ऋचा अनुरागी।
जिस तरह "नीत्से"ने क्राइस्ट को, बुद्द को स्त्रैण-स्त्रियों जैसा कहा है, मैं अपने पिता श्री राजेन्द्र अनुरागी जी के लिए भी यही कहती हूँ-वह इस अर्थ में कि जीवन में जो कोमल गुण हैं, जीवन के जो माधुर्य से भरे सौन्दर्य, शिव की कल्पना और भावना है, करुणा, ममता, प्यार-स्नेह, वात्सल्य है कहते हैं यह स्त्री का अनिवार्य स्वभाव है और यह पुरुषोचित गुणों के साथ-साथ मेरे पापा में मौजूद था। यही वजह है कि मैं उन्हें अर्धनारीश्वर महाशिव कहती हूँ, यह अलग बात है कि उनका जन्म भी महा शिवरात्री को हुआ था।
आज समाज में एक बड़ी विचित्र सी समस्या उत्पन्न हो रही है, जिसे हम स्वयं ही उत्पन्न कर रहे हैं। एक तरफ वे लोग हैं जो बेटियों को जन्म से पहले ही मार देते हैं और दूसरी ओर वे लोग हैं जो बेटियों को बेटी रहने ही नहीं देना चाहते। ये दोनों ही स्थितियां बेटियों के अस्तित्व के लिए घातक हैं। बेटियों को बेटों सा पालना और बेटियों को बेटा बना देना दो अलग बात हैं, आज समाज में बेटियों को बेटा बना देने की सजिश चल रही है। मैं बेटियों के पढ़ने-लिखने, खेलने-कूदने, आत्मनिर्भर होने के कतई खिलाफ नहीं हूँ, पर उनके मूल नैसर्गिक गुणों, संस्कारों से अगर उन्हें विमुख किया जाता है तो मैं उसकी खिलाफत करती हूँ। छोटा सा उदाहरण है-जब मैं अपने बेटों को बाजार लेकर जाती थी तो वे बंदूक, रेसलिंग कारें, या कुछ इसी तरह के खिलौने पंसद करते थे। माटी से बम के गोले बनाते और कल्पनाओं में दुश्मन के छक्के उडाते थे, चोर- सिपाही का खेल खेलते थे। पर आज जब अपनी तीन साल की पोती अदम्या को बाजार ले जाती हूँ तो वह गुड़िया, किचिन सेट खरीदती है। माटी से केक और फल बनाती है, रेत के घरौंदे बना कर शंख-सीपों से सजाती है। यह हमने उसे सिखाया नहीं है यह उसके नैसर्गिक गुण हैं। आज हम उनके मूल गुणों को ही नष्ट करने पर तुले हैं। हम गर्व से कहते हैं हमारी बेटी खाना नही बना सकती,वह घर का काम-काज नहीं जानती, उसे हमने बेटों सा पाला है वह हमारा बेटा है,बेटियों को आत्मनिर्भर जरुर बनाए पर उन्हें नकली और दिखावटी जीवन न दें।
इन दिनों मैंने पापा के अनेक रुपों को छुआ देखा और अपनी यादों को विस्तार दिया। एक सम्पूर्ण पिता की महती भूमिका पर अक्सर उनके मित्र उन्हें खरा नहीं मानते थे। वे सब कहते-कि अनुरागी ने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी को महत्व नहीं दिया और उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी का पूरा श्रेय माँ को ही दिया। पर मेरा मानना है कि जहाँ तक सवाल पारिवारिक जिम्मेदारी का है वह दो तरह से होता है, माँ घर की व्यवस्थापक थी और वह अपनी इस भूमिका में सौ प्रतिशत कामयाब थी। जिस घर में छः बेटियां हों और हजारों तरह के लोगों का आना-जाना हो तब माता-पिता की जवाबदारी ज्यादा बढ़ जाती है। माँ मेहमाननवाजी, बेटियों को गृहकार्य में दक्ष करने की भूमिका निभा रहीं थी, हमें उन कार्यों में निपूर्ण कर रहीं थीं जो हमारे घरेलू जीवन के लिए जरूरी थे और पापा हमें समाज के हर रुप से परचित करा रहे थे। वे हमें आदर्श जीवन का मार्ग समझा रहे थे। हमने पापा के रुप में एक सच्चा मित्र पाया जिनसे हम अपनी हर बात शेयर कर सकते थे। जिन बातों को बताने में माँ से डरते थे, उन बातों को पापा से बेहिचक कहते और यह अकेले मेरा नहीं हम सब बहनों का हाल था। शायद यही कारण है कि हम बहनें आज समाज के सामने माथा ऊँचा कर जी रहीं हैं, अपने पापा के दिखाये रास्तों पर चल रहीं हैं। आज पापा के उन अनजाने पहलूओं पर बात कर रही हूँ जिसे सिर्फ हमने महसूस किया है और जाना है कि हमारे पापा अपने बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए कितने मजबूत स्तंभ थे, हैं और रहेगे।
