ऋचा अनुरागी।
बकौल राजेन्द्र अनुरागी:-
वे काट रहे हैं
ऊँची कुर्सियों के पाये
ताकि उनके चहेते बौने
उन पर चढ़ सकें
और वे घढ़ सकें
एक बौनी पीढ़ी का इतिहास
जिसमें
ठीक आदमक़द ऊँचाई का
सिर्फ एक प्रतिमान रहे
वे रहें
उनका खानदान रहे।
देश में कुछ जगह चुनावी त्यौहार आ गया है। त्यौहार इसलिये कि जिन्हें टिकट मिल गया वे हारें या जीतें उनकी तो लाटरी निकल ही गई। चंदा ,फंड,और जुगाड़-तुगाड़ से जितना धन आएगा, कुछ खर्च करेगे शेष सारा भविष्य के लिये जमा। गरीब का त्यौहार तो दारु,टका सेर अनाज ,कंबल और ढ़ेर सारे सपने बस हो गया त्यौहार। तरह—तरह की फड़े जमी हुई हैं कहीं अपनों को बेचा जा रहा है तो कहीं परायों को खरीदा जा रहा है। मोल-भाव भी खूब चल रहा है। कहीं मान-मनौव्वल तो कहीं सर फुटौवल चल रही है तो कोई अपनी तो कोई अपनों की टिकट की जुगाड़ में थे या हैं। यहाँ काया कल्पी नेताओं की भी अपनी-अपनी विशेषज्ञता है।
जो साठ और नब्बे साल से कांग्रेसी काया में थे वे भी काया कल्प कर बीजेपी कायी हो गये तो कहीं किसी और काया में कायाकल्पित हो गये हैं।कहीं तो पूरी की पूरी पार्टी ही काया कल्प कर रही है। कांग्रेस मुक्त देश की बात करने वाले अब कांग्रेस मयी हो गये हैं। परिवार वाद की सबसे ज्यादा विरोध करने वाली बीजेपी अब इसमें सबसे ज्यादा रंगी हुई है। बीजेपी में तो आयातित परिवार भी शामिल हो गये हैं जिन्हें पूरा सम्मान दिया जा रहा है। परिवार वाद भी खूब फल-फूल रहा है यह तो इनकी विरासत है जिसे वे हस्तांतरित करते रहते हैं इसमें योग्यता और पार्टियां मायने नहीं रखती। राजा का बेटा राजा और परिवार का हर सदस्य अलग-अलग सूबे का सूबेदार। भला हो चुनाव आयोग का, जो चुनावों में उम्र सीमा निर्धारित कर दी वरना गर्भ में ही बच्चा चुनाव प्रत्याशी हो सकता था। इस चुनावी माहौल में पापा की कविता याद आ रही है:—
आजा, मतदाता आजा
राजा की बेटी रानी
रानी का बेटा राजा
यह राग शुध्द दरबारी
धुन-लोकतंत्र में गाजा
आजा, मतदाता आजा
यह लोकतंत्र का बाजा
तू ढपली फोड़ बजा जा
ये गाज़े-बाज़े वाले
राजे के पाँसे आये
ये नाटक-ये नौटंकी
सौ खेल-तमाशे लाये
(सौ फाँसू झाँसे लाये)
यह स्वीट नींद की गोली
तू पाँच साल को खाजा
आजा, मतदाता आजा
यह देख चमाचम चाँदी
इसकी सब दुनियाँ बाँदी
इसकी दम पर चलती है
दमदार चुनावी आँधी
आ, तू भी इस आँधी में
अपना मतपत्र उड़ा जा
आजा, मतदाता आजा
तुम भी निज स्वारथ साधो
जनता मिट्टी की माधो
ये कहे कबीर चुनावी
सुन भाई मतदाता साधो
