ऋचा अनुरागी।
एक सच्चा, नेक, ईमानदार इंसान किसी पक्ष का प्रवक्ता नहीं हो सकता है। वह सर उठा कर नजरें मिला कर किसी के भी सामने खड़े होने की हिम्मत कर सकता है। वह कह सकता है-
मैंने साल-वन को फूलते देखा है
और बूझी है उस कोंपल की अस्मिता
जो अपनी पींड पर खड़े वृक्ष की
छुनगी पर जनमती है
और भोगती है
उस उँचाई पर बहने वाली हवा का सुख।
अस्मिता की नौंटकी
मैंने उस बोनसाई बबूल की भी देखी है
जिसका दादा
कभी हमारे परदादा की
फेंकी गई दातुन से जन्मा था
और जो आज
सोने के नक्काशीदार गमले में
बड़े साहब के चमचों के हाथों
लिफ्ट से उठवा कर
भवन की छत पर विराजमान है
साहित्य और संस्कृति के नाम
जिसका फ़रमान है,--
वृक्षो, सब बोनसाई हो जाओ
और वैसा ही गाओ
जैसा गाता हूँ मैं
और वैसा ही नाचो
जैसा नाचती है मेरी प्रिया।
अस्मिता का टकराव अवश्यंभावी है
क्योंकि अपनी पींड पर खड़े
वृक्ष की छुनगी पर जन्मी
कोंपल की अस्मिता का ताल्लुक
मूल से होता है
और बोनसाई बबूल का
मालिक की भूल से होता है।
ऐसा वे अपने अफसर, सत्ताधीन व्यक्तिओ के लिये लिखते सुनाते थे। उसका परिणाम सहने के लिए भी तैयार रहते थे। मैंने अपने पापा राजेन्द्र अनुरागी का वह रुप भी देखा है जब उनके साथ के लोग अपने अफसरों की चमचागीरी करते थकते नहीं थे, कुछ उनके सामने जाने से भी घबराते थे और पापा मस्त उन्हीं अफसरानों के साथ चाय की चुस्की लेते हुए कविताएं सुनाते और अगर कुछ गलत होता तो उसकी निंदा भी करते। वे बड़े गर्व से कहते कि सरकार की नौकरी रा. कु. जैन(राजेन्द्र कुमार अनुरागी) करता है,राजेन्द्र अनुरागी किसी की नौकरी नहीं करता वह कभी किसी के बंधन में नहीं रह सकता। वे निर्भीक होकर अपना मत-विचार सबके सामने रखते। दरअसल उनकी ईमानदारी ही उनकी ताकत थी। सरकारी नौकरी में कई पदस्थापनाएं और मौके भी ऐसे आए कि वे अच्छा-खसा रुपया कमा सकते थे पर उन्होंने सदा इस तरह की कमाई से परहेज रखा और गाते रहे---
सुविधा की खूँटियों पर
बेशकीमती आयातित पिंजरों में टँगे हुए
दूध-रोटी खाते, चित्रकोटी गाते सुए
हमसे भी कहते हैं, आओ,
किसी एक पिंजरे में
हम जैसे टँग जाओ
दूध-रोटी खाओ
चित्रकोटी गाओ।
हम मगर उड़ान पर हैं
मुक्त आसमान पर हैं
और हमें मालूम है
कि हमारे गाने से अनार पकते हैं
अमरुद में रस आता है
और इस मिट्टी से अपना सगा नाता है
जिसमें जन्में हैं हम
वंदेमातरम्।
शायद यही वजह थी कि ईमानदार अफसरों से उनकी खूब पटती थी और वे हर खासो-आम के चहेते थे। आज यादों की गठरी से कुछ प्रशासनिक अधिकारियों और राजेन्द्र अनुरागी की मित्रता के प्यारे लम्हें आप से साझा करने जा रही हूँ। अक्सर समाज मे एक भ्रम रहता है कि आई. ए. एस., आई. पी. एस. अधिकारी घमंडी होते हैं वे किसी से मिलना पसंद नहीं करते और भी अनेक इसी तरह की बातें इनके बारे में कही-सुनी जाती हैं। पापा की दोस्ती इस खास वर्ग में भी अच्छी खासी थी। हमने पापा के पास अनेकों आई. ए. एस , आई. पी. एस. अधिकारियों को घन्टों गप्पियाते और कविताएं सुनते-सुनाते, ठहाके लगाते देखा है।
