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ख़ामोश रहें तो जाँ ह़लक़ में आती है और जो सच बोल दूँ तो क़यामत बरपा हो जाए।

वीथिका            Dec 29, 2022


 श्रीकांत सक्सेना।

27 दिसंबर को हिंदुस्तान के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की जयंती थी।

पिछले साल किसान आंदोलन के दौरान हमने कुछ इस तरह ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश की थी।

उनकी दो सौ चौबीसवीं सालगिरह पर शायद आपको ये लेख मौजूं लगे...

अजीब कैफ़ियत है इन दिनों,ख़ामोश रहें तो जाँ ह़लक़ में आती है और जो सच बोल दूँ तो क़यामत बरपा हो जाए।

जब तलक बर्दाश्त हुआ ज़ब्त किया लेकिन अब रहा नहीं जाता।

हुआ यूँ कि इन दिनों जहाँ क़याम है,वहाँ से सिंघू बार्डर बमुश्किल दो किलोमीटर के फ़ासले पर है।

जहाँ हज़ारों किसान हुकूमत के खिलाफ़ मैदान में उतर आए हैं।

टेलीविज़न पर मुसलसल ख़बरें आ रही हैं कि वहाँ गुस्ताख़ सरदारों ने किसानों के लिबास पहनकर, ज़िल्लेइलाही के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है।अहले इकराम जानते हैं कि हमें लड़ाई झगड़ों ,जुलूस-ओ-एहतजाज में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही।

लेकिन जिस तरह टेलीविज़न पर वहाँ सरदारों द्वारा चलाए जा रहे लंगरों के विज़ुअल्स आ रहे हैं,उन्हें देखकर रुका नहीं गया।

सोचा जो सबाब मिलेगा सो मिलेगा,शायद कबाब और थोड़ी बहुत दारू भी हाथ लग जाए।

टीवी पर सुना था कि सरदारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है,मेहमाननवाज़ी में।

हालाँकि ख़ुद उन्होंने अपनी ज़मीन से हज़ार किलोमीटर दूर आके डेरा डाला हुआ है।

सो होना तो मेहमान चाहिए था लेकिन दिल्ली ने जब मेज़बानी का दस्तूर तक नहीं निभाया उल्टे दुश्मनों का सा बर्ताव किया तो मेहमानों ने मेज़बानी की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।

दिल्ली की बेरुख़ी को दिल से नहीं लगाया।

अब ये बात तो सभी को मालूम है कि दिल्ली की गद्दी हो या हिंदुस्तान की तारीख़ सूबा हरियाणा का ज़िक्र किए बग़ैर हिंदुस्तान की दास्ताँ मुकम्मल हो ही नहीं सकती।

वो चाहे कुरुक्षेत्र हो,पानीपत या सोनीपत हिंदुस्तान की तक़दीर यहीं से तय होती रही है।

वैसे तो ये तीनों ही शहर एक ही सड़क पर,एक ही लाइन में और एक ही सूबे में बसे हैं,आपस में बहुत क़रीब भी हैं,लेकिन सच्चाई ये भी है कि मामला इंद्रप्रस्थ का हो या दिल्ली का,हर बार फ़ैसला यहीं से होता रहा है।

यही नहीं धर्मक्षेत्र कहा जाने वाला मैदान भी आहिस्ता-आहिस्ता खिसकता हुआ दिल्ली की जानिब आ रहा है।

कुरुक्षेत्र से इंद्रप्रस्थ जितनी दूर है,उसके मुक़ाबले पानीपत से दिल्ली ज़्यादा क़रीब है और सोनीपत से तो और भी ज़्यादा क़रीब।

दानिशवरों को फ़िक्र होने लगी थी कि यही हालात रहे तो बहुत मुमकिन है एक रोज़ कुरुक्षेत्र,पानीपत या सोनीपत दिल्ली में न घुस जाएं।

हमें तो ये बात आज तक समझ में नहीं आई कि जिस युद्ध में अभिमन्यु से लेकर कर्ण,भीष्म या दुर्योधन जैसे ज़्यादातर योद्धा, युद्ध की संहिता से इतर तरीकों से मारे गए,तो ये युद्ध धर्मयुद्ध कैसे हुआ ?