ये दारू का कुल्हड़ ले
औ' भूखे पेट चढ़ा जा
आजा, मतदाता आजा
ऐसे समय में उनके पास हर पार्टियों के लोग आते थे कोई आशीष की आकंक्षा लेकर आता था तो कोई सलाह के लिये तो कोई अपने लिये भाषण और कविताओं के लिये। सबकी अपनी-अपनी मनशाऐं होती थी जो अनुरागी जी यथायोग्य पूरी करते। पर उनका मन , देश के आमजन के लिये दुखी और चिन्तित रहता। वे अपनी लेखनी से सबको समझाने की कोशिश भी करते तो कहीं इन सभी को आईना भी दिखाते। उनका लिखा हर समय प्रासंगिक लगता है।उनका एक लेख "भिखारियों की भीड़ों में भ्रमित लोकतंत्र "जिसमें वे लिखते हैं:
इन दिनों राजनीति के गलियारों में उजले-मैले परिधानों से सजे टिकटार्थियों की भीड़ें हमारी प्रणाली पर सवालिया निशान लगाती हुई इफरात से देखी जा सकती हैं। हर पार्टी- मुख्यालय से लेकर चपरकनातियों के घरों तक टिकटार्थियों की भीड़ें बहुत - कुछ एक जैसी ही धज में जमी हैं।
इनके ये बौनी के क्षण हैं। ये खुद को इन्वेस्ट कर रहे हैं। चुनाव जीतते ही फसल काटने के सपने अभी से इनकी आँखों में हैं। कुछ ऐसे भी स्वल्प-संतोषी लोग इस भीड़ में शामिल हैं, जो निश्चित तिथी के पूर्व ही अपनी पर्ची वापिस ले लेने की जुगाड़ में हैं और उन लोगों से मोल-भाव कर रहे हैं, जिन्हें वे वोट काटकर नुकसानदेह साबित हो सकते हैं। वे इनसे बैठ जाने का अनुरोध करेंगे और ये थोड़ा-कुछ ठिनक-ठिनक कर कुछ लेने-देने के बाद बैठ जाएँगे। ऐसा ये हर इलेक्शन के दौरान करते हैं। हल्ला-गुल्ला करते हुए खड़े हो जाते हैं और फिर गुपचुप बैठ जाते हैं। इस खड़े होने और बैठ जाने के बीच ही इनका अपना लोकतांत्रिक रोल समाप्त हो जाता है।
और कुछ खुदा के बच्चे इनकी जेबों में खनखना उठते हैं। ये बाड़ी में ही बिक गई खरबूजों की फसल के मानिन्द होते हैं और खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग बदल लेता है। बिकना, वैसे सभी को है; कोई बाड़ी में बिक जाता है, तो कोई मंडी में पहुँच कर बिकता है। नियती में फर्क नहीं पड़ता, भाव भर कम-ज्यादा हो जाते हैं। और यह तो मंडी का नियम ही होता है कि जिसमें माल रोक रखने की क्षमता होती है, वह ज्यादा भाव पाता है और ऐसा ही राजनीति में भी वह नेता ज्यादा भाव खाता है, जो खुद को आगे चढ़ा कर भुनाता है। इनके भाव करोड़ों तक पहुँच जाने की नजीरें हमारे यहाँ मौजूद हैं। और ये सारे खेल बड़ी बेशर्मी के साथ हमारे यहाँ खेले जा चुके हैं। शरम की बात यह है कि अब ऐसी बातों पर किसी को शरम भी नहीं आती!