वाकया बड़ी बहन श्रध्दा के कालेज प्रवेश के समय का है, पापा अपने एक मित्र रामसिंह अंकल जो बड़ी मूंछें और भारी भरकम डील—डौल वाले थे,दीदी को लेकर एम. एल. वी. कालेज पहुंचे। कार से उतर पापा दीदी का हाथ थामें अन्दर को बढ़ रहे थे ,उनकी नजर वहाँ के परिवेश को परख ही रही थी कि एक आवाज पापा के कानों तक पहुंची, किसी लड़की ने फब्ती कसी-कब तक पंखों में छुपाये रखोगे,पापा ने गुस्से में मुडकर देखा और कहा--रामसिंह देखना ये अगर घौसलों से बाहर हों तो इन्हें पंखों में छिपे रहने का महत्व समझा देना। इसके बाद वे दीदी को अन्दर ले जाने की बजाय बाहर ले आये और बोले मुझे इस माहौल में अपनी बेटी को नहीं पढ़ाना। चलो कोई और कालेज देखते हैं बाद में दीदी को नूतन कालेज में प्रवेश दिलाया। बात बहुत मामूली लगती है पर आज गहराई से देखते हैं तो समझ आता है कि पापा ने आज से 45-50 साल पहले जो देखा और अनुभव किया था उसका परिणाम देख वर्तमान में वहाँ के माहौल को देखते हुए एम. एल. वी. कालेज का स्थान परिवर्तित कर पॉलीटेक्निक चौहराहे के पास स्थांतरित किया गया। यह थी मेरे पापा की दूरदृष्टि।
घर पर आने वाले एक तथाकथित साहित्यकार जब हमारे घर आते तो पापा हमें कठोर इशारा करते हुए अन्दर जाने को कहते। समय-समय पर हमें ऐसे लोगों के बारे में सजग भी करते। पापा जो देखते समझते थे वह माँ नहीं देख पाती थी। उनकी आँखें पढ़ लेती थी कि किस व्यक्ति के अन्दर क्या चल रहा है। हमारे दोस्तों के बारे में उन्हें पूरी जानकारी होती थी वे सबसे मिलते हँसते हँसाते सब पर पैनी नजर रखते। उनकी वक्त-वक्त की सलाह-मशवरा कभी दोहों-कविताओं में तो कभी कहानी-मुहावरों में मिलता और हम समझ जाते कि पापा किसके लिए और किससे कह रहे हैं।
पापा ने अपनी बेटियों को कभी किसी बंधन में नहीं जकड़ा। उन्हें आगे बढ़ने के सभी अवसर दिये। हर कदम पर सबके विरोध के बाद भी हमारा साथ दिया।एक और घटना छोटी बहन आस्था के साथ घटी। पापा और वह ट्रेन से सफर कर रहे थे, भोपाल स्टेशन पर उतरते समय किसी व्यक्ति ने उसे गलत ढंग से छूने का प्रयास किया , वह कुछ समझ पाती इसके पहले पापा जो ट्रेन से उतर चुके थे, दौड़ कर उस व्यक्ति के पास पहुंचे और हाथ में पकड़े छोटे ब्रीफकेस से उस पर जोर का प्रहार किया फिर बेटी का हाथ थाम आगे बढ़ गये। इस तरह की घटनाऐं हमें , पापा की हमारे प्रति गहरी जवाबदारी के साथ मजबूत पापा को हमसे मिलवाती है। परिवार में भी अनेक अवसरों पर पापा ने हम बहनों को पूरी स्वतंत्रता के साथ सुरक्षा भी दी। सुरक्षा का मतलब पहरेदार नहीं बल्कि आत्म बल, पापा द्वारा हिम्मत और यह विश्वास की पापा हमारे साथ हैं, हरकदम, हर वक्त।
यह विश्वास ही हमारा हौसला बढ़ता रहा है। लोग उन्हें मन मौजी, मस्त फ़कीर कहते थे यह कुछ हद् तक सही भी था वो ऐसे ही थे पर बेटियों के लिये अतिशोक्ती नही, वे माँ भी थे, मित्र भी, गुरु और पिता तो थे ही। पापा ने हमें बेटों सा पला जरुर पर बेटियों की सम्पूर्णता के साथ, हमारी नैसर्गिक खूबियों के साथ विकसित होने दिया, यही खास परवरिश थी जो हमें सबसे अलग पहचान देती है। माँ यूं तो बहुत प्यारी है पर उनकी एक खास छवि दुनिया के सामने पापा ने ही बनाई जिसमें खुद को सदा माँ से पीछे रखा। अगर मैं आज पापा के इस रुप का स्मरण नहीं करती तो शायद पापा का यह रुप सबके सामने नहीं आ पाता और मैं उनकी अपराधी होती। मेरे पापा का यह सबसे प्यारा अर्धनारीश्वर रुप है। आज भी हम सब बच्चे उन्हें बड़ी शिद्दत से याद करते हैं, मैं आज पापा के लिए लिखी उनकी नातिन गीतम बड़ालिया की रचना सिर्फ इसलिए यहाँ अंकित कर रही हूँ कि उनका वह रुप जो मैंने देखा महसूस किया वह हर बेटी ने महसूस किया।
नाना जी
संवेदना हैं,भावना हैं, एहसास हैं,
जीवन के फूलों में खुश्बू का वास हैं।
रोते हुए बच्चों का खुशनुमा पालना हैं,
मरुस्थल में बहता मीठा सा झरना हैं।
पूजा की थाली हैं मंत्रों की जाप हैं,
बहती आँखों काधों का सहारा हैं।
गालों पर पप्पी हैं, ममता की धारा हैं,
हमारे दिलों में कोयल सी बोली हैं।
कलम हैं, दवात हैं, स्याही भी वही हैं,
परमात्मा की तरह हमारे जीवन में हैं।
तपस्या हैं, त्याग हैं, सेवा की मूरत हैं,
साधना हैं जीवन का हवन भी वही हैं,
गुरुद्वारा हैं, मंदिर हैं, चारों धाम भी वही हैं।
जिन्दगी की कड़वाहट में अमृत प्याला हैं,
पृथ्वी हैं, संसार हैं,हमारी धुरी भी वही हैं।
नानाजी का जीवन में कोई पर्याय नहीं,
वे अब नहीं पर उनकी मसीहाई छवी पास है,
नानाजी के बगैर इस जिंदगी की कल्पना अधूरी है।
गीतम
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