
राजकुमार जैन।
सचमुच आश्चर्य होता है, इस दुनिया में अच्छे लोग कितनी जल्दी भुला दिए जाते हैं। जिनके जीवन से सच्चाई की गंध आती है, जिनके कर्मों से करुणा झरती है, वे स्मृति के कोनों में जल्द ही खो जाते हैं। पर अपराधी, छलिया और पाखंडी — वे वर्षों तक चर्चाओं में बने रहते हैं। यही हमारी सोच का सबसे सटीक दर्पण है, जिसमें हमारा चेहरा ही नहीं, हमारी मानसिकता भी झलकती है।
हम अक्सर कहते हैं कि “समाज में विकृति आ गई है”, “संस्कार खत्म हो गए हैं”, “मानवता लुप्त हो रही है”। पर यह समाज आखिर है क्या? ईंट-पत्थर से बना कोई ढाँचा तो नहीं, यह तो हम सबके विचारों, व्यवहारों और मूल्यों का समुच्चय है। जब व्यक्ति की अंतरात्मा में विकृति प्रवेश करती है, तभी समाज का संतुलन डगमगाने लगता है। समाज में बुराई नहीं आती , बुराई व्यक्ति में आती है। और व्यक्ति ही मिलकर समाज बनाते हैं।
बीरबल के एक लौटा पानी की तरह, पहले लोग यह सोचकर छोटा मोटा अपराध कर बैठते थे , “मेरे अकेले के बुरा करने से क्या फर्क पड़ेगा”। लेकिन अब सोच पूरी तरह से विकृत हो गई है, “मेरे अकेले के अच्छा करने से क्या बदल जाएगा”। यह निराशा, यह आत्मसमर्पण ही हमारे पतन का सबसे बड़ा कारण है। जब अच्छाई को प्रभावहीन समझ लिया जाता है, तब बुराई को स्वीकार कर लेना आसान हो जाता है। यही वह बिंदु है जहाँ समाज अपनी आत्मा खो देता है।
हम भूल चुके हैं कि परिवर्तन का आरंभ हमेशा व्यक्ति से होता है। एक दीपक अंधकार से लड़ने के लिए पर्याप्त नहीं होता, पर उसी एक दीपक से जब हजारों दीपक जल उठते हैं तो उजियारा हो जाता है। किसी एक का सद्कर्म, किसी एक का साहस, किसी एक की करुणा समाज को दिशा दे सकती है। लेकिन जब हर व्यक्ति यह सोचकर पीछे हट जाता है कि “मेरे अकेले से क्या होगा”, तब अच्छाई का सामूहिक पराभव निश्चित है।
अच्छे लोग इसलिए भुला दिए जाते हैं क्योंकि हमने उन्हें आदर्श की मूर्ति बनाकर पूज लिया, पर उनके मार्ग पर चलने की हिम्मत नहीं दिखाई। हमने अच्छाई को प्रेरणा नहीं, कथा बना दिया, और बुराई को आकर्षण का माध्यम। यही कारण है कि आज बुराई का शोर चारों ओर सुनाई देता है, पर अच्छाई का संगीत गुम हो गया है।
अब वक्त आ गया है कि हम इस सोच को उलटें। अच्छाई का अर्थ परिणाम नहीं, संकल्प है। यह किसी दूसरे के बदलने की प्रतीक्षा नहीं करती, बल्कि अपने भीतर से आरंभ होती है। यदि हर व्यक्ति यह निश्चय कर ले कि “मेरे अकेले के अच्छा करने से कुछ तो बदल सकता है”, तो यह संसार फिर से अपनी मूल रोशनी पा सकता है।
अच्छाई को याद रखना पर्याप्त नहीं — उसे जीना आवश्यक है। क्योंकि जब व्यक्ति भीतर से अच्छा होता है, तभी समाज सुंदर बनता है। और जब समाज सुंदर बनता है, तब इतिहास भी उसे कभी भुला नहीं पाता।
स्वतंत्र विचारक और लेखक
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