यूं तो मुहब्बत और जंग में हर तिकड़म जायज़ मानी जाती है।

ये बात भी सभी को अच्छी तरह याद है कि पानीपत की तीनों लड़ाइयों में सिर्फ़ लड़ाके ही नहीं गए।

बल्कि लड़ाई के मैदान पर ही एक तरफ़ बाक़ायदा भरे-पूरे बाज़ार भी लगाए जाते रहे।

जहाँ हर तरह के पकवान,कपड़े और दिलजोई के सारे इक़दामात भी किए जाते थे।

यहाँ तक कि ख़ूबसूरत तवायफ़ों के सजे-धजे तंबू भी दूर तक फैले होते थे,जिनसे मँहगे इत्र की ख़ुश्बू दूर तक महसूस की जाती थी, जहां सुकून के सारे इंतज़ामात थे।

बहरहाल हमें ख़बर ये मिली कि सरदारों ने भी सिंघू बार्डर पर बेहतरीन इंतज़ाम किए हुए हैं।

सो इसका जायज़ा लेने हम भी बिलआख़िर पहुँच ही गए।

सरदार भी सरदार हैं ,जैसा सुना था वैसा ही हुआ काजू ,बादाम चाय,कॉफी ,पकौड़े और लज़ीज़ कबाबों के ज़रिये मेहमानवाज़ी के अपनी रवायत ज़िंदा रखे हुए थे।

लेकिन हमारा ध्यान पीछे की तरफ़ बने एक छोटे मगर शानदार तंबू की ओर गया।

झांककर देखा तो इसमें उर्दू के मशहूर शायर बेदी साहब विराजमान थे, देखते ही अपने पुरखुलूस अंदाज़ में बड़ी मुहब्बत से अंदर बुला लिया।

मज़बूत वाटरप्रूफ़ टेंट में एक ख़ूबसूरत सोफ़े पर बेदी साहब के साथ एक बेहद शानदार और ज़ईफ़ सरदार जी भी बैठे थे।

बड़ी सी सेंटर टेबल पर दस्तरख़ान बिछा था, कबाब ही नहीं,बेहतरीन विलायती और देसी शराब की बोतलें सजी थीं।

बेदी साहब ने रहस्यमयी मुस्कराहट के साथ दूसरे सरदार जी को देखते हुए हमें पास में बैठने को कहा।

दूसरे सरदार जी की आँखें सुर्ख़ थीं,नशे में चूर। मेरी निगाह उन पर पड़ी तो बस ठहर ही गई।

इन सरदार जी के ऊपर गोया नूर बरस रहा था, शक्ल-ओ-सूरत से भी वे दूसरे सरदारों से थोड़े अलग दिख रहे थे।

थोड़ी देर में ही मैं उन्हें पहचान गया, अरे ये तो अपने चचा ग़ालिब थे।-"गो हाथ में जुंबिश नहीं,आँखों में तो दम है..वाली कैफियत में।

सरदार बने हुए चचा ग़ालिब, अपने इस हुलिए में वे किसी की भी पकड़ में न आते लेकिन हम भी आज़ाद हिंदुस्तान के खोजी पत्रकार थे।

अच्छे से अच्छे वतनपरस्त ख़ालिस हिंदुस्तानी को तमाम सुबूतों के साथ दो मिनट में ग़द्दार साबित कर दें या चाहें तो ग़द्दारों को वतनपरस्त यानि राष्ट्रभक्त साबित कर दें।

ये सब तो हमारे बाएँ हाथ का खेल है।

मालूम हुआ कि आज 27 दिसंबर है चचा ग़ालिब की यौम-ए-पैदाइश ।

चचा का दिल जन्नत की हूरों और शराब-ए-तहूरा से भर चुका था सो इस बार अपनी सालगिरह आज के हिंदुस्तान के किसी शायर की सोहबत में मनाने का फ़ैसला किया जहाँ दिल को सुकून देने वाली देसी शराब का लुत्फ़ उठाया जा सके।

यूँ तो जन्नत में भी सुकून ही था लेकिन दिल्ली की देसी जैसा मज़ा कहाँ?