ये रोजमर्रा की बातें हो गई हैं और इन्हीं में हमारी पहचान खो गई है। दुनिया भौचक हो देख रही है- भारतीय माने क्या? एक ऐसा राजनीतिक सिफर, जो पिछले दशकों में लगातार ही बड़ा होता चला आया है और उसी अनुपात में आम-जन छोटा हुआ है;नगण्य हुआ है और अपनी ही नजरों में गिरता चला गया है? कुछ आम-जनों की खास हो जाने की तमन्ना। दिनोदिन बढ़ी है और कुछ खास लोगों की संतानें खासुलखास वाली सीढ़ियाँ चढ़ी हैं। इसे भी अब कोई बुरा नहीं मानता, 'जो शहजादो' वाली अदा के साथ 'नेताजादे' पब्लिक प्लेटफार्मों पर कुर्सियां जमाए बैठे हैं और नये किस्म के दरबारी अकीदे अपनाये जा रहे हैं। छोटे नेता बड़े नेता के सामने और बड़े नेता अपने से बड़े नेता के सामने, एक खास अदा के साथ दायें हाथ से सामने वाले का घुटना-वंदन करता हैऔर अपनी राजनीतिक मनसबदारी का इजहार करता है। इसमें उम्र का या अन्य कोई लिहाज नही होता, यह सिर्फ एक राजनीतिक रिवाज होता है और रिवाज के बतौर ही इसे अंजाम दिया जाता है। ये दृश्य हमारे आज के राजनीतिक जीवन में आम हो गये हैं।
कुछ खास की बात छोड़ भी दें तो ये भीड़ें ज्यादातर उन आम लोगों की होती हैं, जो खास बनने की जुगाड़ में कुछ खासुलखास लोगों के आस-पास जमा होते हैं और पार्टी टिकिट के नाम पर उन जीपों और पीपों का इंतजार कर रहे होते हैं, जो पार्टियों की ओर से इन्हें मुहैया कराये जाते हैं। बड़ी और ताकतवर पार्टी वह मानी जाती है, जो अपने उम्मीदवारों को ज्यादा धन और साधन उपलब्ध करती है। इसमें एक आच्छा-खासा प्रतिशत उन लोगों का होता है, जो टिकिट पा जाने-भर में रुची रखते हैं और टिकिट के साथ प्राप्त धन और साधन ही इनकी रुची का खास मुद्दा होता है। ये अकसर ही धन बचा लेते हैं और साधन पचा लेते हैं, बाकी हार-जीत से इनका कोई ज्यादा सरोकार नहीं होता। ये जन-बल से न सही, धन-बल से तो खास बन ही जाते हैं। बातें, मगर हर हाल में ये आम जन की ही करते हैं।
आम जन की बात करते हैं, खास लोग
पंडे ज्यों खाते हैं, पिडी पर चढ़ा भोग।।
इनके ही आयोजन, इनके ही अभिनंदन।
लल्लूजी घिसते हैं, मुफ्त में मिला चंदन।
परसादीलाल बने, खड़े आस-पास लोग।।
दरपन के टुकड़ों पर, सूरज चमकाते हैं।
पूरब की कहते हैं, पच्छिम को जाते हैं।
भीड़ें भड़काते हैं, शातिर बदमाश लोग।।
'आम' बोनसाई हुआ, 'आदमी' नदारत है।
दुनिया का सबसे बड़ा, लोकतंत्र भारत है।
भारत को गारत किये, यही सौ-पचास लोग।।
आम-जन के नाम पर खास बनने की तिकड़में जमाने वाले ये लोग ही आज सत्ता के आस-पास हैं और आम-जन निराश है।वह कहना चाहता है---
वादे ही वादे-भर तो कल तक थे
अब आज खोपड़ी खड़े तकादे हैं
आसार नहीं अच्छे प्रतीत होते
मालिक, इनके कुछ गलत इरादे हैं।
ये पहले हमसे वोट माँगते हैं
फिर ये कुर्सी पर कोट टाँगते हैं
हर गलत काम की जड़ में होते हैं
टेबिल के नीचे से नोट माँगते हैं
तुम कितना भी कुछ कहो, बेअसर है
ये मोटी बेशर्मी लादे हैं।
ये मक्कारी में पीर कलंदर हैं
ये सत्ता की सत्ता इनके अंदर हैं
इनके छुपने के लाख ठिकाने हैं
हर गली-गाँव में मस्जिद-मंदर हैं
ये हत्यारी भीड़ें भड़काते हैं
ये शैताँ के असली शहजादे हैं।
( साभार नये मनुष्य का सपना - राजेन्द्र अनुरागी)
चाहे अनुरागी लिखता - गाता रहे।
या दिनकर कहे ---
सिंहासन खाली करो
अब जनता आती है।
या कहीं दुष्यंत कहता रहे---
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
पर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
क्या फर्क पड़ता है हमने अपनी नियती खुद तय कर ली है । अब हमें कोई फर्क नही खुद की चिन्ता नहीं तब समाज, देश.........
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