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चूल्हे की शामत आ गई है,रोटी और रसोई का अस्तित्व बचे रहना जरूरी

वीथिका            Aug 14, 2019


संजय स्वतंत्र।
किसी जमाने में घर की चक्की उदास रहती थी। अब रसोई ऊंघती रहती है। न कोई मसाला कूटता है, न कोई चटनी बनाने का जतन करता है। अब झटपट का जमाना है। इसलिए चकले-बेलन में भी खटपट नहीं होती।

रोटियां नहीं सुहाती नई पीढ़ी को। उसे तो पिज्जा और बर्गर चाहिए। हथेलियां उदास हैं, क्योंकि वे आटा नहीं गूंथतीं। कोने में तवा सुबकता रहता है। उसे कोई पूछता तक नहीं। पतीली जरूर गुस्से में उबलती है। इन दिनों इससे कुछ ज्यादा ही काम लिया जाने लगा है। अकसर पैकेट-बंद चीजें इसमें पका ली जाती हैं। नूडल्स-पास्ता से लेकर और भी बहुत कुछ।

औंधी पड़ी कड़ाही में अरसे से पकौड़ियां नहीं छन रहीं। सब्जी तो कभी-कभार ही बनती है। और मालपुए तो सपने में मिलते हैं। बच्चे स्कूल से लौटते ही मैगी की फरमाइश करते हैं। उस दो मिनट के विज्ञापन देख-देख कर उन्होंने मांओं को हलकान कर रखा है।

वे समोसे-निमकी छानना भूल गई हैं। वे चाहती हैं कि बच्चे कुछ और न सही तो गरमा-गरम इडली ही खा लें। मगर बच्चे मानते कहां हैं।

श्यामला सुबह नहा-धोकर तुलसी को जल अर्पित कर चुकी है। उसकी रसोई की खिड़की मेरे कमरे की तरफ खुलती है। वह कुछ भी बनाती है, तो लगता है कि मेरी रसोई में कुछ पक रहा है। इस समय उसकी कड़ाही में छनती कचौरियों से मन सुवासित हो उठा है।


घुघनी के मसाले ने भूख जगा दी है। अभी-अभी पी गई चाय की मिठास कहीं गुम हो गई है। क्या श्यामला भाभी से कहूं कि दो कचौरियां और चने सी सब्जी भिजवा दें? नहींं, यह मैं नहीं कह पाऊंगा।

फिलहाल मां अदहन चढ़ा चुकी है। वह मेरे लिए दाल-चावल और तरकारी बना रही है। दफ्तर जाने से पहले दोपहर का यही मेरा भोजन है। पड़ोसियों के बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे हैं। उनके यहां रसोई में धुलते बर्तनों की ढनन-मनन की आवाज नहीं आ रही। बच्चे मैगी-नूडल्स या फ्रूट चाट टिफिन में लेकर चले जा रहे हैं। उनके घरों में न जाने कब चूल्हा जलता है।

सच कहूं तो चूल्हे की शामत आ गई है। पहले मिट्टी के चूल्हे गायब हुए। अब शहरों में बर्नर वाले चूल्हों पर विपदा आई है। बच्चे इन दिनों पैकेट-बंद चीजें खूब खा रहे हैं। महिलाएं फूड ऐप पर आर्डर कर रही हैं।

पति अपना सिर धुनते हैं। बर्तन पटकते हैं। पानी पीकर इस दौर को कोसते हैं। बीवियां मनाती हैं। यह कहते हुए कि अजी, इटालियन पास्ता है। बड़े चाव से आपके लिए मंगवाया है। कल मुगलई आर्डर करूंगी।

पतिदेव झल्लाते हुए दो कौर खाकर सोने चले जाते हैं। फिर रात भर पेट में चूहे कूदते हैं। रोटी-सब्जी खाने की आदत जो छूट रही है। इधर-उधर से भोजन बटोर कर घरों तक पहुंचाने वाली कंपनियां सेहत बिगाड़ रही हैं। क्या हमारी रसोई को इनकी नजर लग गई है।

तो मां के हाथ का बना भोजन कर दफ्तर निकल गया हूं। पैदल बस स्टाप की ओर जाते समय आॅटो दिखा है। इसी से रोज मेट्रो स्टेशन जाता हूं। पास गया तो देखा कि टीटू पीछे की सीट पर बैठ कर बैंगन की सब्जी के साथ पंराठे खा रहा है।

सुघड़ गृहणी के हाथों बने खाने की खुशबू ने मेरी स्वाद ग्रंथियों में पानी भर दिया है।

सचमुच भारतीय मसालों का स्वाद निराला है। सुबह घर से चाय पीकर निकला टीटू अकसर आटो में बैठ कर लंच कर लेता है।