हमें चचा के हालात देखकर पहले तो अफ़सोस हुआ ये वेश बदलने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी ?

पर तसल्ली भी हुई कि बेदी साहब ने तंबू में भी मेहमाननवाज़ी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

चचा यूँ तो हमेशा से दुबले-पतले ही थे लेकिन इतने ज़ईफ कभी नहीं दिखते थे।

चचा के हाथ का जाम आधे से भी कम हो चला था,हमने दौड़कर उनको लंबा सलाम किया उनके हाथों को चूमा और पास रखी स्कॉच की बोतल उठाकर उनके जाम को फिर से भर दिया।

चचा ने हाथ के इशारे से रोका, शायद उनकी नज़र देसी पर थी।

चचा मुझे देखकर मुस्कराए और फिर बड़े लाड़ से सिर पर हाथ फेरते हुए बोले-"ख़ुश रहो बरखु़रदार क़लम की ताव बनी रहे।"

हमने भी धीरे से कहा हम तो अपने पेशे से मजबूर, दरबदर घूमने के आदी हैं, लेकिन आपने ये क्या रूप बना रखा है।'

सरदार ग़ालिब'?,हिंदुस्तानियों को हज़म कैसे होगा। नशे में भी चचा को जैसे साँप सूँघ गया,पहले मुस्कराए फिर होंठों पे उँगली रखके हमें चुप रहने का इशारा करते हुए बोले-" चुप रहो।

बिल्कुल,एक लफ़्ज़ भी नहीं निकालो"बेदी साहब की ओर इशारा करते हुए बोले"ये सारा करा -धरा इनका है।हमारे पट्टशागिर्द हैं।

पिछले दिनों जब पूरे मुल्क में सीएए का ख़ौफ़ था और हमें अपनी शिनाख़्तगी साबित करना मुश्किल लग रहा था,तो हमने इनसे मदद माँगी थी।

बड़े भले आदमी हैं,तभी से हम इनकी मेहमाननवाज़ी या कहें ज़ेरे साए में हैं।

अब इनके इसरार पर हम भी सरदार ही हो गए हैं।

बशर्ते ये हमें कभी गुरुद्वारे जाने की ज़िद करेंगे।

हमारा मज़हब हमेशा की तरह सागर-ओ-मीना ही बना रहेगा।

हमने कहा चचा वो क़ानून तो मुसलमानों के लिए बना है,किसी और को उस क़ानून से घबराने की क्या ज़रूरत ?चचा थोड़ा चिढ़कर बोले "लेकिन इस नाम का क्या करें ' ग़ालिब' से ही साले हमें मुसलमान समझ लेंगे।"

हमने कहा "कैसे समझ लेंगे ?ऐसे तो कृष्ण बिहारी नूर हों या रघुपति सहाय फ़िराक़ सभी मुसलमान हो जाएँगे और सबको अपनी शिनाख़्त के काग़ज़ात पेश करने होंगे?"

चचा इस बार ऐसे मुस्कराए गोया हमने कोई बहुत बचकानी बात कह दी हो।

बोले "गिलास भरो और हमसे ऐसी अहमकाना बातें मत करो।अभी हम बहुत पशोपेश में हैं,बेदी कह रहे हैं कि ये हमें इसी रूप में वे पाकिस्तान भी ले जा सकते हैं।"

पाकिस्तान के नाम से चौंकने की बारी हमारी थी। हमने कहा "चचा आगरा-दिल्ली की पहचानें कैसे खुरचोगे।

बल्लीमारान में आपका नाम लेकर आज इत्ते बड़े-बड़े प्रोग्राम हो रहे हैं तुम्हें कोई पाकिस्तानी बनने भी देगा।