भारत के चीफ जस्टिस जे. एस. वर्मा की साली स्नेह और उनकी पत्नी स्वर्णा पापा को राखी बांधती थी और वे इस नाते पापा के जीजाजी थे। हमारे घर सबसे पहली राखी पापा के हाथों पर स्नेह बुआ की ही बंधती बाद में सबकी। यह प्यारा रिश्ता अन्तिम समय तक कायम रहा।
आई.ए.एस. शशी (बहल) जैन अक्सर माँ के पास आकर कहती भाभी पहले आपके हाथों से बना भोजन करुंगी फिर भैया से कविताएँ सुनेगे। शाम से रात हो जाती। वे अक्सर पापा के साथ गंभीर विचार-विमर्श भी करती। माँ से घरेलु तो पापा से समाजिक और प्रशासनिक चर्चाऐं करती। एक ईमानदार महिला आई. ए. एस अफसर को किन कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था वे पापा और माँ को बताती।पापा उनकी हौसलाअफज़ाई करते और कहते तुसी सिंह दी पुत्तर है भले जैन नू शादी की-सी पर अपनी दहाड़ ना भूलना। वे हँसती और कहती-मैं जब अपने को कमजोर महसूस करती हूँ तो आपके पास चली आती हूँ।
एक प्रसंग गुदगुदाता है -श्री एल. के जोशी जो यू. पी. केडर के आई. ए. एस. अधिकारी थे और बीच में उनकी पोस्टिंग म. प्र. में सूचना प्रसारण विभाग में हुई। लखनवी नज़ाकत वाले निहायत शरीफ इंसान, ठेट बरुकट भोपालियों से वास्ता पड़ गया तो किसी ने उन्हें अनुरागी जी का नाम बता दिया बस फिर क्या था दोनों की दोस्ती हो गई और जोशी जी की शामें अनुरागी निवास पर बीतने लगी क्योंकि उनका परिवार लखनऊ में ही था। जोशी जी बड़ी-बड़ी मूछों के स्वामी थे। सबसे छोटी बहन पिंकी (आस्था) लगभग चार साल की रही होगी और छोटे मिंया बॉबी (अमिताभ) भी बस पिकी से डेढ दो साल बड़े। एक दिन पिंकी ने , बॉबी भाई से पूछा-भाई जोशी अंकल की मूछें असली हैं ? तो भाई ने मुंह बिचका कर कहा शायद नकली हैं। इतनी बड़ी-बड़ी मूछें असली कैसे हो सकती हैं। दोनों ने सच जानने का निश्चय किया। ड्राइंगरूम में पापा, एल. के. जोशी जी और कुछ लोगों के साथ अपनी चर्चाओं में तल्लीन थे कि आस्था कमरे में प्रवेश करती हैं और जोशी जी की मूंछों को जोर से पकड़ कर खींचते हुए चिल्लायी असली है भाई असली है। सब हक्का—बक्का थे पापा भी घबराये मन थे पर जोशी जी ने उसे प्यार से गोद में बैठा लिया और बोले यह तो असली ही है। अब तो सब जोर से हँस पड़े। सबको हँसता देख बॉबी भाई जो पर्दे के पीछे सहमा खड़ा था ताली बजता सामने आ गया और दोनों नाचने लगे असली है असली है।