यात्रियों की सीट ही उसकी डायनिंग टेबल है। ...... तसल्ली से बैठ कर घर में बनाए खाने का अपना ही सुख है साहब जी। टीटू ने मुस्कुराते हुए कहा।

मैं आटो में बैठ गया हूं। टीटू बता रहा है कि उसकी पत्नी सूरज उगने से पहले ही उठ जाती है। पूजा-पाठ कर वह सबसे पहले बच्चों के लिए नाश्ता बनाती है। फिर मुझे चाय देकर मेरा टिफिन तैयार करती है।

तब तक बच्चे स्कूल चले जाते हैं। मैं भी आॅटो लेकर निकल जाता हूं। घर लौटता हूं तो गरम-गरम सिंकी रोटियां मिलती हैं। मेरे घर का चूल्हा कभी ठंडा नहीं पड़ा साहब जी।

मैं मेट्रो स्टेशन पहुंच गया हूं। सोच रहा हूं कि आज जब महानगरों और शहरों में रसोई का पारंपरिक महत्त्व खत्म हो रहा है तो ऐसे दौर में गरीब परिवारों के चूल्हे सुबह शाम शान से जल रहे हैं।

वहां बैंगन का चोखा बनता है, तो टमाटर की चटनी भी। कभी-कभार लिट्टी भी सेंक ली जाती है। ये वो स्त्रियां हैं जो देसी स्वाद ही नहीं, रसोई की गरिमा भी बचा रही हैं। मिट्टी लीप कर चूल्हे पर दलपिट्ठी या गुलगुले बनाती नानी की मुझे अकसर याद आ जाती है। अब कोई इन्हें नहीं बनाता।

मैं प्लेटफार्म नंबर एक पर आ गया हूं। हमेशा की तरह अंतिम छोर पर खड़ा हूं। आठ कोच नाली मेट्रो आने की उद्घोषणा हो रही है। मैं लास्ट कोच में सवार हो रहा हूं। मुझे कोने की सीट मिल गई है। कोच लगभग खाली है।

ठीक मेरे बगल में एक सज्जन बैठे हैं। उन्होंने अपने बैग से टिफिन निकाल लिया है। वे अचार के साथ रोटी खाने लगे हैं। यों मेट्रो में कुछ भी खाना मना है। मगर अपने यहां नियमों को मानता कौन है?

कोच में अचार के मसालों की महक फैल गई है। जब इन सज्जन ने अपना लंच खत्म किया तो मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, घर से खाकर नहीं चले थे आप? इस पर वे बोले, क्या बताऊं साहब। आजकल घरों में ठीक से खाना बनता कहां है।

दोपहर काम से निकला तो श्रीमतीजी ने ये दो रोटियां जल्दी में पकड़ा दीं। बच्चे दाल-चावल खाते ही नहीं। जब देखो आॅनलाइन कुछ न कुछ मंगवा रहे होते हैं। यह कहते हुए वे रुआंसे हो गए।

बातचीत के इस क्रम में कुछ स्टेशन निकल गए हैं। उद्घोषणा हो रही है-अगला स्टेशन सिविल लाइंस है। दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे। कोच में सीटें अब भी खाली हैं। यहां से सवार दो लड़कियां सामने की सीट पर बैठ गई हैं। उनके हाथ में किताबें हैं।

ये बगल के कालेज से लौट रही हैं अपने घर। इनमें से एक ने बैग से चिप्स का पैकेट निकाल लिया है। दोनों मिल बांट कर खा रही हैं। यह पैकेट जितने का आता है, उतने में किसी भी घर में दो दिन की सब्जी बन सकती है। फिर भी हम चिप्स खरीदते हैं।

सबको लत गई है। बाजार का पहला गणित यही है कि उपभोक्ताओं की आदत खराब कर दो। कंपनियां कमा रही हैं। दुकानदार बेच रहे हैं। बच्चे मोटापे का शिकार हो रहे हैं।

बगल में बैठे सज्जन कह रहे हैं। देखिए जी आजकल लोग रेस्तरां में बने खाने को पसंद कर रहे हैं। रसोई में कोई झांकता नहीं। लोग घर बैठे खाने का आर्डर कर देते हैं। मुझे नेशनल रेस्टोरेंट एसोसिएशन आफ इंडिया की सर्वे रिपोर्ट याद आ रही है।

जिसमें कहा गया है कि भारत में लोग महीने में 6.6 बार खाना खाने बाहर जाते हैं। या बाहर से ही खाना मंगवा लेते हैं। वैसे एशियाई देशों की तुलना में यह बहुत कम है।

सिंगापुर में यह औसत 30 है। बैंकाक में 45 तो शंघाई में 60 है। भारत में बाहर का खाना घर मंगवाने का चलन नया है।

लेकिन जिस तरह से लोग आर्डर कर के पसंद की चीजें घर मंगवा रहे हैं, उससे कुछ कंपनियों की चांदी हो गई है। वे हजारों करोड़ का कारोबार कर रही हैं। मुंबई, दिल्ली और बंगलुरु में उनकी कमाई चौंका देने वाली हैं। वे आपकी जेब ढीली कर रही हैं। साथ ही आपके किचन का डिब्बा भी गोल कर रही हैं। क्या आपको इसकी फिक्र है?