केजरीवाल से लेकर मोदी तक आज दिन भर तुम्हारे नाम को बार-बार दोहराएँगे।तुम्हें अपना बुजुर्ग बताते हुए फ़ख़्र करेंगे।"इस बार चचा बेपनाह हँस पड़े शराब के छींटे दूर तक जा गिरे आँखों में पानी भर आया।

पता नहीं ज़ोरदार ठहाका लगाने की वजह से या मोदी और केजरीवाल के नाम से।साँस उखड़ गई,बड़ी देर बाद मेहनत से साँस ठहर जाने पर मेज़ पर ज़ोर से हाथ मारकर बोले-"दोनों बेशऊर हैं,अगर एक बार मेरा नाम भी ठीक से ले लें तो शायरी छोड़ दूँगा ।"

हमें मालूम था कि चचा शायरी छोड़ने जैसी बात यूँ ही नहीं कह रहे।मोदी हों या केजरीवाल आज दिन में कई प्रोग्रामों में चचा का नाम ग़लत ही लेंगे-'मिर्जा गालिब-मिर्जा गालिब'करेंगे।उनकी बात में दम था।

सो हमने पूछ ही लिया "पाकिस्तान कैसे जाओगे वहाँ तो इन दिनों मुसलमानों को भी मुसलमान नहीं माना जाता,शियाओं, अहमदियों सबकी शामत आई हुई है, फिर आप तो औसत मुसलमान भी नहीं हैं ?‌"

चचा ने इस बार बहुत लंबी आह भरी -"यही तो मुश्किल है।

सूअर का गोश्त खाने वाले को 'बाबा-ए-क़ौम'और 'क़ायद-ए-आज़म' मानने से गुरेज़ नहीं लेकिन ग़ालिब को मुसलमान वे भी नहीं मानेंगे।

सालों ने 'जोश' की क्या हालत कर दी थी कि उसे पाकिस्तान कूफे़ की मानिंद लगने लगा था, फ़ैज़ हो या मंटो सबको जेलों या पागलखानों में डाल दिया।बेदी, हमें सरदार बनाकर करतारपुर साहब होते हुए पाकिस्तान में घुसा देने की बात कह रहे हैं।

तुम्हीं बताओ अब इस उम्र में हम क्या ख़ाक़ मुसलमान होंगे?" चचा की आवाज़ भर्राने लगी थी। सालगिरह के दिन उन्हें और दुखी करना हमारा भी मक़सद नहीं था।

थोड़ी देर की बातचीत के दौरान हमने भी उनके साथ दो चार जाम टकरा लिए थे।कबाब भी ज़ायकेदार थे, लेकिन चचा की बात सुनकर सारा नशा काफूर हो गया।

कबाब भी बेज़ायका लगने लगे।मन बहुत भारी हो गया।उनके हाथों को हाथ में लिया चूमा और अपनी आंखों से लगाया, सालगिरह की मुबारकबाद देने की हिम्मत नहीं हुई।अब जल्द से जल्द अपने क़याम तक पहुंचकर इस मुलाक़ात को दर्ज़ करना बाक़ी था।

चचा की दो सौ चौबीसवीं सालगिरह पर उनसे मुलाक़ात यादगार बन गई थी,तब उनकी दो सौ तेईसवीं सालगिरह थी।न जाने आज किन हालात में सालगिरह मना रहे होंगे।

तंबू तो कब के उखड़ चुके।बेदी साहब का भी कुछ अता पता नहीं। लेकिन चचा का क्या होगा, उनकी शक्ल आंखों से हटती ही न थी।

उस रोज़ कई सड़क छाप नचनिए टीवी एंकरों के कॉस्ट्यूम्स पहने नाट्य अपने संवादों में भरपूर जोश और जज़्बे के साथ चीख़-चीख़कर खुफिया एजेंसियों के हवाले से 'ख़बर 'दे रहे थे कि किसान आंदोलन में बहुत से 'ग़द्दार' भी सरदारों के वेश में घुस आए हैंऔर उनकी मंशा हुकूमत को गिराने की है।

न जाने क्यों हमें तो सरदार बने हुए अपने चचा ग़ालिब की फ़िक्र सता रही है

 

 



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