कुछ सुनहरी यादें के. एल. अजवानी अंकल की भी मेरे अनमोल खजाने में हैं। अजवानी अंकल भोपाल कमिश्नर हुआ करते थे और जब कभी समय मिलता तो शाम अपने कुछ रसिक मित्रों को मेरे निवास पर आंमत्रित कर लेते और स्वयं पापा को लेकर घर आ जाते। देर रात तक सब मिलकर कविताओं का रसापान तो करते साथ में डॉ. साहब यानी मेरे पति डॉ. जैन के हाथों की मोटी रोटियों का भी आनंद लेते। यहाँ सब अपनी आई. ए. एस. गिरी को भूलकर खूब ठहाके लगाते। पापा ने कभी अपनी दोस्तों और दोस्ती का फायदा नहीं उठाया जबकि उनके मित्र दिल्ली से लेकर देश के हर कोने में उच्च पदों पर विराजमान थे। सुश्री प्रतिभा हाड़ा दिल्ली में सीनियर आई. ए. एस. थी और प्रभावशाली भी। हम दिल्ली में उनके घर जाते तो वे अपने हाथों से बनाया भोजन कराती। पापा पर छोटे भाई सा स्नेह रखती, हम सब उन्हें बुआ कह कर संबोधित करते। 1985 में असम समझोते के समय राजीव गाँधी की टीम का मुख्य हिस्सा रहीं प्रतिभा हाड़ा की तस्वीरे जब अखबारों में छपी तो पापा अपनी खुशी का इजहार करते नहीं थकते थे, फोन पर बुआ से बात करते हुए उनकी खुशी देखने लायक होती थी। पापा सबको इतना ही अपना बना लेते थे कि फिर सबका सुख-दुख भी पापा का हो जाता। दिल्ली की ही बात करुं तो अश्वनी लूथरा अंकल (सीनियर इंकमटैक्स कमिश्नर) श्रीमती चांदनी लूथरा , श्री बहेल, श्री शरद बेहार पापा के अच्छे मित्रों में ही नहीं वरना पारिवारिक मित्र भी हैं।
मध्यप्रदेश के पूर्व चीफ सेकेट्री श्री कृपा शंकर शर्मा तो अतिशंयोक्ति नहीं होगी होशंगाबाद के नाते उन्हें अपना बड़ा भाई मानते और पापा भी उन्हें सदा कृपा कह कर संबोधित करते और अपना स्नेह बरसाते। श्री महेश नीलकंठ बुच और श्रीमती निर्मला बुच में तो झगड़ा ही इसी बात को लेकर था कि अनुरागी उनके विभाग में रहेंगे और एक समय ऐसा भी आया जब अपने मुख्य विभाग से प्रतिनियुक्ति पर पापा नगर निगम भोपाल और मध्यप्रदेश माध्यमिक शिक्षा मंडल दोनों में काम कर रहे थे। क्योंकि बुच साहब नगर निगम कमिश्नर थे और मैडम बुच के पास शिक्षा विभाग की कमान थी।
भोपाल कलेक्टर प्रवीण कुमार चौधरी तो उनके परम शिष्यों में शामिल हैं अतः प्रवीण भैया की यादों में तो मैं पूरी एक पुस्तक ही लिख सकती हूँ। सुश्री अनुराधा शंकर ( सीनियर आई.पी. एस) से जुड़ी बहुत सी सुखद यादें मेरी धरोहर हैं जिन्हें कभी आप सबसे शेयर करुंगी। , सुश्री प्रज्ञा-ऋचा (आई. पी. एस.), और उनका पुत्रवत् बेटा अनिल महेश्वरी (आई. पीएस ) जिससे पापा बहुत प्यार करते , उसे हमेशा अपने बच्चों सा प्यार करते और मेरा यह प्यारा भाई आज भी उनके बताये रास्ते पर चलता हुआ ईमानदारी की मिसाल बना है। बहुत सारे नेक और ईमानदार अधिकारी जिनका एक निस्वार्थ प्यार भरा सर्किल था जिनका मुख्य उदेश्य समाज को सही मार्ग दिखना , सच्चाई की राह चलना और खूब खूब प्यार बंटना। बस इतना ही कहना चाहूंगी कि ये लोग भी आम इंसानों से ही हैं बस उनकी अपनी जबाबदारी है और इसके लिए उन्हें थोड़ा कड़क रहना ही होता है।
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