उद्घोषणा हो रही है, अगला स्टेशन चांदनी चौक है। दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे। .......
चांदनी चौक से खयाल आया कि आप दुनिया भर के कितने ही व्यंजनों का लुत्फ उठा लें, लेकिन यहां देसी घी से बनी मिठाइयां, यहां के नाना प्रकार के परांठे, यहां की जलेबियां-कचौरियां खाकर विदेशी व्यंजन भूल जाएंगे।

अगर बाहर का कुछ खाना है तो आप अपने यहां की चीजें खाइए न? गोल-गप्पे, चाट-पकौड़ी, दही-भल्ले और छोले-भटूरे-नान ये सब आपके घर के आसपास भी मिलते हैं। इन्हें खाइए और छोटे-मोटे रोजगार कर रहे लोगों को इसी बहाने प्रोत्साहित कीजिए।

बगल में बैठे सज्जन कह रहे हैं, भाई जी अब लोगों के पास वक्त ही कहां हैं। एक तबके के पास पैसा कुछ ज्यादा आ गया है तो उनकी खाने-पीने की रुचियां ही बदल गई हैं। देखा-देखी यह रोग मध्य वर्ग को भी लग रहा है।

महिलाएं कामकाजी हो गई हैं। पुरुषों के बराबर काम कर रही हैं। रसोई में खड़े होने के लिए उनके पास वक्त नहीं हैं। खाना कौन बनाए? इसलिए पति-पत्नी रेस्तरां जाना पसंद करते हैं। बाकी दिनों में कभी-कभार शाम के खाने का वे आर्डर दे देते हैं। कंपनियों के लड़के खाने के पैकेट लिए लोगों के पते पूछते हैं और फिर वे इस गली से उस गली भटकते रहते हैं।

अब दिवाली हो या होली या फिर अन्य त्योहारों पर बनने वाले पकवानों की संख्या गिनती भर रह गई है। जो बनते हैं वे महज रस्म अदायगी के लिए। कई पकवान तो सिरे से गायब हो गए हैं। ये वो पकवान थे, जिन्हें दादी-नानी बड़े चाव से बनाया करती थीं।

हाल तक जो गुजिया घरों में आसानी से बन जाती थी, उसे कोई बनाता नहीं। अब हम इसे मिठाइयों की दुकानों से पांच से छह सौ रुपए किलो खरीद कर खा और खिला रहे हैं। अगर पुरुष घर के कामकाज में महिलाओं की थोड़ी सी मदद कर दें तो कम से कम दाल-रोटी गायब नहीं होगी। रसोई भी बची रहेगी।

अगला स्टेशन राजीव चौक है। दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। मैं सीट से उठ रहा हूं। सामने कोने की सीट पर बैठी दूसरी युवती जैम के साथ लपेटी गई रोटी खाते-खाते उठ गई है। वह ठीक मेरे पीछे खड़ी हो गई है। घर की बनी रोटी चबाती यह लड़की। मुझे ऐसी ही पीढ़ी पसंद है, जो कहीं भी हो, वह घर की रसोई की बनी चीजें ही खाएं।

शायद इसे फुर्सत नहीं है या फिर भोजन इसके लिए दैनिक उत्सव नहीं। इसे स्वाद से ज्यादा अपनी भूख की चिंता है। जो भी हो रोटी और रसोई का अस्तित्व बचे रहना जरूरी है।

दरवाजे खुल गए हैं। मैं सीढ़यों की ओर बढ़ रहा हूं। ऊपरी तल पर खाने-पीने की चीजों की एक नई दुकान सज गई है। कुछ युवा कागजों वाले कप में बटर कॉर्न और मोमो लेकर जा रहे हैं। सेहत की यकीनन चिंता होगी उन्हें। मगर स्वाद उनकी प्राथमिकता में हैं।

मेरे पीछे आ रही सहयात्री अपनी रोटी खत्म कर प्लेटफार्म नंबर चार पर जा रही है। सेहत के प्रति जागरूक युवा रोटी बचाएंगे तो रसोई भी सलामत रहेगी। स्वाद के फेर में न पड़ कर हमें भोजन को दैनिक उत्सव में तब्दील होने से बचाना है। तो आप संभालिए रसोई और हम चलते हैं दफ्तर की ओर। लौटने पर मुझे भी रोटी का ही इंतजार रहेगा। मैं आपके पास आऊं तो आप खिलाएंगे न?


चित्र : सू जैकब की बनाई तस्वीर गूगल से साभार

 



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