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ज्यौं की त्यौं धरि दीन्हीं चदरिया

वीथिका            Nov 08, 2021


राकेश दीवान।
‘भाईजी’ यानि सलेम नानजुंदैया सुब्बराव यानि एसएन सुब्बराव को याद करूं तो करीब पचास साल पहले, विनोबा की मौजूदगी में अल-सुबह सुना कबीर का ‘झीनी रे चदरिया’ भजन याद आता है।

उन दिनों (1974 में) ‘पवनार आश्रम’ में ‘आचार्य-कुल’ का राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था और हम होशंगाबाद के कुछ मित्र, पं. भवानीप्रसाद मिश्र के कहने पर उसमें शामिल होने गए थे।

हममें से कोई ना तो ठीक से विनोबा को जानता था और न ही गांधी को। डॉ. जाकिर हुसैन और विनोबा की पहल पर गठित ‘आचार्य-कुल’ और उनके ‘पवनार आश्रम’ को जानने की सहज इच्छा के चलते हम वहां पहुंचे थे।

हम सबने दो‍ दिन में आश्रम की लगभग सभी गतिविधियों को (जैसा हम मान रहे थे) देख-समझ लिया था, सिवाय सुबह की प्रार्थना के। तो आखिरी दिन सुबह चार बजे आश्रम की प्रार्थना में भाग लेने का तय किया गया।

किसी तरह मार-ठोंककर आंखें मलते-मलते उनींदे-से हम सब प्रार्थना स्थल पर पहुंचे तो देखा कि विनोबा पहले से विराजमान हैं और उनके साथ, थोडी दूरी पर हाफपैंट पहना एक बेहद सरल दिखने वाला आदमी भी है।

विनोबा के यह कहते ही कि आज सुब्बराव भजन गाएंगे, (संगत के लिए) कुछ कार्यकर्ता रसोडा (रसोई का बडा रूप) से बडा-सा चमीटा उठा लाए। और फिर जो हुआ वह अनिर्वचनीय है।

सुब्बराव ने कबीर का ‘झीनी रे चदरिया’ गाना शुरु किया तो हम सब सन्न रह गए। सुबह के चार बजे इतनी मधुर और संगीत में पगी आवाज को सुनना एक चमत्कार ही था।

यह चमत्कार, जब याद करता हूं तो आज भी महसूस होता है। बाद में मिलने पर अक्सर आग्रह-पूर्वक मैंने उनसे यही भजन गाने का निवेदन किया और हर बार भाईजी के कबीर में अनोखापन महसूस किया।

उनके एक मित्र, निटाया (होशंगाबाद) के हमारे बाबूजी, श्री बनवारीलाल चौधरी कहा करते थे कि यदि सुब्बराव समाज और राजनीति के साथ-साथ गायन में भी गए होते तो हमें एक अभूतपूर्व गायक भी मिला होता।

 



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