार के मानक तय करता है। लिफ्टमैन, चपरासी या ड्राइवर वे शब्द नहीं बोल सकते जो उसके साहब या मेम साहब दिन में पचास बार बोलते हैं।
हां बराबरी वालों में ज़रूर बोल सकते हैं। गालियां उसी तरह पायदान चढ़ती और उतरती हैं, जिस तरह खानपान की आदतें।
एफ वर्ड अब अंग्रेजी दा लोगो से होता हुआ देसी जबान पर भी चढ़ चुका है। अब ये जनमानस में उतना लोकप्रिय है, जितना ठेले पर बिकने वाला चाउमिन।
ठीक इसी तरह शुद्ध हिंदी वाले बीसी और एमसी अंग्रेजीदां लोगों के बीच अपनी जगह बना रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे गरीबो के बीच इस्तेमाल होनेवाला ब्राउन राइस हेल्थ कांशस अमीर लोग खाते हैं या फिर भारत में बनी फिल्में यूरोप और अमेरिका में चलती हैं।
गालियों के साथ एक बेहद विचित्र बात ये भी है कि उनका विकासक्रम बहुत धीमा है। धर्मशास्त्र और उनकी व्याख्याएं समय के साथ बदल जाते हैं।
एक ही आरती को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके से गाई जाती है। लेकिन गालियों का मामला बड़ा विचित्र है।
यहां बहुत अजीब किस्म का शुद्धतावाद है।
श्रीलाल शुक्ल ने लिखा है—गालियों का महत्व स्वर की ऊंचाई में है। बहुत मार्के की बात है। लेकिन अब जमाना आगे निकल चुका है।
स्वर की ऊंचाई एक पक्ष है। दूसरा पक्ष ये है कि शब्द अपने मायने खो चुके हैं।
निर्गुण और निर्विकार हो चुकी हैं, गालियां।
सिर्फ नये जमाने को दोष देना नाइंसाफी होगी।
बाईस साल पहले मैं रांची से दिल्ली आया था, तब ब्लू लाइन बसो में बैंचो संकीर्तन हुआ करता था।
ये परंपरा ना जाने कब से हो, लेकिन मेरे लिए एक कल्चरल शॉक था। लोग उन्मुक्त भाव से कहते थे—बहन इंतज़ार कर रही है, राखी के दिन भी बैंचो बस में इतनी भीड़ है।
फिर शायराना अंदाज़ वाले एक साहब के संपर्क में आया जो संयोग से सहकर्मी भी हुआ करते थे।
शाम को हम लिफ्ट से नीचे उतरते तो वे अपने शायराना अंदाज़ में कहते-- क्या दिलकश हवा है.. बैंचो।
भाषा का ये फ्यूजन सुनकर दिमाग़ का फ्यूज उड़ जाता था।
ऐसा लगता था, जैसे किसी बेकरी वाले ने बड़ी तबियत से केक बनाया हो और साथ में अपनी मिट्टी की सोंधी महक डालने के लिए उसपर आइसिंग गोबर से कर दी हो।
हवा में तैरते तरह-तरह हिंदी अंग्रेजी के शब्द शर्म और खींझ पैदा करते थे। लेकिन धीरे-धीरे आदत पड़ गई। समझ में आ गया कि वे बेचारे तो बड़े निर्मल ह्दय लोग है।
पाप मेरे ही मन में है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है—जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी।
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