संध्या मिश्रा।
हमेशा की तरह आज भी आ बैठी थी मणिकर्णिका के घाट पर। उसे खुद पर कभी—कभी कोफ़्त भी होती और कभी हँसी भी आ जाती थी। पता नहीं इस घाट से उसका कैसा रिश्ता था कब से ..उसे खुद भी याद नहीं और क्यों इसकी वजह वो जानना भी नहीं चाहती।
बस जब से होश संभाला है जब भी जीवन में कोई उथल-पुथल होती या मन अशांत और व्यथित होता उसके पाँव यंत्रचलित से यंही की ओर चल पड़ते। अगर घाट पर भीड़ होती तो ऊपर नहीं तो पानी में पैर डाले नीचे की सीढ़ी पर अपना आसन जमाये साधिकार बैठी रहती।
आज भी कुछ ऐसी अवस्था उसे यहां ले आई थी मन बहुत उदास था दुखी था तन्हाइयों को सदा से मणिकर्णिका से सांझा करती आई थी सो आ बैठी।
ये जगह उसे हमेशा अपनी सी लगती जगह-जगह जलती चिताएं गंध भरा धुँआ अंतिम क्रिया के बाद वापिस जाते लोग एक धुंध भरा विरक्त रहस्यमयी सा वातावरण फिर भी जीवंतता लगती वहां। यही मृत्यु और जीवन की अनोखी कड़ी उसे कठिनाइयों में संबल देती सी प्रतीत होती,सो आ जाती।
अभी कुछ ही समय हुआ था कि एक वृद्ध साध्वी ने उसे आव़ाज दी, कौन है तू? अक्सर तुझे यंहा देखती हूँ, उसने खिन्नता से सिर घुमाया ,अनवरत विचारों की श्रंखला जो टूटी थी, उसने रूखेपन से पूछा तो तुम्हें क्या ?
वृद्धा फ़क्क से ठठा कर हँस पड़ी , उसके झुर्रियों भरे चेहरे और खुले मुँह से झांकते टूटे और टेड़े मेढ़े दांत उसे अजीब तो लगे पर उसे कुछ अच्छा लगा ,वो हौले से मुस्कुरा दी और खिसकते हुए अपने पास जगह बना दी।
वृद्धा इशारा पा वहीं बैठ गई ,अपनी कमर में खुसी थैली निकाली और सुरती मलने लगी,वो भी किसी बच्चे की तरह उसके क्रिया कलाप देख रही थी, खैनी चुटकी में भरकर उसकी और बढाई ही थी कि उसने सर हिलाकर मना कर दिया।
वृद्धा फिर हँसी और चुटकी भरकर गाल के कोने में दबा ली, धोती से हाथ पोंछते हुए बोली अच्छा ही करती हो,मुझे तो मुई ये आदत पता नहीं कबसे लग गई याद ही नहीं।
अब तक दोनों औरतें सहज हो गईं थी सो वार्तालाप आरम्भ हो गया फिर तो दुनिया जहान की बाते होने लगी वख्त का होश ही नहीं रहा।
कभी दोनों खिलखिलाकर हँसती तो कभी कब सूरज अस्तांचल में छिप गया और तारे अपनी आमद आसमां पर दर्ज कराने लगे पता ही नहीं चला,अपने आँचल से आँसू पोछती एक दुसरे की पीठ थपथपाती सांत्वना देती लंबा समय हो गया, आवाजाही कम हो गई, घाट सुनसान होने लगा।
वृद्धा को अचानक भान हुआ बोली देर हो गई घर नहीं जाना ? उसने पूछा तुम्हें नहीं जाना ? हां वृद्धा गहरी सांस लेते हुए बोली मेरी कौन बाट जोहता है चली जाऊँगी पर तुम्हारे यंहा तो सब है तुम्हें जाना चाहिए राह देखते होंगे सब और अंधियारा भी हो आया।
वो भी हँस पड़ी हाँ सब हैं पर राह कोई नहीं देखता कभी भी जाऊं ना जाऊं ।
वृद्धा ने कहा डर नहीं लगता वो सीढ़ियों पर कदम बढ़ा चुकी थी। गर्दन मोड़कर पूछा किससे डर इन मुर्दा चिताओं से ? मै तो ज़िंदा चिता हूँ।
वृद्धा फिर हंस पड़ी, मेरी तरह ही उसने हां में गर्दन हिलाई और जोर से हँस पड़ी कुछ आते जाते लोग उन्हें अजीब नजरों से देख रहे थे ये सामंजस्य उनके गले नहीं उतर रहा था एक पढ़ी लिखी सुन्दर कुलीन कम उम्र की और दूसरी फटेहाल वृद्धा ये कैसा संगम ?
पर वे दोनों बेख़बर अपनी अद्भुत मित्रता में बिना किसी वादे और सरोकार के खुश थी क्योंकि उन्हें पता था वे बाहर से कितनी भी भिन्न है अन्दर से तो एक ही हैं - ज़िंदा चिताएं !
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