राकेश कायस्थ।
यह रिश्ता आम महानगरीय रिश्तों से थोड़ा सा अलग है। बेशक मिलना-जुलना रोज़ का ना हो लेकिन पड़ोस में रहने वाली महिला मेरे बच्चों की दादी हैं। उनके अपने बच्चे विदेश में रहते हैं। रिटायरमेंट के बावजूद पति कई प्रोजेक्ट में खुद को व्यस्त रखते हैं।
वे खुद भी कॉलोनी की सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ अपने पूजा-पाठ और किटी में खूब बिजी रहती हैं। आते-जाते आत्मीयता भरी छोटी मुलाकातें होती रहती हैं। एक दिन मेरी पत्नी ने कहा— आंटी आज फिर पूछ रही थी, राकेश को कभी दादर की तरफ जाना हो तो मुझे एक बार बता दें।
महीने भर के भीतर यह सवाल तीसरी या चौथी बार पूछा गया था। मैंने कहा— आखिर काम क्या है, उन्हें? मेरी पत्नी ने जवाब दिया— पता नहीं कुछ मंगवाना है। मैने सीधे कॉल बेल बजाया और पूछ लिया। उन्होने जवाब दिया— रुई फूल कहीं और मिलता नहीं है। सिर्फ दादर के फ्लावर मार्केट में ही मिलता है। बहुत दिन हो गये भगवान शिव को चढ़ाये।
मैने पूछा- रूई मतलब कॉटन?
नो रुई बट इट्स नॉट कॉटन हम मराठी में रुई बोलते हैं, आप लोग क्या बोलते हैं, पता नहीं। नीला और सफेद होता है।
रूई बट नॉट कॉटन का पता ढूंढना एक जटिल काम था। लेकिन आंटी ने भरोसा दिया था कि दादर के फूलो की मंडी में मिल ही जाएगा।
दादर के फूलों का बाज़ार एक अलग दुनिया है। रेलवे स्टेशन के बाहर कीचड़ सने रास्ते पर रखी रंग-बिरंगे फूलों की हज़ारों टोकरियां। रुई जो कॉटन नहीं है, उसका पता ढूंढता हुआ मैं आगे बढ़ा। हर फूल वाले ने- कहा आगे मिलेगा। आगे कहीं नहीं मिला। आखिर में एक बूढ़े फूल बेचने वाले ने बताया— आपको कबूतरखाना वाले हनुमान मंदिर के बाहर पक्का मिल जाएगा।
कबूतरखाना स्टेशन से बममुश्किल किलोमीटर भर की दूरी पर होगा। उधर का रुख करते वक्त याद आया कि यह मुंबई के संवेदनशील इलाको में हैं। सांप्रादायिक तनाव के दौर में सामाजिक संगठन यहां शांति मोर्चा ज़रूर निकालते हैं।
मंदिर मुश्किल से 15 बाई 10 की एक संरचना है, जिसके दोनो तरफ पतली सड़के हैं, जिससे पता चलता है कि यह कोई पुराना मंदिर रहा होगा। मंदिर से दस फुट की दूरी पर है, बगदादी मस्जिद का गेट। मैने देखा मंदिर के बाहर तीन-चार फूल वाले बैठे हैं। मैं वहां तक पहुंचा। फूल किसी के पास नहीं मिला। सबने बताया सिर्फ सोमवार और शुक्रवार को आता है और आते ही बिक जाता है।
मैं निराश होकर लौटने लगा। अचानक मस्जिद के कोने पर एक छोटी सी दुकान नज़र आई। मस्जिद वाली दुकान में पूजा के फूल के मिलने की कल्पना लगभग नामुमकिन थी। फिर भी मैंने पूछ लिया। दुकानदार ने कहा— बराबर मिलेगा साहब।
उसने टेबल के नीचे रखकरी से फूलों का एक गुच्छा निकाला। मैं देखकर हैरान हो गया— ये तो मंदार के फूल हैं। दिल्ली में इसे आक कहा जाता है और यूपी-बिहार के बहुत से इलाको में एकवन। कानो में एकदम से शिव पंचाक्षर मंत्र गूंज गया जिसकी एक लाइन में इस फूल का जिक्र आता है—
मंदार पुष्प बहुपुष्प पूजिताय: नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय
साहब ये फूल आपको कहीं और मिले या ना मिले मेरी दुकान पर ज़रूर मिलेंगे। गावटी एरिया में कहीं-कहीं इसका झाड़ उगेला होता है। मेरे भाई को पता है, वो बहुत मुश्किल से ढूंढके लाता है। अपने ग्राहक बंधेले हैं। अल्लाह के फजल से आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी को खाली हाथ लौटना पड़े— दुकानदार की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा।
फूल आते ही खत्म हो जाता है। मेरा नंबर ले लो, कभी आना होगा तो पहले फोन कर देना। मैं बचाकर रख दूंगा।
किस नाम से सेव करूं नंबर?
मोहम्मद फ्लावरवाला लिख लो साहब।
अपनी ऐतिहासिक दादर यात्रा की उपलब्धि मैंने पेश की तो आंटी खुश हो गईं— इतने ताजा रुई के फूल मैंने बहुत दिन बाद देखे हैं।
मैंने उन्हें मोहम्मद फूलवाले का नंबर दे दिया। उन्होंने कहा- ड्राइवर को भेजकर मंगवा लिया करूंगी।
मैं काफी देर तक सोचता रहा। मोहम्मद की दुकान पर मंदार के फूल मिलने में कहानी जैसा कुछ है या नहीं? छठ के मौके पर श्रद्धा और सेवाभाव से सड़क बुहारते कितने शबेराती और रमजानी मैने बचपन से देखे हैं।
चादर बेचने वाले गरीब शकूर मियां का रोजा खुलवाते हुए अपनी दादी और मां को भी बचपन से ही देखा है। ये अनुभव महज कहानियां नहीं बल्कि मेरी जिंदगी का हिस्सा रहे हैं।
लेकिन बगदादी मस्जिद के बाहर बैठे मोहम्मद का हिंदू श्रद्धालुओं के लिए मंदार के फूल लेकर आना मुझे कहानी की तरह लग रहा है। पता नहीं वक्त बदला है या हम बदल गये हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और व्यंग्यकार हैं।
Comments